होली में बाबा देवर लागें। जैसे ही यह वाक्य कान में पड़ा मैं पूरी तरह ज़वान हो गया। जब बाबा देवर हो सकते हैं तो हम क्यों नहीं? हम तो अभी वैसे भी ज़वान हैं। अब समस्या यह थी कि ज़वान तो हो गये मगर ज़वानी दिखाई कहाँ जाय पुरानी बीबी को ज़वानी दिखाने से क्या लाभ ? नई मिले तो कैसे मिले ? पड़ोस में ताका-झांकी ठीक नहीं। समय भी कम था। बहुत समय तो यही समझने में चला गया कि मैं ज़वान हूँ। वैसे भी पाँच दिन की होली एक दिन में सिमट चुकी है। होली के जाते ही जवानी कहीँ चली न जाय। बुढ्ढे हो चले दोस्तों को बताया तो वे मारे खुशी के चहकने लगे। कहने लगे.. हाँ यार! कुछ हमको भी ऐसा ही महसूस हो रहा है। हम भी नई ताकत महसूस कर रहे हैं। सब भोलेनाथ की कृपा है। चलो पहले उनका आशीर्वाद ले लिया जाय। उनको थैंक्यू बोल दिया जाय।
हम बाबा के दरबार में पहुँचे तो वहाँ भीड़ अधिक नहीं थी लेकिन आरती की तैयारी चल रही थी। शिवलिंग की सफाई हो रही थी। दर्शन हुआ मगर लिंग पकड़ने का क्या, छूने का भी अवसर नहीं मिला। पुजारियों का एकाधिकार था। दोस्त गिड़गिड़ाते रहे मगर उन्होने एक न मानी। उनसे उलझने की हिम्मत नहीं थी। गोरे-गोरे मुष्टंडे। हों भी क्यों न! हम एक बार पर भर के लिए छू कर नई उर्जा का एहसास करते हैं, वे तो हरदम उसी में डूबे रहते हैं।
वहाँ से निकलकर दालमंडी गये। धर्म से काम की गली। जैसे विश्वनाथ गली धर्म की गली है वैसे दालमंडी कभी वेश्याओं, मुजरेवालियों के लिए जाना जाता था। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष सभी की गलियाँ चौक से होकर निकलती हैं। यह आप पर निर्भर है कि आप किस गली मुड़ना चाहते हैं। हम बाबा की कृपा से जवान हुए थे। सो उनका आशीर्वाद लेकर धर्म गली से काम गली की ओर मुड़ गये। वैसे अब यहाँ न मुजरा होता है न मुजरेवालियाँ मिलती हैं। काम गली, अर्थ गली में परिवर्तित हो चुकी है। बड़ा बाजार लगता है। सभी प्रकार के सामान उचित दाम पर मिल जाते हैं। बनारस में टोपी पहनी और अपनी दूसरे को पहनाई जाती है। हमे होली के लिए नई टोपियों की तलाश थी।
गली में घुसते ही किशोरावस्था की नादानियाँ कौंध जाती हैं। यार दोस्त होली के दिन रंग खेलते-खेलते इस गली में घुस जाते थे। वे भी नये लौंडों को देखकर मस्त होती थीं। न वे नीचे उतरतीं न हममे सीढ़ियाँ चढ़ने की औकात थी। बस खिड़की से ही गालियों, इशारों का आदान-प्रदान होता था। जब पानी सर से ऊपर हो गुजरने लगता झट से कई खिड़कियाँ एक साथ खुलतीं और हम पर रंगों की बरसात हो जाती। हम और मस्ती में किलकते-उछलते । हम तब हटते जब खिलड़कियाँ पूरी तरह से बंद हो जातीं या फिर हमसे जोशिले ताकतवर लड़कों का बड़ा झुंड हमे वहाँ से भागने के लिए मजबूर कर देता।
टोपियाँ लेकर गोदोलिया चौराहे से भाँग-ठंडई छानकर, मलाई रोल चाभते जब हम दशाश्वमेध घाट गये तो वहाँ का नजारा बड़ा फीका-फीका नजर आया। हम होरियाये मूड में दशाश्वमेध घाट पहुँचे थे मगर कुछ को छोड़कर बाकी गंगा आरती के बाद वाले सन्नाटे में डूबे हुए थे। दूसरे यात्री गंगा आरती के बाद लौट रहे थे। कुछ विदेशी घाट की सीढ़ियों पर रंग पोताये बैठे, बतियाते दिखे। महिलाएँ भी दिख रही थीं। हम जब छोटे थे, रंगभरी एकादशी से होली के दिन तक महिलाएँ घर से बाहर नहीं निकलती थीं। गली-गली में माहौल इतना गाली-गलौज, होली के हुड़दंग का रहता था कि वे चाहकर भी नहीं निकल पाती थीं। घर के मुखिया भी निकलने की इजाजत नहीं देते थे। अब दृष्य काफी बदल चुका है। महिलाएँ जमकर खरीददारी करती हैं, कहीं-कहीं बाहर निकलकर रंग भी खेलती हैं।
माहौल देखकर मुझे लगा कि होली को राजनीति की नज़र लग चुकी है। टेढ़ीनीम पर भाजपाई थालियों में गुझिया, मगही पान पर मोदी के छोटे-छोटे चित्र सटाये, दुकान सजाये बैठे थे। अस्सी भी पूरी तरह राजनैतिक माहौल में डूबा हुआ था। पिछले साल की तरह होली के मूड में नहीं था। रास्ते में होलिका सजी थी। बाजार खूब सजे थे। भीड़ थी। मुझे लगा होली को सभी ने अपनी-अपनी मर्जी से बांट लिया है। कुछ बाजार ले गये हैं, कुछ राजनीतिज्ञों को चढ़ा आये हैं, कुछ आभासी दुनियाँ में सिमट गये हैं, कुछ कवि सम्मेलन के नाम पर नौटंकी कर रहे हैं और कुछ हमारे जैसे जबरी जवान बने, किसी अंग्रेज बुढ़िया के बालों जैसी टोपी लगाये गली-गली घूम रहे हैं। सात रंग अलग-अलग दिखें तो समझ में नहीं आते, मिल जायं तो इंद्रधनुष बन जाते हैं। रंगों का इंद्रधनुष मुझे तो नहीं दिखा..आपको दिखा हो तो आपको बहुत बधाई।
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बनारस की यादें ताजा हो गयीं...रोचक पोस्ट !
ReplyDeleteलिखना सफल हो गया।
Deleteअच्छा लिखा।
ReplyDeleteहमें तो लोग कहते मिले कि इस बार होली कमजोर रही। खुद देखने नहीं न्कले उसकी ताकत।
आभार आपका। आपने इतनी व्यस्तता के बावजूद समय दिया।
Deleteहम तो वैसे भी परदेस में बसे हैं. अपने त्यौहारों का पता घर से अम्मा के फ़ोन से लगता है या फ़ेसबुक पर दोस्तों के अपडेट से... हमारे लिये तो न रंग, न इन्द्रधनुष!! बस इतना ही लगा कि रविवार के साथ एक दिन सोमवार की छुट्टी मिल गयी तो परिवार के साथ कुछ पकवान का मज़ा लिया और पुराने समय को याद किया!!
ReplyDeleteहोली तो अपने घर, अपने शहर में ही होती है। आभासी दुनियाँ घर में न रहने का गम थोड़ा कम जरूर कर देती है।
Deleteमुझे तो इंद्रधनुष आपकी पोस्ट में नज़र आया ......रंगीन और रोचक ...!!!
ReplyDeleteआभार आपका।
Deleteसरस जी से सहमत , इन्द्रधनुषी रंग आपके लेखन के जरिये खिले बनारस के दृश्य चित्र में !
ReplyDeleteआभार आपका।
Deleteधन्यवाद।
ReplyDeleteजबरन युवान बनेंगे तो रंगों के इंद्रधनुष कहां से दिखायी देंगे?
ReplyDeleteयह भी हो सकता है।
Deleteगाली-गलौज न हो और महिलायें भी बाहर निकल होली खेलें,जैसा फिल्मों में दिखाई देता है तो बहुत अछ्छा होता.आजकल अर्थ और राजनीति ने सारे त्योहारों से उनके रस निचोड़ डाले हैं.
ReplyDeleteसही बात है।
Deleteबहुत ही बढ़िया लिखा आपने , देवेंद्र भाई होली की शुभकामनाएँ , स्वागत हैं मेरे ब्लॉग पर
ReplyDeleteनया प्रकाशन -: बुद्धिवर्धक कहानियाँ - ( ~ अतिथि-यज्ञ ~ ) - { Inspiring stories part - 2 }
बीता प्रकाशन -: होली गीत - { रंगों का महत्व }
धन्यवाद। ..पढ़ पाना सौभाग्य होगा, जरूर कोशिश करूंगा।
Deleteबढिया संस्मरण । सचमुच होली सालोंसाल फीकी होती जा रही है । लेकिन आपके लेखन का रंग बरकरार है । होली की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteउत्साहवर्धन के लिए आपका आभार।
Deleteधन्यवाद।
ReplyDeleteअर्थ, धर्म, काम, मोक्ष सभी की गलियाँ चौक से होकर निकलती हैं। यह आप पर निर्भर है कि आप किस गली मुड़ना चाहते हैं।
ReplyDeleteसही है, जहाँ भोलेबाबा ले चलें।
बड़ी अच्छी लाइन पकड़ी आपने।
Deleteहमारी टिप्पणी कहाँ गई !
ReplyDeleteकहीं नहीं दिखी..स्पैम में..मेल में हर जगह तलाश किया। :(
Deleteबहुत सुंदर इन्द्रधनुषी छटा.
ReplyDeleteनई पोस्ट : कुछ कहते हैं दरवाजे
धन्यवाद।
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