29.8.13

रूपया गिर रहा है!

एक दिन बेचैन आत्मा सुबह-सुबह साइकिल से कहीं जा रहा था। रास्ते में चाय की दुकान के पास ढेर सारी मोटर साइकिलें खड़ी थीं। वहाँ बैठी कुछ चिंतित आत्माओं ने उसे देखा और अचरज से पूछा- यह आज 'मोटर साइकिल' छोड़ कर 'साइकिल' से क्यों जा रहे हो ?” बेचैन आत्मा ने पलट कर पूछा-तुम लोग यहाँ बैठकर क्या कर रहे हो ?” चिंतित आत्माओं ने कहा- डॉलर के मुकाबले रूपया रोज गिर रहा है। हम लोग देश की चिंता कर रहे हैं। बेचैन आत्मा ने हँसकर कहा- तुम लोग चिंता करो मैं गिरे रूपए को उठाने जा रहा हूँ।

ऐ सुनो! जियादा विद्वान मत बनो। तुम्हारे साइकिल चलाने से रूपया नहीं उठ जायेगा। बेचैन आत्मा ने कहा-सही कह रहे हो। मेरे अकेले साइकिल चलाने से रूपया नहीं उठेगा। तुम सब लोग साथ दो तो रूपया उठ सकता है।

चिंतित आत्माओं ने हट्टाहास किया—हा हा हा..बढ़िया है। शायद तुमको नहीं पता। रूपया गहरे गढ्ढे में गिर गया है। हमारे आठ दस लोगों के साइकिल चलाने से भी नहीं उठेगा।

बेचैन आत्मा ने समझाया- जरा सोचो! जब मुझे साइकिल चलाता देखकर तुम आठ दस लोग साइकिल चला सकते हो तो तुम सबको देखकर कितने लोग साइकिल चलाने लगेंगे ! सप्ताह में एक दिन भी यदि पूरे देशवासी पेट्रोल बचाने का संकल्प लें तो कितना पेट्रोल बचेगा! चिंतित आत्माएँ फिर बैठकर चिंता करने लगीं। बेचैन आत्मा उनकी बेचैनी बढ़ा कर चलता बना।

मैने कहीं पड़ा था- एक जंगली खरगोश हमेशा डरा रहता था। वह थोडे से आवाज या हलचल पर डरता और कूदता था। एक बार एक बड़ी पत्ती के गिरने की ध्वनि से उसे मौत जैसा डर हुआ। एक शरारती लोमड़ी चीखती है- आकाश गिर रहा है, भागो।’ लोमड़ी के मज़ाक को गरीब खरगोश सच समझकर जंगल में आतंक पैदा करता है और अन्य जानवरों को भी डराता है। सभी जानवर बेतहाशा भागने लगते हैं।

जब-जब पढ़ता हूँ रुपया गिर रहा है तो मुझे शरारती लोमड़ी और खरगोश की कथा याद आती है। कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। क्या जंगल राज आ गया है ? सोने की चिड़िया भी डरने लगी! अमेरिका और उसका डॉलर। ऊह! अभी कल तक उनकी कॉलर भी ढीली थी। संभले की नहीं संभले ?

मोटर साइकिल पर भागे जा रहे हैं और चीख रहे हैं रूपया गिर रहा है! कार से चल रहे हैं और फेसबुक अपडेट कर रहे हैं-रूपया गिर रहा है! साइकिल पर चलिए और पसीना पोछ कर देखिये...आपकी फालतू चर्बी घट जायेगी और रूपया अपने आप संभल जायेगा। रोज नहीं, सप्ताह में एक दिन तो साइकिल चला ही सकते हैं। पूरे देशवासी सप्ताह में एक दिन पेट्रोल बचाने का संकल्प लें तो रूपया अपने आप संभल जायेगा। सब सरकार ही थोड़े न करेगी, कुछ तो हमे भी करना होगा।

सरकार को भी चाहिए कि वे यातायात के ऐसे साधन विकसित करें जो घरेलू संसाधनो से चल सकते हों। इक्का, ताँगा, रिक्शा इन सब वाहनो को प्रोत्साहित करना चाहिए। इन साधनों में ऑटो के मुकाबले भले दो रूपये अधिक देने पड़ें लेकिन यह शुद्ध रूप से श्रम के बदले चुकाई जाने वाली कीमत है। ये दो रूपये डॉलर को हतोत्साहित और रूपया को मजबूत करेंगे। अब तो बैटरी वाले रिक्शे भी आ गये हैं। दूसरे भी और साधन होंगे जिनका मुझे ज्ञान नहीं।  माता-पिता को चाहिए कि आर्थिक रूप से वे चाहे जितने संपन्न हों बच्चों को तब तक मोटर साइकिल, कार न दिलायें जब तक वे खुद स्वावलंबी न हो जांय। 8-10 किमी का सफर बच्चे आसानी से साइकिल से तय कर सकते हैं। चार-पाँच किमी तो हम भी साइकिल चला सकते हैं। पेट्रोल के विदेशी आयात पर जितनी निर्भरता घटेगी रूपया उतना ही मजबूत होता जायेगा।

आपका क्या खयाल है ? तो चल रहे हैं कल से साइकिल पर ? मैं तो चला....

                                                                ……………………………………..
दैनिक भाष्कर 6 सितंबर में  इसकी चर्चा है।

21.8.13

बादलों के रंग

अगस्त का महीना है। आजकल मौसम आदमी की जिंदगी की तरह तेजी से रंग बदलता है। कभी तेज धूप तो कभी जोरदार बारिश। यकबयक चलती है तेज पुरवाई और झरने लगते हैं कंदब से पीले पत्ते, पके फल। सागवान भी जोर-जोर सर हिलाता है। उसके पत्ते भी झरते हैं मगर उतने नहीं जितने कदंब के। बिचारा 'सागवान'! इसे क्या पता कि काटने के लिए लगाया है मालिक ने। वैसे ही जैसे पाली जाती हैं भेड़, बकरियाँ। मालिक इंतजार कर रहा है, कब मोटी होगी इसकी साख? देखता है रोज हसरत भरी निगाहों से..थोड़ी मोटी तो हो चुकी है मगर दो चार साल और प्रतीक्षा की जाये तो कुछ और मोटी हो जायेगी। अच्छे पैसे मिलेंगे तब इसके। कोई किसी को प्रेम से नहीं पालता। पालने से पहले देखता है फ़ायदा। गाय पालता है दूध के लालच में। बहलाता है मन को...गाय हमारी माता है। यह अलग बात है कि माँ दूध सिर्फ अपने बच्चे के लिए देती है। कोई माँ दूसरे के बच्चों को लिए दूध नहीं देती। आप उसकी भूख का फायदा उठाकर छीन लो यह अलग बात है। सभी भूख का फायदा उठाते हैं। भूखा भी पेट भरने के बाद कपड़े और मकान की चिंता करता है। कपड़े मकान के बाद कुछ और..यह चक्र चलता रहता है। 

लेकिन मैं इस भूख और लालच की बात करने के मूड में कत्तई नहीं था। माफ करना थोड़ा बहक गया। मैं तो इस अगस्त के गिरगिटिया मौसम की बात कर रहा था। दिन ढल रहा था। झूमती डालियों को देख इच्छा हुई, देखी जाय बादलों की आवाजाही। छत पर चढ़ा तो देखा पश्चिम में खुली है बादलों की एक खिड़की। झांक रही है तेज धूप। नज़र मिलाने का साहस नहीं हुआ। धूप अधिक प्यासी लग रही थी। मैंने झट से खुद को छांव में कर लिया। जब कोई अधिक प्यासा हो तो यथासंभव सामने से हट जाना चाहिए या ओढ़ लेनी चाहिए छतरी। प्यासे का क्या ठिकाना..पानी के साथ चूस ले खून भी। 

खड़ा-खड़ा देखता रहा पूरब दिशा से आते काले बादलों के घेरे को। ये बादल बड़ी तेजी से बदलते हैं रूप। अभी जो भले मानुस सा हंस रहा था देखते ही देखते राक्षस बन ठहाके लगाने लगा! कभी कुछ तो कभी कुछ। कभी चालाक नेता, कभी उदास जनता, कभी आदमी, कभी जानवर तो कभी पागल प्रेमी। कभी लगता कालिदास की नायिका का दूत है। .भागा जा रहा है प्रेमी का संदेशा ले। न इसे अपने खुल रहे कपड़ों का ध्यान है न बिखरे बालों का। यह दूत है या पागल प्रेमी! ऐसे भी दोड़ते हैं किसी विरहनी के चक्कर में? लगता है उसका मूक आशिक है। संदेशा पहुँचा-पहुँचा के तृप्त होता है।

प्रेम के अनोखे रंग दिखते हैं इन बादलों में। कभी लगता है दो प्रेमी भागे जा रहे हैं किसी बड़ी गुफा में। कभी लगता है कोई बादल किसी बदली को पास बुला रहा है। बदली भी पास आने के लिए मचल रही है। दोनो पास आते जा रहे हैं। धीरे-धीरे मिल जाते हैं एक दूसरे से। अब आप नहीं पहचान सकते कि दोनो पहले कैसे थे! एक नये बादल का रूप सामने आता है। अब वह लड़ रहा है तेज धूप से। वाह! प्रेमी हों तो ऐसे हों। मिलें तो खुद की खुदी, खुद ही मिटा दें। पुनर्जन्म हो। नहीं, मैं कोई नया दर्शन नहीं समझा रहा। अर्ध नारीश्वर, शिव शक्ति का दर्शन पुराना है। मैं तो बस बादलों को देख उस दर्शन को थोड़ा महसूस कर पा रहा हूँ। पढ़ने से अधिक अच्छा है, थोड़ा सा महसूस करना। 

लद्द से एक पका कदंब गिरा छत पर। टांय-टांय-टांय तीन तोते कांय-कांय करते उड़कर आये और कलाबाजी खाते हुए छुपकर बैठ गये सागवान के पत्तों के पीछे। मेरा बादलों से ध्यान भंग हुआ। तोतों को ढूँढने लगा। ये सामने आकर क्यों नहीं बैठते मैं देख लुँगा तो नज़र लग जायेगी क्या तेरी तोती पर ?कैमरा साधे, कभी इधर कभी उधर ताकता रहा। कहीं नहीं दिखे। हारकर कैमरा बंद किया तो फिर टांय-टांय-टांय करते उड़ चले, आम की फुनगियों के पीछे। जा! भाड़ में जा। नहीं खींचता तेरी तस्वीर। तू जमाने को मुँह दिखाने लायक ही नहीं है। टांय-टांय-टांय... लो, फिर आया! मेरी बात सुन ली क्या इसने!!! वो दूर ऊँची फुनगी पर बैठा है। थोड़ा और पास आता तो खींच पाता अच्छी तस्वीर। चलो इसी से काम चलाता हूँ। टांय-टांय-टांय..जा! उड़ जा। वैसे भी आदमियों की दुनियाँ बहुत मतलबी है। तुझे किसी की नज़र न लगे..मस्त रह। 

देखते ही देखते कसता ही चला गया काले बादलों का घेरा। ढल गया सूरज। धूप अपनी प्यास बुझाने धरती के किसी दूसरे कोने में झांक रही होगी। होने लगी बारिश। चलता हूँ..फिर आऊँगा रात में। जब काले बादलों को देख एहसास होगा बिखरी जुल्फों का और हँस रहा होगा पूनम का चाँद।

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18.8.13

शरीफ़ आदमी

मुद्दतों बाद चाय की दुकान में कवि जी को एक शरीफ आदमी मिल गया। उनको देखते ही खड़ा हो गया। बोला-"आइये! बैठिये! चाय पी लीजिए।" कवि जी खुश हुए। बैठते हुए अपना संदेह व्यक्त किये-"आपको पहचाना नहीं!" वह बोला-"मैं आपको अच्छी तरह पहचानता हूँ। आप पूरे 'घाघ' हैं!" कवि जी चौंककर खड़े हो गये- "क्या मतलब ?" उस शरीफ आदमी ने हकलाते हुए कहा-"मेरा मतलब 'महाघाघ'! कवि जी अब लगभग नाराज होते हुए चीखे-"क्या कह रहे हैं आप?" शरीफ आदमी ने अपनी बात स्पष्ट की-मेरा मतलब 'बड़े कवि'..आप एक अच्छे कवि हैं।" कवि जी फिर खुश होकर बैठ गये-"हें हें हें..तब ऐसा बोलिए न, घाघ- घाघ क्या लगा रक्खा है?

उनकी बातें सुनकर मेरा दिल खिल गया। चाय आने तक मैं भी दोनो से काफी हिल मिल गया। मैं चुपचाप दोनो की बातें सुनने लगा। शरीफ आदमी ने बात आगे बढ़ाते हुए कवि जी कहा- 

एक दिन मैं सरकारी दफ्तर गया।
क्यों गये?
काम था।
हुआ?
नहीं।
फिर जाओगे?
नहीं।
क्यों?
जान गया कि काम नहीं होगा।
होगा तो?
होगा तब भी नहीं जाऊँगा।
भगवान करे कभी काम पड़ ही जाये तो?
भगवान न करे कभी काम पड़े और सरकारी दफ्तर जाना पड़े।
ठीक है, मत जाना। मैं चलता हूँ।

वह भी लपककर खड़ा हो गया..

कहाँ?
घर।

कवि जी! आप भी अजीब आदमी हैं। मेरी बात पूरी सुने बिना ही जा रहे हैं! कवि जी बोले-चाय खतम हो गई। मैं तपाक से बोला-दूसरी पी लीजिए। मैने चाय वाले को आवाज दी-ऐ भाई जरा चाय देना। मुझे दोनो की बातों में मजा आ रहा था। कवि जी ने मेरी बातें सुनकर और भी भाव दिया-चाय के बाद मैं पान भी खाता हूँ। मैने कहा-पान में से आइये-जाइये। बनारस में पान की क्या कमी है! यहाँ यही तो एक चीज बची है जो लोग अभी भी एक दूसरे को प्रेम से खिलाते हैं। मेरी बात सुनकर कवि जी फिर बैठकर चाय पीने लगे। वह आदमी मुझे जरूरत से ज्यादा शरीफ लग रहा था। उसने अपनी बात आगे बढ़ाई...

हाँ, तो मैं कह रहा था, एक दिन मैं सरकारी दफ्तर गया था। दरवाजे पर ही लम्बी-लम्बी मूँछों वाला एक यमदूत खड़ा था। मुझे देखते ही गरज कर बोला-क्या काम है? 

मैं बीच में ही बोल पड़ा-पक्का चपरासी होगा।

उसने चौंककर पूछा-आपको कैसे पता चला?

मैं बोला-"इसमे कौन सी बड़ी बात है सरकारी दफ्तर में अनजान व्यक्ति को देखते ही रूआब से बोलने वाला चपरासी के सिवा और कौन हो सकता है?"

शरीफ आदमी मेरे उत्तर से संतुष्ट हुआ-आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। चपरासी ही था। उसने अपनी बात जारी रखी....

मैने चपरासी से पूछा- पाण्डे जी कहाँ बैठते हैं? चपरासी मुझे भीतर ले गया। एक कोने में लगे फाइलों की ढेर की ओर इशारा करते हुए कहा-वही हैं। मैने गौर से देखा तो मुझे फाइलों के ढेर के बीच एक खोपड़ी दिखाई दी। पास गया तो देखा, एक सज्जन सिर झुकाये हुए कुछ लिख रहे थे। मैने पूछा-

पाण्डे जी आप ही हैं? 

मेरी आवाज को सुनकर उसका सर टेबुल लैम्प की तरह ऊपर उठा और अपने दिव्य ज्ञान से मुझे प्रकाशित करते हुए बोला-यहाँ कई प्रकार के पाण्डे जी पाये जाते हैं! आपको किससे मिलना है ? 

वही जो लोन देते हैं।

यहाँ सभी पाण्डे जी लोन देते हैं। आपको किससे मिलना है?

मुझे उनका नाम नहीं मालूम।

अपना नाम मालूम है?

जी।

जी क्या?

लोन चाहिए।

लोन भी कई प्रकार के होते हैं। आपको कौन सा लोन चाहिए?

मैने घर बनाने के लिए प्रार्थना पत्र दिया है।

अच्छा तो आपको घर बनाने के लिए 'हाउसिंग लोन' चाहिए।

जी।

हाउसिंग लोन वो वाले 'पाण्डे जी' देते हैं। उसने दूसरे कोने में दूसरे फाइलों के ढेर की ओर इशारा किया। मैं धन्यवाद देकर दूसरे कोने में दूसरे पाण्डे जी के सामने खड़ा हो गया।  

आप पाण्डे जी हैं?

दूसरे भी पहले से कम न थे। छूटते ही बोले-जहाँ से आप आ रहे हैं, वे भी पाण्डे जी हैं।

जी, जान गया हूँ। उन्होने ही मुझे आपके पास भेजा है।

क्या काम है?

हाउसिंग लोन चाहिए।

आपका घर कहाँ है?

मैने खीझकर कहा-घर नहीं है तभी तो हाउसिंग लोन ले रहा हूँ।

मेरा मतलब आप कहाँ रहते हैं?

किराये के मकान में। कचहरी के पास लेकिन इससे लोन का क्या संबंध है?

गहरा संबंध है। जमीन है?

हाँ।

कितनी?

सवा बिस्वा।

आय कितनी है?

दस हजार मासिक।

कैसे खरीदी?

भीख मांगकर! इससे आपको क्या मतलब? मैने गुस्से से जवाब दिया।

मतलब है। मुझे यह देखना होगा न कि कैसे चुकायेंगे! मैं भीख नहीं लोन देता हूँ। फिर बड़बड़ाया-नंगा पहनेगा क्या और निचोड़ेगा क्या!

जी! कुछ समझा नहीं।

कुछ नहीं। नक्शा पास है?

नहीं। 

तो जाइये पहले 'विकास' से नक्शा पास कराके आइये।

ये कहाँ बैठते हैं?

कौन?

विकास बाबू।

वह झल्लाया-अरे! विकास बाबू नहीं। विकाश प्राधिकरण से नक्शा पास कराके आइये।

कवि जी बहुत देर से उस शरीफ आदमी की बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे। जब वह चुप हुआ तो कवि जी ने पूछा-

आप विकास प्राधिकरण गये?

गया था।

क्या हुआ?

पता चला मेरी जमीन कृषि योग्य भूमि है। वहाँ खेती की जा सकती है, नक्शा पास नहीं होगा।

मैने मन ही मन सोचा- अजीब बात है! सवा बिस्वा जमीन कोई खेती करने के लिए खरीदेगा!!! फिर उत्सुकता से पूछा-तब आजकल आप खेती कर रहे हैं?

नहीं।

तो?

उसी जमीन में घर बनाकर रह रहे हैं।

अच्छा! कैसे?

जैसे सब रह रहे हैं।

तब तो खूब ऑफिस के चक्कर लगाने पड़े होंगे।

अरे नहीं, सरकारी दफ्तर शरीफों के बस का नहीं है।

फिर?

एक दलाल मिल गया। उसने लोन दिला दिया, मैने घर बना लिया।

विकास प्राधिकरण वाले नहीं आये?

'विकास बाबू' आते हैं तो 'कल्लू सिंह' संभाल लेते हैं।

ये 'कल्लू सिंह' कौन?

उसने गर्व से ज़वाब दिया-आप 'कल्लू सिंह' को नहीं जानते! बहुत बड़े नेता हैं। मेरी कॉलोनी में रहते हैं।

आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे नेता होना अभी भी शान की बात हो....!

और नहीं तो क्या ? वह कॉलोनी क्या जहाँ कोई 'कल्लू सिंह' न रहते हों! मैं तो कहता हूँ प्रत्येक कॉलोनी में एक 'कल्लू सिंह' होना चाहिए ताकि सभी प्रकार के गुँडों से जनता की रक्षा होती रहे।

कवि जी ने बीच में तार जोड़ा-

अच्छा, आपने घर तो बना लिया लेकिन आपके कॉलोनी में बिजली के खम्बे हैं?

हाँ, है न!

गड़े हैं?

हाँ भाई, गड़े भी हैं और खड़े भी हैं।

उसमें बिजली के तार भी लगे हैं?

हाँ! हाँ! बिजली के तार भी लगे हैं और उनमें बिजली भी दौड़ती है। करेंट भी आता है। बल्ब भी जलते हैं।

मुझे भी सुखद आश्चर्य हुआ। कवि जी ने पूछा-

यह चमत्कार कैसे हुआ? अब इतना बताया तो यह भी बता दीजिए।

शरीफ आदमी बोला-मेरे पड़ोस का प्लॉट 'शर्मा जी' का है। शर्मा जी बिजली विभाग में हैं। एक दिन रात के समय ट्रैक्टर पर तार-खम्बे लदवा लाये। सबने मिलकर रातों रात गड़वा दिया। पूरी कॉलोनी में 'शर्मा जी' की बड़ी प्रशंसा है। बड़े सज्जन आदमी हैं।

सड़क! सड़क बनी?

वह बोला-एक दिन वह भी बन जायेगी। विधायक जी चुनाव के समय देखकर गये हैं। वह तो तभी बन जाती मगर हमारा नाम वोटर लिस्ट में न पा बिदक गये। बोले-जब आप हमें वोट नहीं दे सकते तो हम आपके लिए सड़क क्यों बनवायें? जब आप कुछ दे नहीं सकते तो आपको मांगने का भी कोई हक नहीं है।

कवि जी बोले...चलिए, सब काम हो गया तो सड़क भी एक दिन बन ही जायेगी।

हाँ, उसने एक लम्बी सांस ली फिर दो लाइन सुनाई-

शुक्र है कि देश में.... भ्रष्टाचार है
न्याय की डगर तो बड़ी पेंचदार है।

कवि जी चौंके-अरे! यह तो आप मेरी ही लाइन सुना रहे हैं!!!

उसने कहा-हाँ, सब आपका ही दिया मंत्र है। जब कोई सरकारी दुःख आता है, मैं इसी का जाप करता हूँ। तभी तो कहता हूँ-आप पूरे 'घाघ' हैं।

कवि जी फिर गरजे-'घाघ' नहीं कवि कहिेए। 

शरीफ आदमी बोला-क्या फर्क पड़ता है? 'घाघ' कितने महान कवि थे। यदि हम आज के कवियों को 'घाघ' कहें तो उन्हें खुश होना चाहिए।

कवि जी घबड़ा कर उठ गये-अच्छा, अब चलता हूँ। आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। लगता है मैने आपके पहले भी कहीं देखा है!

वह बोला-मैं तो आपको देखते ही पहचान गया था। आप वही सरकारी लोन वाले पाण्डे जी हैं न...?

कवि जी ने झट से उत्तर दिया-नहीं... दुनियाँ में कई प्रकार के पाण्डे जी पाये जाते हैं। वे दूसरे...

कवि जी चले गये, शरीफ आदमी चला गया और मैं बैठकर सोच रहा हूँ कि हर इंसान किसी न किसी मोड़ पर एक दूसरे से दुबारा टकरा ही जाता है लेकिन याद हमेशा चोट खाने वाला रखता है।


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नोटः यह कथा पूरी तरह काल्पनिक है। इसे किसी प्रकार के पाण्डेजी, कल्लू सिंह या कवि जी से जोड़कर न देखा जाय। कहीं कोई साम्य मिलता है तो इसे महज संजोग ही समझा जाय। उद्देश्य व्यंग्य लिखना और आनंद पहुँचाना है।.. धन्यवाद।

16.8.13

चलो यार आँखें लड़ाते रहें।


चलो रात भर गुनगुनाते रहें

सुनें कुछ कभी कुछ सुनाते रहें।


कहीं ज़ख्म होने लगें जो हरे

वहीं मीत मरहम लगाते रहें।


नहीं सीप बनकर जुड़ीं उँगलियाँ

न पलकों से मोती गिराते रहें।


बहुत दर्द सहते रहे, थे जुदा

चलो प्रेम दीपक जलाते रहें।


अमावस कभी तो कभी पूर्णिमा

सितारे सदा मुस्कुराते रहें।


जले लाख दुनियाँ, कुढ़े प्यार से

जमाने को ठेंगा दिखाते रहें।


हमारी यही चाँदनी रात है

अमावस भले वे बताते रहें।


नहीं हम अकेले ही 'बेचैन' हैं

चलो यार आँखें लड़ाते रहें।

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15.8.13

आजादी का पर्व

जैसे होली के रंगों में, मस्ती से तुम गाते हो,
जैसे ईद मनाते हो औ. सबको गले लगाते हो,
जैसे क्रिसमस के पेड़ों से भेंट अनोखे पाते हो,
जैसे विजया दशमी का तुम हर्षित पर्व मनाते हो,
जैसे दीवाली में घर को दीपों से सजाते हो,
वैसे ही क्या आजादी का उत्सव भी मनाते हो ?

कौन झूमता है मस्ती से अपने घर आंगन में?
क्या उत्सव होते हैं कभी किसी देवालय में?
खाली फ़र्ज समझकर तुमने राष्ट्र ध्वज फहराया है
राष्ट्रीय पर्व को केवल सरकारी पर्व बनाया है
धन्य-धन्य हे भारत माँ के अमर शहीद जवानो
तुमने ही बस देश का सोया अभिमान जगाया है।

आओ! आजादी के दिन कुछ ऐसा माहौल बनाएं हम
सब पर्वों की खुशियाँ चुनकर अपना देश सजाएं हम
प्रातः लगे होली-सी, दिनभर खुशियाँ ईद सरीखी हों
शाम को क्रिसमस, रात रौशनी, दीवाली सी तीखी हो
बड़े चाव से, बड़ी खुशी से, आजादी का पर्व मनाएं 
इस पावन पंद्रह अगस्त को सबसे उत्तम पर्व बनाएं।

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फील गुड

का 'इनरासन' भयल फील गुड ?

का पिसान, का चावल मालिक
दुन्नो नौ दू ग्यारह!
साठ रूपैय्या प्याज बिकत हौ
आलू साढ़े बारह!

इहाँ बैड-बैड हौ मालिक, नाहीँ कउनो गुड !
का 'इनरासन' भयल फील गुड ?

रोज-रोज कs रोना सुनिके 
कनवां पाक गइल !
कल पनरह अगस्त हौ जरको 
खुशिये ना भइल !

का फोकट में मिली मजूरी? तब तs वेरी गुड !
का 'इनरासन' भयल फील गुड ?

महिनन से मेहरारू बीमार हs
लइकी के पिलिया
लइका क फीस ना जुटल
कइली सब किरिया

दू जून क रोटी भारी, मिले न धेली-गुड़!
का 'इनरासन' भयल फील गुड?

का पनरह अगस्त के तोता
आजादी पा जाई ?
का चोट्टन के टिकस ना मिली
सब जेल चल जाई ?

ढेर दिल्लगी नाहीं होला, कब्बो वेरी गुड !
का 'इनरासन' भयल फील गुड?

8.8.13

घर की आँखें


देर शाम
जब हो रही थी तेज बारिश
लौट रहे थे घर
बाइक से
चिंता थी
भीग न जाये मोबाइल,
जेब में रखे जरूरी काग़जात
या फिर
नोट

ढूँढकर पॉलिथीन
रख लिये थे
सब समेटकर
डिक्की में।

चिंता थी
घर को भी
किस हाल में होगा
मेरा रखवाला!

बज रही थी
फोन की घंटी
बढ़ रही थी चिंता घर की
उठा क्यों नहीं रहे मोबाइल?
रिंग तो जा रही है पूरी!
सुबह जब निकले थे
तो कितने बीमार से लग रहे थे
कहीं कुछ....

भीगते हुए
जब पहुँचा था घर
तो मुझसे अधिक
भीगी हुई थीं
घर की आँखें।

जब कभी
नाराज होता हूँ
घर से
लगता है
बिला वज़ह
काटने को दौड़ता है यह !
फिर ठहरता हूँ
याद आती हैं
मेरी चिंता में
बार-बार भीगती
घर की आँखें।
.................

5.8.13

तुलसी और ऑफिस टाइम



नदी है
तो आती है बाढ़
कभी कुछ नहीं होता
कभी डूब जाता है
सब कुछ।

सलामत रहे
तुलसी
खिलता रहे
ऑफिस टाइम
तो समझो
चकाचक चल रही है
गृहस्थी।

........