11.4.13

ज़िंदगी


सबेरा
बच्चे सा
हँसने लगा
कभी पंछी
कभी तितली
कभी फूल

धूप खिली
जानवर हो गया!
बदलने लगा
गिरगिट की तरह रंग
कभी कुत्ता
कभी गदहा
कभी घोड़ा...

रखने लगा
पंजे में
बिच्छू डंक
झेलने लगा
सर्प दंश

शाम
भेड़-बकरी हो गई
लौटने लगी
थकी-माँदी
घर

रात
हो गई 'वणिक'
जोड़ने-घटाने लगी
नफ़ा-नुकसान

इस तरह
चार दिन की ज़िंदगी
एक दिन में
पूरी हो गई।
..................... 

20 comments:

  1. सुबह होती है शाम होती है,
    ज़िंदगी यूं तमाम होती है!
    और आपने तो ज़िंदगी का खाता ही खोलकर रख दिया!! अब तो कहना पडेगा कि आपकी कविताओं पर भी आपके छायांकन का प्रभाव दिखने लगा है!!

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  2. सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    नवरात्रों और नवसम्वतसर-२०७० की हार्दिक शुभकामनाएँ...!

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  3. ...कितनी विषम है जिंदगी !

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  4. वाह बहुत प्रभावशाली सुंदर प्रस्तुति !!! देवेन्द्र जी,,

    नववर्ष और नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाए,,,,
    recent post : भूल जाते है लोग,

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  5. नाफा नुकसान का भी कहाँ अंदाज़ा लग पता है ...यूं ही पूरी हो जाती है ज़िंदगी ॥

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  6. वाह....
    बहुत सुन्दर...बेहद अर्थपूर्ण....

    अनु

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  7. आह रंग बदलती जिंदगी...
    यूं ही बेरंग खत्म होती जिंदगी.

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  8. ग़ज़ब की कविता, आप सिद्धहस्त हैं, दृष्टिसिद्ध हैं, बस और बस, लिखते रहिये।

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  9. ओह...कितनी जल्दी कितने रंग ...
    बहुत ही बढ़िया.

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  10. क्या बात है दर्शन कहाँ से कहाँ तक होता है आपकी कविताओं में ।

    कोई नाराज़गी है क्या देव बाबू ?.....अरसे से ब्लॉग पर भी दर्शन नहीं हुए हैं आपके।

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  11. वाह! बहुत खूब | अत्यंत सुन्दर रचना | नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें |

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  12. जबरदस्त कविता ! ये उपमान याद रहेगें !

    वैसे तो हम पढ़ कर बिना कुछ बोले चले जाते हैं , लेकिन आज बिना बोले न जा सके , ! बहुत अच्छा !

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  13. सारे प्रहर नये रूपकों में बाँध दिये आपने -दिन के भी जीवन के भी,आभार !

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  14. इस कविता के लिये एक ही शब्द है - अदभुत.

    नवसंवत्सर की शुभकामनाएँ.

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  15. जमाना ही हाईस्पीड का है.

    सार्थक कविता

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  16. चार दिन एक ही दिन में तमाम ...
    एट युग है ... गति का महत्त्व समझता है ...
    ज़मीनी रचना है ...

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  17. बहुत सुन्दर ,कमाल की पैनी नजर रखते हैं आप और सूरज की तपिश को झेलते हुये उसे जीवन से जोड़ दिया.

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  18. वाह देवेन्द्र जी, रचना का पहला पैरा तो अतुलनीय है.

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