आज रविवार है और छोटे से 'ब्लाग अनुभव' के बाद मैंने यह निश्चय किया है कि मैं प्रत्येक रविवार को एक रचना पोस्ट करूँ ताकि पाठकों को भी मालूम हो कि रविवार को 'बेचैन आत्मा' अपनी 'नई बेचैनी' के साथ उपश्थित होगा।
चलते-फिरते सामान्य आदमियों से जब भय लगने लगता है तो मन करता है कि कोई बेचैन आत्मा मिले जिससे मन की बेचैनी कही जा सके, जिसके मन की बेचैनी सुनी जा सके और क्षमा करें चाहे वे खुद को किसी नाम से पुकारें मुझे तो सभी ब्लागर अपनी तरह 'बेचैन आत्मा' ही नज़र आते हैं।
आज मैं 'पिता' और 'माँ' के क्रम में उन अनाम पिताओं-माताओं की बात करना चाहता हूँ जिन्होंने मुझे तो नहीं जना लेकिन जिन्हें देखकर मेरे मन में गहरी पीड़ा होती है और उन कपूतों पर गहरा क्षोभ जिन्होंने उन्हें घर से निकाल कर एक वृद्धाश्रम के कमरे में मरने के लिए छोड़ दिया। यह कविता ऐसे ही एक वृद्धाश्रम से आकर बेचैन हुए मन की उपज है। प्रस्तुत है कविता जिसका शीर्षक है- 'आज वे' ।
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आज वे
आश्रम के कमरों में
मानवता की खूँटी से
लटके हुए हैं
ज्यों लटकते हैं घड़े
नदी तट पर
पीपल की शाख से
माटी के ।
एक दिन वे थे
जो देते गंगाजल
एक दिन ये हैं
जो मारते पत्थर
दर्द से जब तड़पते हैं
एक-दूजे से कहते हैं
अपने सिक्के ही खोटे हैं
रिश्ते
जाली के ।
थे जिनके
कई दीवाने
थे जिनके
कई अफ़साने
आज
दर-ब-दर भटकते हैं
सबकी आँखों में
खटकते हैं
अब न मय न मयखाने
होंठ प्यासे हैं
साकी के ।
धूप से बचे
छाँव में जले
कहीं ज़मी नहीं
पाँव के तले
नई हवा में
जोर इतना था
निवाले उड़ गए
थाली के ।
क्या कहें!
क्यों कहें!!
किससे कहें!!!
ज़ख्म गहरे हैं
माली के ।
bahut hee marmik chitran par bahut had tak ye hee hai aaj ka saty .
ReplyDeleteBadhai .
mai aapake ek vaky se samarth nahee par sabhee kee apanee apnee ray hai isliye bahas ka mudda bhee nahee banana chahatee .
BAHOOT HI MAARMIK ... BAAHRI CHAKACHOUNDH MEIN JO CHOD GAYE HAIN APNO KO ... UNKE MUNH PAR KARAARA TAMAACHA ...
ReplyDeleteDIUL KO CHOO GAYEE AAPKI RACHNA ...
आप ने आज के हालात पर सही लिखा,सुना था दो तरह के पूत होते है, सपूत् ओर कापूत...... आज कापूत ज्यादा है.
ReplyDeleteधन्यवाद
एक दिन वे थे
ReplyDeleteजो देते गंगाजल
एक दिन ये हैं
जो मारते पत्थर
दर्द से जब तड़पते हैं
एक-दूजे से कहते हैं
अपने सिक्के ही खोटे हैं
रिश्ते
जाली के ....
ज़ख्म गहरे और रिश्ते खोटे.....
देवेन्द्र जी बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति है ......!!
आजकल के हालात की सच्चाई बयाँ कर दी.
ReplyDeleteकाश की नयी पीढी इस बात को समझ पाए.
अच्छी रचना.
क्या कहें!
ReplyDeleteक्यों कहें!!
किससे कहें!!!
ज़ख्म गहरे हैं
माली के ।........kayamat ka aahwaan hai
बहुत गहरी बात
ReplyDeleteत्रासदियो को बखूबी उकेरा है
अंतर्द्वन्द और कश्मकश ----------- वाह वाह
धूप से बचे
ReplyDeleteछाँव में जले
... बहुत खूब !!!!
Aaj ke daur ka ek yatharth chitrn aapne kavita ke madhyam se kiya hai...sanvedana se bhari ek sundar kavita badalate samaj ka ek aaina prstut kiya aapne..badhayi devendra ji
ReplyDeleteधूप से बचे
ReplyDeleteछाँव में जले
कहीं ज़मी नहीं
पाँव के तले
नई हवा में
जोर इतना था
निवाले उड़ गए
थाली के ।
बहुत सुंदर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने लाजवाब रचना लिखा है! दिल को छू गई आपकी ये बेहतरीन रचना!
अपने माता-पिता के बारे में मैं ऐसा ही महसूस करता हूँ... और आंतरिक उदगार को आवाज़ देने के लिए शुक्रिया... यह बेचैन तबियत ही कर सकता है....
ReplyDeleteमै अपने आप को बेचैन आत्मा मे तो शामिल नही करता लेकिन कुछ बात ऐसी जरूर है ""बेचैन बहुत रहना,..........जिस शहर मे भी रहना उकताये हुए रहना (मुनीर साहेब की गजल की मानिन्द) इसलिये हर इतवार हो आपके दरवार में हाज़िर होना ही पडेगा ।जो बेआश्रम है और जो बेआसरा है ।पत्थर तो नही मारते मगर व्यंग्यवाण के घाव पत्थर से ज्यादा गहरे घाव दे जाते है ।कितना दर्द भर दिया आपने इस लाइन मे कि ""एक दूसरे से कहते हैं "कितनी मर्मान्तक पीडा होती होगी इस अवस्था मे ,जो आपने अपनी रचना मे मह्सूस की है ।धूप से बचे छांव मे जले ,आलंकारिक भाषा का प्रयोग बहुत ही उत्तम लगा ।क्या कहे किससे कहे ? सच है "" कहे से कछु दुख घट होई , काह कहे यह जान न कोई ""
ReplyDeleteआपके यह मार्मिक और बेचैन शब्द मेरे और मेरे जैसे न जाने कितने बेचैनो की जुबाँ बन जाते हैं अक्सर..
ReplyDeleteभावस्पर्शी और बहुत प्रासंगिक रचना..व्यथित कर देने वाली..
धूप से बचे
ReplyDeleteछाँव में जले
कहीं ज़मी नहीं
पाँव के तले
नई हवा में
जोर इतना था
निवाले उड़ गए
थाली के ।
क्या कहें!
क्यों कहें!!
किससे कहें!!!
ज़ख्म गहरे हैं
माली के
आत्मा बेचैन क्यों न हो इस अभिव्यक्ति पर बहुत सही और सटीक अभिव्यक्ति है शुभकामनायें
Aapka bhi andaaz-e-bayaan khoob hai sir..
ReplyDeleteJai Hind...
dil ko chhoo gyee apki rachna or mazboor kar gyee sochne ko...apki ik pichhli kavita balu ke ghar bnane wali bhi bahut achhi lagi.....apni apni si thi....
ReplyDeleteअच्छी कविता.. भावपूर्ण.. पिछली कविता विश्वास भी अच्छी थी.. बधाई...
ReplyDeleteजख्म गहरे हैं माली के...
ReplyDeleteआह!