तेरा असली नाम क्या है,
स्वर्ण रेखा नदी?
तू उस देश में बहती है
जिस देश को कभी ‘सोने की चिड़िया’ कहते थे,
उस राज्य में बहती है जिसे ‘झारखंड’ कहते हैं,
उस जिले में बहती है जिसे ‘घाटशिला’ कहते हैं।
क्या महज इसलिए ‘स्वर्ण रेखा’ कहलाई कि
पहाड़ियों के पीछे अस्त होने से पहले
सूर्य की सुनहरी किरणें
कुछ पल के लिए
खींच देती है तेरे आर-पार
एक स्वर्णिम रेखा!
या इसलिए कि
तू अपने साथ बहाकर लाई थी कभी
ताँबे और सोने के भंडार?
जाऊँगा बनारस
‘माँ गंगा’ से तेरा हाल!
तेरी इतनी बुरी हालत सुनकर
दुखी होगी और
डर जायेगी बेचारी।
बहेलिए
जैसे कतरते रहते हैं
हाथ आई सुनहरी चिड़िया के पंख,
लोभी
जैसे दुहना चाहते है
आखिरी बूँद भी
वैसे ही कतरी,
चूस ली गई दिखती है तू तो!
तू अब
इतनी छिछली हो गई है
तुझमें समाई शिलाएँ,
इतनी कमजोर हो चुकी है
कि सिर्फ एक बाँस के सहारे
कोंचते हुए
बिन चप्पू वाली नाव लेकर
आर-पार करता है
बूढ़ा माझी
और इतनी कम हो चुकी है तेरी गहराई कि
बीच धार में
पैदल ही चलकर
अपने जाल बिछाता है
मछेरा !
सोचता हूँ
बावजूद इसके
तो कल कितनी सुंदर रही होगी तू!
तेरे तट पर
दूर-दूर तक बिखरी है
कोयले सी राख
ये काली है मगर कोयला नहीं है!
ये अवशेष हैं स्वर्णिम शिलाओं के
जिन्हें बड़ी सी फैक्टरी में
तोड़कर, तपाकर, निकालकर ताँबा-सोना...
फेंक दिया गया है
तेरे तट पर!
शायद
सुंदरता के चेहरे पर!
नहीं
तू सिर्फ एक नदी नहीं है
कल शाम
जब डूब रहा था सूरज
खिंच गई थी
तेरे आर-पार स्वर्णिम रेखा
तो तू मुझे
‘सोने की चिड़िया’ सी दिखी!
तेरा असली नाम क्या है,
स्वर्ण रेखा नदी?
...........................
स्वर्ण रेखा नदी की शिला पर बैठते, फोटाग्राफी करते, ये भाव जगे।
दिनः 11-05-2013।
समयः जब सूरज पहाड़ियों के पीछे ढल रहा था।
..नदी को हार्दिक श्रद्धांजलि !
ReplyDeleteउद्वेलित करते हैं ये भाव मन को ... कितनी तेज़ी से भक्षण कर रहे हैं हम ... सच कहूं तो अपने आप का ही ...
ReplyDeleteलाजवाब लिखे हैं सर!
ReplyDeleteसादर
Good observation
ReplyDeletetoo good!!!!
ReplyDeleteanu
हम खुद ही अपने को खा गये...बहुत मार्मिक.
ReplyDeleteरामराम.
वाह बहुत सुंदर
ReplyDeleteएक नदी की नाज़ुक हालत को एक कवि ही बेहतर समझ सकता है।
ReplyDeleteअपने नाम को खोती जा रही है नदी..
ReplyDeleteभावनाओं का लाजवाब चिञण, आखिर हम कब चेतेंगे ?
ReplyDeleteब्लॉग हैडर भी स्वर्ण रेखा का भ्रम दे रहा है।
ReplyDeleteनदियाँ इतिहास बनने को ही हैं, इंसान सब लील गया।
मार्मिक अभिवयक्ति .सराहनीय प्रयास .आभार . हम हिंदी चिट्ठाकार हैं.
ReplyDeleteमन को छू गईं ये पंक्तियाँ-
ReplyDeleteहमारे देश की ये जीवन-रेखायें कैसी होती जा रही हैं -अपनी संतानों के लिये क्या छोड़ कर जायेगी यह पीढ़ी!
इस देश में सभी नदियों , झीलों का यही हाल है . कब जागे जनता और देगी सरकार साथ तो हो इनका कुछ उद्धार ! इनके किनारे खड़े हो जाओ तो जी बहुत दुखता है !
ReplyDeleteपीड़ा की भावपूर्ण अभिव्यक्ति !
प्रकृति की सौन्दौर्य को इंसान ही नष्ट कर रहा है -बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteअनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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स्वर्ण रेखा नदी के किनारे घाटशिला में चार साल रहने का अवसर मिला .... नदी के हालात को एक संवेदनशील मन ने उकेरा । पढ़ते पढ़ते सारे दृश्य जैसे सजीव हो आँखों के सामने आ गए ...
ReplyDeleteमार्मिक प्रस्तुति!!
ReplyDeleteआपकी ही भाषा के 'दोपाये' सब कुछ खा जाएँगे :-(
ReplyDeleteआपने लिखा....हमने पढ़ा
ReplyDeleteऔर लोग भी पढ़ें;
इसलिए कल 16/05/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
धन्यवाद!
मन को छूती बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeletemere ek mitr ravi ji rah chuke hain kuch saal yahan..batate the mujhe wo ghatshila ke baare mein...
ReplyDeletetasveeren to aapke fb par dikhi thi...aur ye kavita jo bahut kuch kahti hai aaj padh li....!