27.12.09

कमरे की खिड़कियाँ खुली रखना......


आज रविवार है, नववर्ष के पूर्व का अंतिम रविवार। सिगरेट के आखिरी कश सा प्यारा... अंतिम रविवार। मैं आज आप सभी को नववर्ष की बधाई देता हूँ। वर्ष दो हजार दस आप सभी के लिए मंगलमय हो। आप सभी ने मेरे पिछले रविवारीय पोस्ट "यह गहरी झील की नावें....." को सराहा, इसके लिए मैं सभी का शुक्रिया अदा करता हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप सभी का स्नेह नववर्ष में भी मुझे मिलता रहेगा । प्रस्तुत है आज की पोस्ट:-


बधाई देने....


प्रथम मास के

प्रथम दिवस की

उषा किरण बन

मैं आउंगा बधाई देने नए वर्ष की

तुम अपने कमरे की खिड़कियाँ खुली रखना।



हौले से आ जाउंगा तुम्हारी खिड़कियों से

तुम्हारी उंनिदी पलकों को सहलाकर

चूमकर अधरों को

फैल जाउंगा तुम्हारे कानों तक

तुम अपनी बाहें फैलाकर मेरा एहसास करना

मैं धूप बन लिपट जाउंगा

तुम्हारे संपूर्ण अंग से

तुम देर तक पीते रहना मुझे

चाय की चुश्कियों में............


मैं आउंगा बधाई देने नए वर्ष की

तुम अपने कमरे की खिड़कियाँ खुली रखना।

20.12.09

ये गहरी झील की नावें .......


आज रविवार है, कविता पोस्ट करने का दिन। आलोचना के प्रस्ताव में आप सभी की प्रतिक्रिया बेहद रोचक रही। यह बात सच है कि बहुत से लोग मात्र कविता का आनंद लेते हैं, कविता की समीक्षा या आलोचना करना विद्वानों का काम है। यह बात भी समझ में आ गई कि मेरी तरह बहुत से कवि भावों की अभिव्यक्ति को ही सर्वोपरी मानते हैं भाषा-व्याकरण के विद्वान नहीं हैं लेकिन यह बात भी सत्य है कि अपने को कविता जैसी लगती है वैसी ही प्रतिक्रिया होनी चाहिए। हम एक दूसरे को उनकी त्रुटियाँ का ग्यान, स्वस्थ मन से कराते रहें तो मेरी समझ से सभी का भला होगा। यह भी जरूरी नहीं कि कमियाँ बताने वाला सही ही हो. वह, उस समय उसे जैसा लगता है, वैसा लिख रहा होता है, इसमें किसी को बुरा भी नहीं मानना चाहिए। बहरहाल मेरा एक उद्देश्य आप सभी से संवाद कायम करना भी था जिसमें मैं पूर्णतया सफल हूँ तथा आपकी प्रतिक्रियाओं से अति उत्साहित भी .

आज एक गीत पोस्ट करने का मन है। मैं एक बार 'नेपाल' के खूबसूरत पहाड़ी पर्यटन स्थल 'पोखरा' गया था। वहाँ की सुंदरता ने मुझे मोहित कर दिया। सभी का वर्णन करने लगूँ तो यह पोस्ट अधिक लम्बी हो जाएगी। वहाँ हरी-भरी पहाड़ियाँ तो हैं ही कंचनजंगा की खूबसूरत हिम-श्रृंखलाओं से घिरी इस पहाड़ी घाटी में तीन खूबसूरत झीलें भी हैं। बनारस की गंगा नदी में नाव चलाने वाले बनारसी ने जब वहाँ के 'फेवा ताल' में अपनी नैया चलाई तो मन में कुछ ऐसे भाव जगे कि गीतकार न होते हुए भी इस गीत ने जन्म ले लिया। प्रस्तुत है गीत...........



ये गहरी झील की नावें....



ये गहरी झील की नावें
नदी की धार क्या जानें !

रहती हैं ये पहरों में,
डरती हैं ये लहरों से।
उछलती हैं किनारों में,
थिरकती हैं हवाओं से।

जो आशिक हैं किनारों के
भला मझधार क्या जाने !

वो गिरना तुंग शिखरों से,
अज़ब का दौड़ मैदानी।
फ़ना होना समन्दर में,
गज़ब का प्रेम हैरानी।

ये ठहरे नीर की नावें
नदी का प्यार क्या जानें !

अगर है मौत रूकना तो,
बहना ही तो जीवन है।
यदि हों शूल भी पथ में,
चलना ही तो जीवन है।

जो डरते हैं खड़े हो कर
भला संसार क्या जाने !

ये गहरी झील की नावें
नदी की धार क्या जानें !

13.12.09

"दंश"

आज रविवार है कविता पोस्ट करने का दिन। आपकी प्रशंसा से अभिभूत हूँ। लेकिन एक बात समझ में नहीं आई कि एक भी टिप्पणी आलोचनात्मक समीक्षा के रूप में सामने नहीं आई। यह संभव नहीं लगता कि मैने इतनी सारी कविताएँ पोस्ट कीं उनमें कहीं कोई त्रुटि न हो । भाषा की अग्यानता, टंकण संबधी त्रुटियाँ या वैचारिक मतभेद.... कुछ तो अवश्य होंगे। मात्र प्रशंसा के पीछे ब्लागर्स बंधुओं का यह भय भी हो सकता है कि यदि आलोचना करी तो फिर यह मेरे ब्लाग में नहीं आएगा या यह मेरी आलोचना शुरू कर देगा लेकिन मैं आप सभी को आश्वस्त करना चाहता हूँ कि अपनी कमियाँ जानकर मेरा आपके प्रति स्नेह और भी बढ़ेगा। मैं गज़ल नहीं लिख पाता लेकिन आपकी प्रशंसा के कारण एक शेर अनायास जेहन में उतर गया-
यूँ तो चढ़ाइए ना चने की झाड़ पर
सर जमीन पर हो पैर आसमान पर
कहने का मतलब यह नहीं कि कल से मेरी निंदा करना शुरू कर दीजिए लेकिन यह अवश्य चाहता हूँ कि मेरी कमियाँ उजागर हों और मैं कुछ और सीख सकूं। इतिहास साक्षी है कि स्वस्थ आलोचना से कवि का सदैव भला ही हुआ है। यदि आपको मेरी बातें अच्छी न लगीं हों तो इसके लिए क्षमा चाहता हूँ ।
आपका ज्यादा समय नष्ट किया अतः कविता की भूमिका में न जाते हुए प्रस्तुत है आज की कविता जिसका शीर्षक है--

"दंश"
गली के मोड़ पर
उजा़ले में
कुतिया ने बच्चे दिए
जाड़े में

एक-दो नहीं पूरे सात
ठंड से बचाती रही वह उन्हें
पूरी रात
सबके सब सुंदर प्यारे थे
माँ की आँखों के तारे थे
सुबह तक एक खो चुका था
शायद अल्लाह का प्यारा हो चुका था

बचे छः
सह गयी वह
कष्ट दुःसह।

कोई पास से गुजरता तो गुर्राती
दिन भर यहाँ-वहाँ छुपाती
फिर आती हाड़ कंपा देने वाली काली रात
बच्चों को चिपकाती अपने स्तन से
सारी रात
उफ !
रात भर उसका रोना
मुश्किल था हमारा सोना

सुबह तक एक और खो चुका था
शायद किसी का हो चुका था

यमराज ले जाए या आदमी
बच्चे गुम हो रहे थे
कुतिया को गिनती नहीं आती
पर इतना जानती
कि बच्चे
कम हो रहे थे

कातर निगाहों से
उन्हीं से मदद की उम्मीद करती
जो अब
हल्की गुर्राहट से भी डरने लगे हैं
हाथों में डंड़ौकी ले
घरों से निकलने लगे हैं।

दिन गुजरते जाते हैं
एक-एक कर पिल्ले गुम होते जाते हैं।

एक दिन बर्तन माजने वाली बताती है-
कुतिया का सिर्फ एक पिल्ला बचा
उसे भी उठा ले गए
पान वाले चचा....!

मेरी पत्नी पूछती है-
पिल्ले को छोड़, तू बता
तेरा छोटू आज काम पर क्यों नहीं आया ?
वह बताती है-
उसका बाप उसे मुम्बई ले गया है
वहाँ एक बहुत बड़ा साहब रहता है
अब वह वहीं रहेगा
एक हैजा से मर गया
दूसरा अपने से भाग गया
यही बचा था
इसे भी इसका बाप ले गया
कहते-कहते उसकी आँखें डबडबा गईं।

मैने सुना
बर्तन मांजते-मांजते

बीच-बीच में बड़बड़ाती जाती है-

कुतिया का सिर्फ एक बच्चा बचा
उसे भी उठा ले गए
पान वाले चचा..!

मैने महसूस किया
एक वफादारी
दूसरे निर्धनता का दंश
झेल रहे हैं।

6.12.09

लिंग भेद


हमारे एक मित्र हैं यादव जी
बड़े दुःखी थे
पूछा तो बोले-
सुबह-सुबह मन हो गया कड़वा
बहू को लड़की हुई भैंस को 'पड़वा'।

मैने कहा-
अरे, यह तो पूरा मामला ही उलट गया
लगता है 'शनीचर' आपसे लिपट गया !
फिर बात बनाई
कोई बात नहीं
लड़का-लड़की एक समान होते हैं
समझो 'ल‌क्ष्मी' आई।

सुनते ही यादव जी तड़पकर बोले-
अंधेर है अंधेर !
लड़की को लक्ष्मी कहें
तो पड़वा को क्या कहेंगे ?
कुबेर !

पंडि जी-
झूठ कब तक समझाइयेगा
हकीकत कब बताइयेगा ?

आज जब कन्या का पिता
अपनी पुत्री के लिए वर ढूंढने निकलता है
तो
वर का घर "दुकान"
वर का पिता "दुकानदार"
वर "मंहगे सामान" होते हैं
कैसे कह दूँ कि लड़का-लड़की एक समान होते हैं।

आपने जीवन भर
लड़की को लक्ष्मी
लड़के को खर्चीला बताया
मगर जब भी
अपने घर का आर्थिक-चिट्ठा बनाया
पुत्री को दायित्व व पुत्र को
संपत्ति पक्ष में ही दिखाया।

मैने कहा-
ठीक कहते हैं यादव जी
पाने की हवश और खोने के भय ने
ऐसे समाज का निर्माण कर दिया है
जहाँ-

बेटे
'पपलू' बन आते हैं जीवन में
बेटियाँ
बेड़ियाँ बन जती हैं पाँव में
भैंस को मिल जाती है जाड़े की धूप
पड़वा ठिठुरता है दिन भर छाँव में।
इक्कीसवीं सदी का भारत आज भी
बहरा है शहर में
गूँगा है गाँव में।
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पड़वा- भैंस का नर बच्चा ।
पपलू- ताश के एक खेल का सबसे कीमती पत्ता.