घर
बचपन में कई घर थे
सभी करते थे उसे
भरपूर प्यार
एक में रहता तो दूसरा आवाज देता...
कहाँ हो यार..?
चाचा बुलाते तो बाबा जाने न देते
मानों उसके जाते ही फ्यूज हो जायेंगे
सारे बल्ब !
किशोर होते ही
सभी करते थे उसे
भरपूर प्यार
एक में रहता तो दूसरा आवाज देता...
कहाँ हो यार..?
चाचा बुलाते तो बाबा जाने न देते
मानों उसके जाते ही फ्यूज हो जायेंगे
सारे बल्ब !
किशोर होते ही
पैरों में 'घूमर'
बाँहों में 'पंख' लगने लगे
घर के रोम-रोम उसकी जुदाई से डरने लगे !
उसे याद है
उसे याद है
जब भी वह देर से आता
घर का कोना-कोना, पूरे मकान को सर पर उठाए
हांफता - चीखता मिल जाता !
दरवाजे
गुस्से से लाल-पीले बाउजी
खिड़कियाँ
झुंझलाई बहनें
बरामदे
चिंता के सागर में डूबी
माँ की आँखें .
पिटने के बाद भी
यह एहसास उसे खुशियों से भर देता
कि यह घर
उससे बेहद प्यार करता है.
जवान होते ही
घर
उंगलियों में सिमट कर रह गए
नए मिले
पुराने खो गए
पास के दूर
दूर के पास हो गए
ताने मिलते तो बहाने बन जाते ...
कोई कहता, "बे ईमान हो गया !"
कोई कहता, "अपने ही घर में, दो दिन का मेहमान हो गया !"
इन सबसे अलग
दूर गली में
एक घर वो भी था जिसकी दीवारों में
ईंट के स्थान पर चुम्बक जड़े थे
जिसके दरवाजे पर सूरज उगता और ढल जाता
छत
इन्द्रधनुषी रंगों से रंगी होती
खिड़कियाँ
चाँदनी से नहाई होतीं
घर
जिसके एहसास से ही दिल में चाँद उतर आता
वह रातभर
नीद में चलता रहता
दिनभर
उसी के खयालों में खोया रहता
भोर गुलाबी
दिन
शर्मीले
रातें ....
जाफरानी हो जाती
जिंदगी
उस गली में
दीवानी हो जाती !
प्यार हद से बढ़ा तो दोनों
बेखबर हो गए
जुदा थे
कई घर थे
एक होते ही
बेघर हो गए !
भुगतनी पड़ी
लम्बी
प्यार की खता
इक-दूजे की आँखों में ढूंढ कर
बच्चों के फॉर्म में भरते रहे
धर्म
जाति
स्थाई पता !
आँधियों में बालू के घर ढह जाते हैं
ताश के महल उड़ जाते हैं
प्यार झूठा हो तो जिन्दगी
मुठ्ठी से रेत की तरह फिसल जाती है
प्यार सच्चा हो
तो नई इमारत फिर से खड़ी हो जाती है
दोनों ने एक दुसरे का बखूबी साथ निभाया
हर इम्तहान में खरे उतरे
अपनी मेहनत से
एक खूबसूरत मकान खड़ा कर दिया
और शुरू कर दी
मकान को घर बनाने की अंतहीन प्रक्रिया...
कोशिश ही कोशिश में
क्या से क्या हो गए
बच्चे बड़े
वे
बूढ़े हो गए !
देखते ही देखते
बच्चों ने
अपनी अलग दुनियाँ बसा ली
भारी मन से
घर ने घर को
सदा खुश रहने की दुआ दी
जिन्दगी फिर बे नूर हो गई
दिन की रोशनी
रात की चाँदनी
कोसों दूर हो गई
खुशियों के पल एलबम में सजने लगे
घर के जख्म
फिर उन्हें
बेदर्दी से
कुरेदने लगे
मौसम की मेहरबानी से
इन्द्रधनुष
कभी कभार
इक-दूजे की आँखों में दिख जाते हैं
तो वक्त की बदली
उसे
झट से ढक लेती है
कभी छत चूने लगती है
कभी कोई नींव
हौले से
धंसने लगती है
घर...!
ऐ जिन्दगी..!
तू आजकल मेरे ख़यालों में रोज आती है .
बांधना चाहता था तुझे गीतों में मगर
तू तो
कहानी की तरह
फैलती ही चली जाती है.....!
अत्यंत विचारपरक कविता !
ReplyDeleteधन्यवाद सर।
Deleteधांसू रचना....बार बार पढ़ी...शानदार अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteइस कविता नुमा कहानी में तो पूरी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बयान कर दिया आप ने
ReplyDeleteसुंदर!
जीवन की समग्र झाँकी, चित्रात्मकता ने मन मोह लिया, स्मृतियों के एक-एक कर चित्र रूप लेना किसी चलचित्र से कम नहीं लगा.
ReplyDeleteबहुत सारपूर्ण. एक एक शब्द में जान डाल दी है आपने.
ReplyDeleteकहानी को कविता में समेट दिया बहुत ही सुन्दर ढंग से । घर के संदर्भों में आप के अवलोकन शाश्वत महत्व रखते हैं ।
ReplyDeleteघर से घर और फिर घरों के अंतहीन सिलसिले पर एक संवेदनाभरी कविता !
ReplyDeleteपूरी तीन पीढियों की जिंदगी की जिंदगी लिख दी और बहुत खूबसूरत अंदाज़ से. बहुत अच्छी रचना...बार बार पढ़ने,डूब जाने और विचार करने पर मजबूर करती हुई सी रचना.
ReplyDeleteदेवेंद्र जी, एक बार फिर आपने वही किया है, जादू... शब्दों का. समझ में नहीं आ रहा इसे कविता कहूँ, कहानी कहूँ या एक यात्रा वृत्तांत... या इन तीनों विधाओं को मिलाकर रचा एक इंद्रधनुष!!! अभिभूत हूँ अभी तक!!!
ReplyDelete"घर...!
ReplyDeleteऐ जिन्दगी..!
तू आजकल मेरे ख़यालों में रोज आती है .
बांधना चाहता था तुझे गीतों में मगर
तू तो
कहानी की तरह
फैलती ही चली जाती है.....!"
सही कहा जी, ये फ़ैले तो जमाना ही ढंक ले, अनंत विस्तार है इस घर, जीवन और जिन्दगी का।
बहुत खूबसूरत लगी यह पोस्ट।
देवेन्द्र भाई । आपकी यह कविता बहुत अच्छे ढंग से शुरू होती है लेकिन फिर जिस ऊंचाई पर पहुंचती है वहां उसे खुद को और पाठक को विश्राम देना चाहिए वह वहां नहीं रुकती है। नतीजा यह कि हांफने लगती है और दम तोड़ देती है। मेरे हिसाब से इस कविता को आपको-भुगतनी पड़ी प्यार की खता- वाले पद पर समाप्त कर देना चाहिए।
ReplyDeleteउसके बाद की कविता एक अलग धरातल पर चलती है। बहरहाल यह मेरी राय है। कविता में एक जगह जाति के लिए जाती टाइप हो गया है। उसे सुधार लें। छत -चूता- नहीं -चूती- है। इसी तरह नींव के लिए -धंसती- ज्यादा उपयुक्त है-दरकती-नहीं।
अच्छी रचना है
ReplyDeleteपढ़कर अच्छा लगा.
bahut var pad kar bhee man nahee bhara..............
ReplyDeleteati sunder abhivykti .
आरम्भ से अंत तक का यह सफ़र , जिंदगी के सभी उतार चढाव लिए --बहुत सुन्दर प्रस्तुति है ।
ReplyDeleteसच है , घर का माहौल भी कितनी बार बदलता है ।
वैसे इसी बदलाव को जिंदगी कहते हैं ।
बहुत सुंदर लगी आप की यह कविता रुपी जीवन यात्रा धन्यवाद
ReplyDeleteछोटीसी कविता में आपने एक लंबी कहानी भर दी है....अति सुंदर!
ReplyDeleteशानदार रचना ,ऐसे लगा जैसे कोई फिल्म चल रही हो ।
ReplyDeleteजीवन का फलसफा है ये रचना ... एक घर जो सबको देखता है बचपन ... जवान .... और फिर बूड़ा होते हुवे .... सच लिखा है बहुत ही .....
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी ,
ReplyDeleteइतनी लम्बी कविता और इतनी सुंदर परिकल्पना ..........ऐसे में शब्दों से खेलना इतना आसान नहीं होता ....आपने इसे बखूबी निभाया है ......
जीवन का पूरा परिदृश्य है इसमें ......आपने एक एक चित्र को साकार कर दिया है .....
भुगतनी पड़ी
लम्बी
प्यार की खता
इक-दूजे की आँखों में ढूंढ कर
बच्चों के फॉर्म में भरते रहे
धर्म
जाती
स्थाई पता !
क्या आपका प्रेम विवाह था ......?
बहुत ही सफल कविता ......!!
(और ये उत्साही जी ने टंकण की गलतियां बतलाई हैं उन्हें ठीक कर लें .....)
जिन्दगी यूँ ही चलती रही.....
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर शब्दों में आप ने जिन्दगी के चक्कर को बताया है....
कुछ कम शब्दों में अगर यही बात कहनी हो तो हम हाइकु लिखते हैं....अगर आप की भी दिलचस्पी हो तो ...
पता है...
http://hindihaiku.wordpress.com
हरदीप
बहुत सही तस्वीर दिखाई है घर की
ReplyDeleteराजेश जी,
ReplyDeleteगलतियाँ बताने के लिये आभार. शुद्ध कर दिया है. मेरा गूगल टूल्स गायब हो गया है ..जिसके कारण भी दिक्कत हो रही है.
जहां तक लम्बी कविता की बात है तो मैं जानता हूँ कि इसकी आलोचना होगी. स्थाई पता पर अंत कर देता तो कविता पूर्ण हो जाती मगर कहानी अधूरी रह जाती ..औ. मैं कहानी पूर्ण करना चाहता था.
इसे नव प्रयोग की तरह लें....नई कविता नए मूड से लिखी गयी है.
इतने ध्यान से पढने और सुझाव देने के लिए धन्यवाद निश्चित रूप से मुझे आपसे कुछ सीखने को मिल रहा है.
गज़ब की धाराप्रवाह रचना ...................
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी एक ही कविता में जीवन के इतने सारे रंग भर दिए हैं सच हमने भी अपना पूरा जीवन फिर से देखा कहीं कुछ खट्टा कुछ मीठा अति सुंदर
ReplyDeleteबहुत ग़ज़ब.... की भावाभिव्यक्ति के साथ.... शानदार रचना....
ReplyDeleteएक कविता भर नही बल्कि एक कहानी लगती है..पूरी जिंदगी भर लम्बी..तीन पीढियों को छू कर गुजरने वाले मौसमों की कहानी..जिनमे बस एक चीज कामन है..घर!!..तमाम पीढियों के सपनों का गवाह..जो कभी तमाम मुस्कराहटों से जगमगाता है तो कभी तमाम आँसुओं को चुपचाप सोख लेता है..वहीं कितने ख्वाबों ने हकीकत की धूप देखी तो कितने अरमाँ आँगन के कुएँ मे डूब कर मर गये..और सारे रिश्तों के बीच एक सार्वनिष्ठ चीज है..प्रेम..यह पूरी कविता उसी प्रेम के भवितव्य को इन पंक्तियों मे समो देती है..
ReplyDeleteप्यार झूठा हो तो जिन्दगी
मुठ्ठी से रेत की तरह फिसल जाती है
प्यार सच्चा हो
तो नई इमारत फिर से खड़ी हो जाती है
सच मे..जहाँ दिखावे के प्रेम की ऊँची अट्टालिकाओं की बुनियादें दरकती रहती हैं..वहीं सच्चे प्रेम के कोँपल नियति के ध्वंसावशेषों के बीच भी उग आने को बेताब रहते हैं....
भावपूर्ण कविता..
@ शर्मीले
ReplyDeleteरातें ....
--- शर्मीली रातें होंगी ! लिंग-विधान सही करें , आर्य !
साबित हुआ कि प्रेम ही वह महनीय तत्व है जो इमारतें खड़ी कराता है ! घर का सृजन और जीवन के सृजन में भावसाम्य देखा जा सकता है ! इस कविता में कहानी के शिल्प और कविता की लय के बीच बड़ी जद्दोजहद है ! एक टूटन है ! सधाव होता तो नाटकीयता कहकर काम चलाया जा सकता था ! माजना शेष है !
आभार !
दावे से कह सकता हूँ कि हर कोई इस कविता में अपनी कहानी ढूंढ रहा होगा.. यही इस कविता की कामयाबी है.. वैसे मैं तो आधी कविता तक कहानी जोड़ पाया लेकिन शब्दशः सत्य लगी.. अपनी लगी.. आभार सर..
ReplyDelete@अमरेन्द्र भाई,
ReplyDeleteकृपया पुनः पढ़ें...
दिन शर्मीले
रातें जाफरानी हो जातीं...
aaap ki ghr shirshk racana ki jitani bhi tariph ki jay kam hai
ReplyDeleteदिन
ReplyDeleteशर्मीले
रातें ....
जाफरानी हो जाती
जिंदगी
उस गली में
दीवानी हो जाती !
bahut khubsurat..
Aur ye to sach hi hai..
बांधना चाहता था तुझे गीतों में मगर
तू तो
कहानी की तरह
फैलती ही चली जाती है.....!
sach ke rang, dikhai diye..ghar ko bakhoob jaante hain aap.
जी .. तब तो सही है ... '' भोर गुलाबी '' एक साथ लिखा है जिससे चूक हुई . वैसे विशेष्य - विशेषण तो पंक्तियों में ऊपर नीचे आये हैं . इसलिए लिखने का प्रक्रम ऐसा होता तो और सुहाता ---
ReplyDelete'' भोर
गुलाबी
दिन
शर्मीले
रातें
जाफरानी .... ''
--- क्या गलत कह रहा हूँ ?
बहुत बढिया. वाह कमाल कर दिया आपने...
ReplyDeleteजाने नवरात्रे के बारे मे
ruma-power.blogspot.com पर
जवान होते ही
ReplyDeleteघर
उंगलियों में सिमट कर रह गए
नए मिले
पुराने खो गए
पास के दूर
दूर के पास हो गए
ताने मिलते तो बहाने बन जाते ...
कोई कहता, "बे ईमान हो गया !"
कोई कहता, "अपने ही घर में, दो दिन का मेहमान हो गया !"
bahut badhiyaa... aaj ka sach
यह कहानी ही है...
ReplyDeleteवाह संवेदनशील चिंतन ..बहुत सुन्दर.
ReplyDelete.
ReplyDeleteVery emotional creation !
You beautifully portrayed the pain that is due in our lives sooner or later.
.
बांधना चाहता था तुझे गीतों में मगर
ReplyDeleteतू तो
कहानी की तरह
फैलती ही चली जाती है.....!
एक कविता मे पूरे जीवन की गाथा को बान्ध दिया मगर ज़िन्दगी कहाँ बन्ध पाती है---धवा के झोंके की तरह फिसल जाती है। बहुत अच्छी लगी कविता। धन्यवाद। शुभकामनायें
pahli baar aaya. Achchhi rachna padhne ko mili. andaz-e-bayaan kafi achchha laga.
ReplyDeleteभोर गुलाबी
ReplyDeleteदिन
शर्मीले
रातें ....
जाफरानी हो जाती
जिंदगी
उस गली में
दीवानी हो जाती...
एक दम सही तो लिखा है.....
कविता पर कमेन्ट देने से आसान लगा....कि बहस में टांग अड़ा दें...!
राजेश जी कि तरह हमें भी लगा था कि ..
द्गार्म
जाति
और स्थायी पता....
पर कविता ख़त्म हो जानी चाहिए थी.....
लेकिन अंत में....
बांधना चाहता था तुझे गीतों में मगर
तू तो
कहानी की तरह
फैलती ही चली जाती है.....!
ये पंक्तियाँ पढ़ कर अच्छा लगा...
द्गार्म....( DHARM )
ReplyDeletejaane kyaa likhaa gayaa...!!
जवान होते ही
ReplyDeleteघर
उंगलियों में सिमट कर रह गए
नए मिले
पुराने खो गए
पास के दूर
दूर के पास हो गए
ताने मिलते तो बहाने बन जाते ...
कोई कहता, "बे ईमान हो गया !"
कोई कहता, "अपने ही घर में, दो दिन का मेहमान हो गया !"
vaah bahut hi sundar abhivyakti.
इस जबरदस्त अभियक्ति से अभिभूत हूँ. प्रशंसा के लिए शब्द चयन नहीं कर पा रहा हूँ.हार्दिक शुभकामना.
ReplyDeletebahut badhiyaa.
ReplyDeletethanks.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
जबरदस्त अभियक्ति से अभिभूत
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
धन्यवाद।
शुभकामना
बांधना चाहता था तुझे गीतों में मगर
ReplyDeleteतू तो
कहानी की तरह
फैलती ही चली जाती है...बहुत ही गहरे भाव प्रस्तुत किये हैं आपने इस सुन्दर सी अभिव्यक्ति में, बधाई ।
शब्दों से खींची गयी इस घर की दीवारें और छतें जीवन का नग्न सत्य बयान कर रही हैं।
ReplyDelete................
नाग बाबा का कारनामा।
व्यायाम और सेक्स का आपसी सम्बंध?
देवेन्द्र जी..आपकी पिछली रचना भी बहुत संवेदना से पूर्ण थी वैसे ही यह भी रचना बचपन से लेकर उम्र के हर पड़ाव की चर्चा लिए हुए आपकी यह कविता सच में एक कहानी कह रही है और वो कहानी किसी एक की नही बल्कि लाखों-करोड़ों लोगो की कहानी है..शुरू से अंत तक बाँधी हुई एक बेहतरीन रचना..चाचा जी जादू है आपके लेखनी में ..बधाई स्वीकारें..
ReplyDeletedoor gali me yek ghar wo bhi thaa.....wah maja aa gayaa.hamara to door nahin bahut paas thaa ,magar door ho gayaa aur aapakaa door hote huye bhi paas aa gayaa.
ReplyDeleteA very nice poem.Keep on composing.
फैलती हुई एक कहानी को खूबसूरत कविता में समेटा है , और ऐसा समेटा है की बार बार पढ़ा मैंने !!
ReplyDeleteयाद रहेंगी ये पंक्तियाँ मुझे काफी लम्बे समय तक !!
एक एक करके आपकी कवितायेँ पढूंगी......सभी एक साथ पढने वाली नहीं हैं ये !!
मैं जून २०११ से ब्लॉगर हूँ...अच्छा किया जो एफ बी पर शेयर किया...वाकई खूबसूरत कहानी...जिन्दगी का हर रंग समेटे हुए!
ReplyDeleteवो दिन तो कुछ और ही थे..... वैसे ये दौर इसलिए भी आ गया है क्यूंकी दिन भर के जो एक दो घंटे फ्री होते हैं वो तो फेसबुक पर निकल जाता है....
ReplyDeleteखैर सभी धांसू ब्लॉगर ने कमेन्ट किया है लेकिन मैंने नहीं किया तो कमी पूरी किए दे रहा हूँ....
वैसे कविता बड़ी शानदार लिखी है हो.... मन प्रसन्न हो गया भोरे-भोरे....
"घर...!
ReplyDeleteऐ ज़िन्दगी...
तू मेर ख्यालों में रोज़ आती है"
***
Beautifully weaved emotions!!!