11.4.13

ज़िंदगी


सबेरा
बच्चे सा
हँसने लगा
कभी पंछी
कभी तितली
कभी फूल

धूप खिली
जानवर हो गया!
बदलने लगा
गिरगिट की तरह रंग
कभी कुत्ता
कभी गदहा
कभी घोड़ा...

रखने लगा
पंजे में
बिच्छू डंक
झेलने लगा
सर्प दंश

शाम
भेड़-बकरी हो गई
लौटने लगी
थकी-माँदी
घर

रात
हो गई 'वणिक'
जोड़ने-घटाने लगी
नफ़ा-नुकसान

इस तरह
चार दिन की ज़िंदगी
एक दिन में
पूरी हो गई।
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