6.12.09
लिंग भेद
हमारे एक मित्र हैं यादव जी
बड़े दुःखी थे
पूछा तो बोले-
सुबह-सुबह मन हो गया कड़वा
बहू को लड़की हुई भैंस को 'पड़वा'।
मैने कहा-
अरे, यह तो पूरा मामला ही उलट गया
लगता है 'शनीचर' आपसे लिपट गया !
फिर बात बनाई
कोई बात नहीं
लड़का-लड़की एक समान होते हैं
समझो 'लक्ष्मी' आई।
सुनते ही यादव जी तड़पकर बोले-
अंधेर है अंधेर !
लड़की को लक्ष्मी कहें
तो पड़वा को क्या कहेंगे ?
कुबेर !
पंडि जी-
झूठ कब तक समझाइयेगा
हकीकत कब बताइयेगा ?
आज जब कन्या का पिता
अपनी पुत्री के लिए वर ढूंढने निकलता है
तो
वर का घर "दुकान"
वर का पिता "दुकानदार"
वर "मंहगे सामान" होते हैं
कैसे कह दूँ कि लड़का-लड़की एक समान होते हैं।
आपने जीवन भर
लड़की को लक्ष्मी
लड़के को खर्चीला बताया
मगर जब भी
अपने घर का आर्थिक-चिट्ठा बनाया
पुत्री को दायित्व व पुत्र को
संपत्ति पक्ष में ही दिखाया।
मैने कहा-
ठीक कहते हैं यादव जी
पाने की हवश और खोने के भय ने
ऐसे समाज का निर्माण कर दिया है
जहाँ-
बेटे
'पपलू' बन आते हैं जीवन में
बेटियाँ
बेड़ियाँ बन जती हैं पाँव में
भैंस को मिल जाती है जाड़े की धूप
पड़वा ठिठुरता है दिन भर छाँव में।
इक्कीसवीं सदी का भारत आज भी
बहरा है शहर में
गूँगा है गाँव में।
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पड़वा- भैंस का नर बच्चा ।
पपलू- ताश के एक खेल का सबसे कीमती पत्ता.
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kya khoob dhang se vyabg racha hai.........achchhi rachna ke liye shukriya
ReplyDeleteसही बात कही आपने, जब भैंस दूध दे तो उसके गुण गाओ और पड़वे को धूप भी न मिले..जब जिससे स्वार्थसिद्धि होती है उसी के गुण गाते हैं हम..
ReplyDeleteसच ही है..
पाने की हवश और खोने के भय ने
ऐसे समाज का निर्माण कर दिया है
सुंदर कविता
बहुत खूब ........ आज की कड़वी सच्चाई को शब्दों में लिख दिया ....... इस में पीड़ा भी है, व्यंग की धार भी है ......
ReplyDeleteसिचयुयेशन का चक्कर है! भैंस का पंड़वा उपेक्षित। पांड़े का पंड़वा हो तो सोहर!
ReplyDeleteइक्कीसवीं सदी का भारत आज भी
ReplyDeleteबहरा है शहर में
गूँगा है गाँव में।
Bahut acchee rachana .Samaj ko aaina dikhatee kavita hai .
Badhai
var ka ghar "dukan"
ReplyDeletevar ka pita "dukanadar"
var "manhage saman" hote hain
kaise kah doon ki ladaka-ladakee ek saman hote hain.
.................
ikkeesavin sadi ka bharat aaj bhi
bahara hai shahar men
goonga hai ganv men.
vicharniya parshan chhoda hai aapne
हास्य व्यंग रूपी कविता के माध्यम से आपने इतनी गंभीर बात कह दी । बहुत अच्छी और आंखे खोलती रचना ।
ReplyDeleteसुबह-सुबह मन हो गया कड़वा
ReplyDeleteबहू को लड़की हुई भैंस को 'पड़वा'।
बहुत खुब आप ने मजाक मजाक मै बहुत गहरी बात कह दी
I also have the same opinion as above comments are telling about the composition. But it is due to the the wrong understanding that happiness is in money. When the peoples will understand that the real pleasure is not in money but in love among each other....
ReplyDeleteand will not demand any dowry in girl`s marriage.
...kamaal-dhamaal abhivyakti !!!!!
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! हर एक शब्द सच्चाई बयान करती है! आपने बड़े ही सुंदर रूप से प्रस्तुत किया है! बिल्कुल अलग सा लगा ये रचना! मुझे बेहद पसंद आया! बधाई!
ReplyDeleteअच्छी रचना। बधाई।
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी,
ReplyDeleteक्या खूब कविताई है.
व्यंग्य नहीं सच्चाई है.
बहुत खूब.
इक्कीसवीं सदी का भारत आज भी
ReplyDeleteबहरा है शहर में
गूँगा है गाँव में...
यही देश का सच है...
जय हिंद...
waah ...bahut hi achhi rachna..par 21st century ke india me bhi badlaw aa rha hai...betiyaan kahin bhi peechhe nhi hain beton se :)
ReplyDeleteaapne ekdam uchit tippani ki..mujhe answer mil bhi gaya hai...
ReplyDeleteaapne vyang ke maadhyam se ek achche subject to likha hai thanks...
आपकी कविता बताती है कि आज भी लडकी बोझ है और लडका हुंडी ।कब रुकेगा ये सब । कब लडकी को बोझ नही समझा जायेगा । लडकियों को शादी को प्राथमिकता देना बंद करना होगा । हो गई तो ठीक न हुई तो भी ठीक। अपने करिअर पर ज्यादा ध्यान देकर आत्म निर्भर होने में ही सफलता है ।
ReplyDeleteshukria,
ReplyDeletedard hazar hein;dahashatgardi ho ya ling-bhed.ya phir chidia ka dard.....mujhe to acchi lagi chidia,apne blog mein use jagah dekar accha kiya.
vyng dvara smaj ki kadvi sacchai ko ujakar krti ye rachna behd sundar lgi.
ReplyDeleteregards
सबसे पहले तो हमारे ब्लॉग पर तशरीफ़ लाने का बहुत -२ शुक्रिया
ReplyDeleteबड़ी ही सरलता से आपने सामाजिक समस्या को उभारा है
बहुत -२ आभार .............
बेटियाँ
ReplyDeleteबेड़ियाँ बन जती हैं पाँव में
भैंस को मिल जाती है जाड़े की धूप
पड़वा ठिठुरता है दिन भर छाँव में।
इक्कीसवीं सदी का भारत आज भी
बहरा है शहर में
गूँगा है गाँव में।
sahi kaha aapne.
बहुत नयापन, बहुत सादगी, बहुत सच्चाई,बहुत दर्द,बहुत संवेदनशील
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
बहुत नयापन, बहुत सादगी, बहुत सच्चाई, बहुत दर्द, बहुत संवेदनशील
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
wah wah ....wah
ReplyDeleteएक हकीकत को आपने बहुत ही संयत तरीके से बयां किया है। बधाई।
ReplyDelete------------------
सलीम खान का हृदय परिवर्तन हो चुका है।
नारी मुक्ति, अंध विश्वास, धर्म और विज्ञान।
कैसी है आपकी आत्मा ....?
ReplyDeleteजब भी आती हूँ ये ऊपर की तस्वीर देख रूह खुश हो जाती है .....!!
अच्छा उसे 'पड़वा' बोलते हैं पंजाबी में 'कट्टा' .....
बेटियाँ
बेड़ियाँ बन जती हैं पाँव में
भैंस को मिल जाती है जाड़े की धूप
पड़वा ठिठुरता है दिन भर छाँव में।
इक्कीसवीं सदी का भारत आज भी
बहरा है शहर में
गूँगा है गाँव में।
एक पंजाबी में कविता लिखी थी ....
दस वे बबूला
काहनूं जम्मियाँ सी धीयाँ
वालदे तन्दूराँ विच झोकन नूं
जां बनानियाँ की किसी खूटे नाल गऊ वांगूं .....!!
exceelent
ReplyDeletekadva sach ,vyangatmak roop mein
acchi prastuti