16.9.17

रेलगाड़ी

रेलगाड़ी में बैठ कर रेलगाड़ी पर व्यंग्य लिखने का मजा ही कुछ और है। बन्दा जिस थाली में खायेगा उसी में तो छेद कर पायेगा। दूसरा कोई अपनी थाली क्यों दे भला? पुराने देखेगा और नया बनाकर सबको दिखायेगा। ट्रेन में चलने वाले ही ट्रेन को समझ सकते हैं। हवा में उड़ने वाले जमीनी हकीकत से कहाँ रू-ब-रू हो पाते हैं!

हमारे लिए तो रेलगाड़ी #ट्रेन नहीं, लोहे का घर है। एक ऐसा घर जिसमें सभी प्रकार के कमरे हैं। गरीबों के लिए, अमीरों के लिए और मध्यमवर्गीय के लिए अलग-अलग कमरे हैं। जैसी भारत की अर्थव्यवस्था वैसे रेलगाड़ी में कमरे । सभी धर्म और जातियों के लोग अपने मन की कलुषता छुपा कर, एक दूसरे से मुस्कुरा कर बातें करते पाये जाते हैं। एक ऐसा घर जहाँ भारत बसता है।

डबल बेड नहीं होता लोहे के घर में। लोअर, मिडिल और अपर बर्थ होते हैं। लोअर बर्थ ही दिन में गप्प लड़ाने वालों की अड़ी, रात में सिंगल बेड बन जाती है। जब तक जगे हो चाहे जितना चोंच लड़ाओ, रात में सिंगल ही रहो। सिंगल ही ठीक है, बेड डबल हुआ तो बवाल हो जाएगा।

मैं चाऊ-माऊ, जापान या यूरोप की बात तो नहीं जानता मगर भारतीय रेल धैर्य और साहस की कभी खत्म न होने वाली स्थाई पाठशाला है। भारतीय रेल में अधिक सफर करने वाला सहनशीलता के मामले में #गांधीवादी हो जाता है। कोई एक गाल में थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल झट आगे करने को तैयार! पहली बार रेलगाड़ी में सफर करने वाला व्यक्ति अव्यवस्था को देख भगत सिंह भले हो जाय, रोज-रोज सफर करने वाला गाँधी जी के बन्दर की तरह बुरा न देखो, बुरा न बोलो, बुरा न करो बड़बड़ाने लगता है।

इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि सहनशीलता की शिक्षा महात्मा गाँधी को दक्षिण अफ्रीका में रेलगाड़ी के सफर के दौरान मिली हो! क्या जाने उस समय दक्षिण अफ्रीका की रेलगाड़ी आज के भारतीय रेल की तरह प्रगति के पथ पर दौड़ती रही हो!

जैसे हर सफल पुरुष के पीछे कोई स्त्री होती है वैसे ही हर लेट ट्रेन के आगे एक मालगाड़ी होती है। लोग नाहक रेलगाड़ी को गाली देते हैं जबकि  रेलगाड़ी के लेट होने, हवा से बातें करने या पटरियों से उतर जाने के पीछे खुद रेलगाड़ी का कोई दोष नहीं होता। हानी, लाभ, जीवन, मरण सब ऊपर वाले की मर्जी पर होता है। इस सत्य को जान कर भी जो ट्रेन को गाली देते हैं उनको नादान ही समझना चाहिए।

जिसे हम अंग्रेजों का गिफ्ट मानते हैं वह भारतीय रेल अंग्रेजों द्वारा देश का माल लूटने की योजना का परिणाम हो सकती है। पहले मालगाड़ी बनाया फिर मालगाड़ी के लिए बनी पटरियों पर रेल दौड़ा दी। अब अंग्रेजों को क्या पता था कि आगे चलकर देश को आजाद कराने में और आगे विभाजन के समय भी रेलगाड़ी का खूब प्रयोग होगा!

दूसरे देशों में रेल भले पटरी पर चलती हो, भारतीय रेल हमेशा प्रगति के पथ पर दौड़ती है। प्रगती का पथ आप जानते हैं काटों भरा होता है। शायद यही कारण है कि अंग्रेजों द्वारा बनाई सभी सिंगल ट्रैक को हम आज तक डबल ट्रैक में नहीं बदल पाए।

बनी बनाई पटरी छोड़, निरन्तर प्रगति के पथ पर दौड़ रही है भारतीय रेलगाड़ी। पितर पक्ष में भले होरी अपने झोपड़ी के लिए गढ्ढा नहीं खोद सकता, #बुलेट_ट्रेन की नींव पड़ गई! यह भारतीय रेल द्वारा अंध विश्वास को ठेंगा दिखाना है। लगे हाथों यह भी सिद्ध हुआ कि अच्छा काम करने का कोई शुभ मुहूर्त नहीं होता। गलत काम करने के लिए भले ज्योतिष/वकील से सलाह ले लो, सही काम करने के लिए सिर्फ नेक इरादा और साहस की आवश्यकता होती है।

जितनी बार आप रेलगाड़ी में सफर करेंगे, उतनी बार आपको कोई नया दर्शन प्राप्त होगा। आपको सिर्फ गाँधी जी या मोदी जी जैसी दूर दृष्टि और अदम्य साहस दिखाते  हुए रेलगाड़ी में सफर करना है। सफ़र नहीं कर सकते तो स्टेशन में चाय ही बेचिए, दिव्य दृष्टि होगी तो फर्श से अर्श तक पहुंचते देर नहीं लगेगी। सफर कर रहे हैं और किसी टी टी ने आपको रेल से धकेल दिया तो समझो पूरा कल्याण ही हो गया। बिना सफर किये शीघ्र मंजिल पाना है तो रेल में नहीं, पटरी पर बैठने की आवश्यकता है।

रेलगाड़ी और जीवन में गहरा साम्य है। खिड़कियों से बाहर झांको तो बदलते मौसम का एहसास होता है। मंजिल से पहले कई स्टेशन आते/जाते हैं। मंजिल के करीब जा कर एहसास होता है कि वो बचपन था, वो जवानी और यह बुढापा है। सबसे दुखदाई तो मंजिल के करीब पहुँच कर आउटर में खड़ा होना होता है। रेलगाड़ी के सफर में आउटर अंतिम पड़ाव होता है। कई यात्री तो आउटर में ट्रेन को छोड़कर ऐसे चल देते हैं, जैसे कोमा में गये जिस्म को छोड़कर उनकी आत्माएँ। कई मंजिल की प्रतीक्षा में बेचैन हो जाते हैं और कई सफर के हर पल का आनन्द उठाते हैं। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप जीवन की इस रेलगाड़ी को कैसे जीते हैं।

9.9.17

परहित सरिस धर्म नहीं भाई..

धर्म और अधर्म का अर्थ समझाते हुए तुलसी दास जी लिखते हैं...

परहित सरिस धर्म नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।।

परोपकार के बड़ा कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है।

वे यहीं नहीं रुकते। आगे जटायू सन्दर्भ में लिखते हैं..

परहित बस जिनके मन माहीं।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।।

दूसरों के हित के लिए जो अपने प्राण भी निछावर कर देते हैं उनके लिए संसार में कुछ भी प्राप्य शेष नहीं रह जाता। और स्पष्ट करते हुए लिखते हैं...

संत विटप सरिता, गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।।
सन्त, वृक्ष, नदियाँ, पर्वत सभी का काम दूसरों पर परोपकार करना है। कोई अपने लिए नहीं जीता।

इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि प्रकृति का स्वभाव ही दूसरों का उपकार करना है। सूर्य, चन्द्र और धरती के समस्त पेड़-पौधे सभी दूसरों की भलाई के लिए बने हैं। स्वार्थ की भावना प्राणियों में ही दिखती है।

मैथिलीशरण गुप्त’ जी ने ठीक ही लिखा है...

“यह पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे ।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।”

रहीम दास जी ने लिखा...

'वो रहीम सुख होत है, उपकारी के संग
बांटने वारे को लगे, ज्यों मेहंदी के रंग।'

वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर !

वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, नदी जल को कभी अपने लिए संचित नहीं करती, उसी प्रकार सज्जन परोपकार के लिए देह धारण करते हैं !

कबीर दास जी ने लिखा..

स्वारथ सूखा लाकड़ा, छांह बिहूना सूल।
पीपल परमारथ भजो सुख सागर का मूल।।

स्वार्थ सूखी लकड़ी की तरह छाॅंह नहीं देती और राहगीर के कष्ट का कारण है। परमार्थी पीपल वृक्ष की भाॅंति अपने छाया से राहगीरों को सुख पहुॅंचाता है।

कबीर दास जी आगे लिखते हैं..

परमारथ हरि रुप है, करो सदा मन लाये
पर उपकारी जीव जो, सबसे मिलते धाये।

परमार्थ, दूसरों की सहायता करना ईश्वर का ही स्वरुप है।इसे सदा मनोयोग पूर्वक करना चाहिये। जो दूसरों का उपकार, मदद करता है वह उस प्रभु के समान है जो सबसे दौड़कर गले मिलते है।

सन्तों, कवियों ने परमार्थ को पहचान कर सभी को इस राह चलने की सलाह दी। मनुष्यों के हृदय में उपकार की भावना न हो तो संसार में सभी का जीना कठिन हो जाएगा। स्वार्थ जितना बढ़ेगा, जीवन उतना दुरूह होता जाएगा। यही कारण है कि आज के भौतिक युग में नाना प्रकार की विलासिता की वस्तुओं का उपभोग करने में समर्थ होते हुए भी लोग नाना प्रकार की व्याधियों से जकड़े, परेशान हाल घूमते पाये जाते हैं। निजी स्वार्थ में अंधे हो धन संग्रह करके तमाम सुख देने वाले साधनों को प्राप्त करने के बावजूद भी और..और की कामना में डूबे रहते हैं। 

ताल, तलैया पी कर जागा
नदी मिली, सागर भी मांगा
इतनी प्यास कहाँ से पाई
हिम से क्यों मरुथल तक भागा?
क्यों खुद को ही रोज छले रे!
तू है कौन? कौन हैं तेरे?

स्वार्थी मनुष्यों की भूख और प्यास तब तक समाप्त नहीं होती जब तक उनके भीतर दूसरों के उपकार की भावना नहीं जगती। परमारथ का भाव मन में न हो तो दूसरों का जीवन तो नर्क बनता ही है, स्वयं स्वार्थी को भी शांति नहीं मिलती। स्वार्थियों की इसी बेचैनी का फायदा ढोंगी बाबा उठाते हैं और भांति-भांति की भ्रांतियाँ फैलाकर लोगों को लूटने और अपना साम्राज्य खड़ा कर सुख भोगने में लगे रहते हैं। 
सुख उनको भी नहीं मिलता। जब पाप का घड़ा भर जाता है तो सब झूठ सामने आ जाता है। फर्जी बाबाओं का साम्राज्य ढहते और उन्हें जेल की हवा खाते देखने के बाद भी जिनकी आँखें नहीं खुलतीं उनका तो ईश्वर ही मालिक है

2.9.17

लोहे का घर-28

सुबह (दफ्तर जाते समय)

ट्रेन हवा से बातें कर रही है। इंजन के शोर से फरफरा के उड़ गए धान के खेत में बैठे हुए बकुले। एक काली चिड़िया उम्मीद से है। फुनगी पकड़ मजबूती से बैठी है। गाँव के किशोर, बच्चे सावन में भर आये गढ्ढे/पोखरों के किनारे बंसी डाल मछली मार रहे हैं। क्या बारिश के साथ झरती हैं आकाश से मछलियाँ ?

आज बारिश हुई है। घर से निकलते वक्त यही बारिश खराब लग रही थी, #लोहेकेघर में बैठ बाहर खिड़कियों से झांकते समय मौसम सुहाना लग रहा है। मौसम व्यक्ति की पोजिशन के हिसाब से अच्छा/बुरा होता है। मौसम बदलने के चक्कर में न पड़, पोजिशन बदलने का प्रयास करना चाहिए।

उमड़-घुमड़ बादलों से घिर-घिर, आ रही है बदली। एक टाली वाला खेत के किनारे बनी सड़क पर बोझा लादे टाली खींच रहा है। #रेल पटरी पर जमी घास उखाड़ रहे हैं मजदूर। पता नहीं इनके लिए मौसम कितना सुहाना है!

शाम(घर लौटते समय)

धान कुछ बड़े हो चुके हैं। कास फूल चुके हैं। वर्षा ऋतु बीत रही है। गोधूली बेला है। दिन ढलने वाला है। लोहे के घर की बत्तियाँ जल चुकी हैं। खेत अभी दिख रहे हैं। कहीं-कहीं सुनहरे हैं आकाश में छिटके बादल। बाहर सन्नाटा पसरा है, भीतर शोर है। तनिक और गहरे उतरिये तो बाहर शोर है और भीतर सन्नाटा। मन बेचैन है दृष्टा बनी हैं जिस्म की सभी इन्द्रियाँ।

मस्त है, इंजन के सहारे पटरी पर चलती गाड़ी। निश्चिंत हैं यात्री। यात्री के पास समय ही समय है। देश की चिंता करने के लिए फुरसत के ये लम्हें बड़े काम के हैं। आदमी फालतू न हो तो अपनी भी चिन्ता नहीं कर पाता, देश की क्या करेगा!

वे एक बड़े आदमी थे। शाम के समय अक्सर अपने साथियों के साथ देश की चिंता में डूब जाते। इधर मैं मैं करता अहंकार में डूबा बकरा कटता, कलगी उठाये घूम रहे मुर्गे स्वर्ग जाते, खौलते कड़ाहे में मछलियाँ तैरतीं उधर भुने काजू के साथ शराब के दौर पर दौर चलते। वे और उनके साथी तब तक देश की चिंता करते रहते जब तक कारिंदे आ कर कह नहीं देते..साहेब! खाना तैयार है।

लोहे के घर में आम आदमी देश की चिंता करते-करते बहसियाने और झगड़ने लगते हैं। न काजू मिलती है, न शराब। सभी फोकट में अपने-अपने बड़े आदमियों के लिए आपस में झगड़ते हैं। बड़े आदमी खाना खाने के बाद लेटे-लेटे टीवी में देख लेते हैं आम आदमियों को भी। बाढ़ से परेशान लोगों को देख कोई कहता है..यार! कोई बढ़िया वाला चैनल लगाओ, ये तो हर साल मरते हैं!

हलचल बढ़ रही है लोहे के घर में। आने वाला है कोई बड़ा वाला स्टेशन जहाँ अधिक लोगों को उतरना है। फुरसत के लम्हें खत्म हुआ चाहते हैं। देश की चिंता छोड़ अपनी चिंता करने का समय नजदीक आ चला है।

प्रकृति (सब गम भुलाकर जीना सिखाती है)

बारिश से पहले
तेज हवा चली थी
झरे थे
कदम्ब के पात
छोटे-छोटे फल
दुबक कर छुप गये थे
फर-फर-फर-फर
उड़ रहे परिंदे
तभी
उमड़-घुमड़ आये
बदरी-बदरा
झम-झम बरसे
बादल
सुहाना हो गया
मौसम
बारिश के बाद
सहमे से खड़े थे
सभी पेड़-पौधे
कोई बात ही नहीं कर रहा था
किसी से!
सबसे पहले
बुलबुल चहकी
कोयल ने छेड़ी लम्बी तान
चीखने लगे
मोर
कौए ने करी
काँव-काँव
और...
बिछुड़े
साथियों को भुलाकर
हौले-हौले
हँसने लगीं
पत्तियाँ।