तंग गलियों में
नालियों के किनारे बसे
एक कमरे वाले घरों में
एक कमरे वाले घरों में
खटिये पर लेटे-लेटे
आदतन समेटते रहते हैं वे
बंद खिड़की के झरोखों से आती
गली के नाली की दुर्गन्ध,
कमरे की सीलन, सड़ांध.....सबकुछ.
अलसुबह
दरवाजे का सांकल
खटखटाती है हवा
खटखटाती है हवा
घरों से निकलकर झगड़ने लगतीं हैं
पीने के पानी के लिए
औरतें.
गली में
रेंगने लगते हैं
दीवारों के उखड़े प्लास्टरों में
भूत-प्रेत, देव-दानव को देखकर
गहरी नीद से चौंककर जगे
डरे-सहमें
बच्चे.
पसरने लगती है
दरवाजे पर
छण भर के लिए आकर
मरियल कुत्ते सी
जाड़े की धूप.
गली के मोड़ पर
सरकारी नल की टोंटी पकड़े
बूँद-बूँद टपकते दर्द से बेहाल
अपनी बारी की प्रतीक्षा में
देर से खड़ी धनियाँ
खुद को बाल्टी के साथ पटककर
धच्च से बैठ जाती है
चबूतरे पर
देखने लगती है
ललचाई आँखों से
ऊँचे घरों की छतों पर
मशीन से चढ़ता
पलटकर नालियों में गिरकर बहता पानी.
नाली में तैरते कागज की नाव को खोलकर
पढ़ने लगता है उसका बेटा
प्रकृती सभी को सामान रूप से बांटती है
धूप, हवा और पानी.
Aaj bhee chote gaon shahro ka ye hee dastan hai . Bahut accha katakshh hai........aur ekdum jeevant chitran........
ReplyDeleteशहरों में तो धूप और छाँव साथ साथ ही नज़र आती हैं।
ReplyDeleteअच्छा वर्णन किया है, जिंदगी के विपरीत द्रश्यों का।
कमाल की अभिव्यक्ति है .......... सच है प्राकृति हो सब की समान ही बाँटती है ...... पर बीच में बैठा इंसान प्राकृति पर भी अपना हक समझने लगता है .......... उसको भी अपने अनुसार चलाना चाहता है ...... गहरी समस्या के प्रति लिखी रचना है ....
ReplyDeleteबहुत सुंदर चित्र खिंचा है आप ने उस जिन्दगी का जिसे आज भी करोडो लोग जी रहे है उन गलियो मै, बहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी आदाब
ReplyDeleteसच कहा, क़ुदरत सबको समान रूप से हवा पानी धूप देती है
लेकिन-
वो कहा है न-
अब किसको क्या मिला ये मुक़द्दर की बात है
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
बहुत श्रेष्ठ रचना । प्रक्रति तो बराबर सबको बांटती है लेकिन मशीनो से जब पानी ऊपर चडा दिया जायेगा तो नल बूंद बूंद ट्पकेगा ही ।नल की लाइन मे पीने के पानी की प्राप्ति हेतु अपना नम्बर आने तक थक कर बैठ जाना ,बहुत अच्छा और वास्तविक द्दश्य दर्शाया है रचना में ।
ReplyDeletewaah...... jivant prastutikaran
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर आकर आपकी पहले की रचनाएँ पढ़ी ...एक भावुक कवि जो प्रकृति की सुन्दरता में जीवन के यथार्थ के बिम्बों को तलाशता है...हवा धूप पानी पत्थर से छायावादी या सौंदर्य परक काव्य आसानी से रचा जा सकता है ...आपने कठोर यथार्थ को अभिव्यक्त किया जो अपेक्षाकृत कठिन काम है.
ReplyDeleteबच्चे से पढाया .. यही तरीका तो गजब ढाता है ..
ReplyDelete'' नाली में तैरते कागज की नाव को खोलकर
पढ़ने लगता है उसका बेटा
प्रकृती सभी को सामान रूप से बांटती है
धूप, हवा और पानी. ''
...... सुन्दर कविता ... आभार ,,,
ह्रदय-विदारक चित्रण किया है आपने.नजाने ये गरीबी का जीवन जीने को कब तक बाध्य होगें लोग.जनसख्या-विर्धि र्हिनात्मक होनी चाहिए अब.....और अधिकारी लोग न जाने कब सुधरेंगे ?
ReplyDeleteये सब असंभव है और येसी जिंदगियां भी जीती रहेंगी मर-मर कर.
कोई जीवन के दामन में मर-मर कर पैबंद टाँकता
कोई बिलख-बिलख ईस्वर से बस मौत की भीख मागता .
इसमें चित्रात्मकता बहुत है। आपने बिम्बों से इसे सजाया है। बिम्ब का सुंदर तथा सधा हुआ प्रयोग। बिम्ब पारम्परिक नहीं है – सर्वथा नवीन।
ReplyDeleteएक अलहदा और बहुत जरूरी अंदाज दिखा इस बार..और इतना प्रभावी और कचोटता हुआ सा..जहाँ एक ओर दड़बेनुमा घर, सुबह की दुर्गंध युक्त सबा, बच्चों के थकी और डरावनी नींद, दयनीय सी धूप और सूखे नल के आगे खड़ी लम्बी कतार उस बस्ती के दृश्य को सजीव करता है तो कागज की नाँव के द्वारा सबसे जरूरी प्रश्न भी उठाता है..
ReplyDeleteप्रकृती सभी को सामान रूप से बांटती है
धूप, हवा और पानी.
फिर भी ऐसी विषमता क्यों?
अच्छी पोस्ट!
ReplyDelete"Baichain Aatma" ki yah abhivyakti kai sawal khade kar gayi.shubkamnayen.
ReplyDeletemarmik upmao se saja kar bahut acchha kataksh hai.
ReplyDeleteबढ़िया अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की आपको बहुत शुभकामनाएं
ReplyDeleteदेखने लगती है
ReplyDeleteललचाई आँखों से
ऊँचे घरों की छतों पर
मशीन से चढ़ता
पलटकर नालियों में गिरकर बहता पानी.
बहुत सुंदर पंक्तियों के साथ ...बहुत सुंदर रचना....
Gantantr diwas kee anek shubhkamnayen!
ReplyDeleteआजादी की आधी सदी के बाद भी, बल्कि अनंत काल से बुनियादी सुविधाओं को तरसता आम आदमी, आज गण तंत्र दिवस के दिन ये पोस्ट पढ़ते HUE आत्मा अधिक ही व्याकुल हुई है आत्मा.
ReplyDelete--
mansoorali hashmi
बहुत सुन्दर रचना ! आपको और आपके परिवार को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर.
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की शुभकामनायें
वाह!! देवेन्द्रजी प्रकृति सामान रूप से बंटती है पर गरीबों के हिसे के धुप हवा पानी भी छीन लिए जाते हैं!!!
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की शुभकामनायें
सही कहा है प्रकृति तो सब को समान बाँटती है मगर मनुश्य कम्ज़ोर से छीन लेता है बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है शुभकामनायें
ReplyDelete...प्रकृती सभी को सामान रूप से बांटती है
ReplyDeleteधूप, हवा और पानी.
देवेन्द्र जी, यह रचना आपके विशिष्ट काव्य शैली से परिव्हय कराती है. आज राष्ट्रिय त्यौहार के मौके पर ऐसा दृश्य देखना दुखद है.
... सुन्दर रचना !!!
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी, अभि कुछ दिन पहले मै भी बनारस दिल्ली हो आया था घुम्ने के लिए.. आपकी कविता मा प्राचीन और आधुनिक परम्परा कि द्वन्द्ध कि झलक मिल्ती है.. और मानबिय मूल्य कि स्थापना के लिए एक तड़प दिख्ती है.. माफ किजियेगा मै नेपाल से हु और मुझे हिन्दी लिखना आता नही.. नेपाली ले मिल्तिजुलती है और हिन्दी फिल्म साहित्य देख्ता हु.. सो जाने अन्जाने लिखरहाहु
ReplyDeleteनिःशब्द हो गया. ६३ बरस की आज़ादी और ६० वर्षीय 'लोकतंत्र' के बाद भी हालात जस के तस. हम पानी को तरसते हुए चाँद पर बसेंगे. विकास की दौड़ में आगे रहने की लालसा और महाशक्ति बनने का सपना, यथार्थ के धरातल पर चूर होते दीखता है.
ReplyDeleteकविता की तारीफ क्या करूं, आप ने तो सच बयान किया है, तल्ख सच.
बहुत खुबसूरत रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
आज के मध्यमवर्गीय समाज का एक सटीक चित्रण ..बड़ी खूबसूरती से सब कुछ दर्शाया आपने ..सुंदर रचना और भाव भी...बहुत बहुत धन्यवाद देवेन्द्र जी ..
ReplyDeleteयह समापन सुन्दर लगा -
ReplyDelete"नाली में तैरते कागज की नाव को खोलकर
पढ़ने लगता है उसका बेटा
प्रकृती सभी को सामान रूप से बांटती है
धूप, हवा और पानी."
आभार प्रस्तुति के लिये ।
Bahut sundar rachana ke liye abhar...
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