11.4.15

गर्मियों के दिन

रद्दी कागज़ बेचोssss
चीखता, निकल गया रद्दी वाला
याद आने लगीं
बनारस की संकरी गलियाँ
पुराना घर

दुपहरिया में
एक गाय आकर
घुसेड़ देती थी पूरी गरदन
गली में खुलते
कमरे के दरवज्जे को धकेल कर
पी जाती थी
एक बाल्टा पानी
हँसता था
सामने
चबूतरे पर बैठा
प्याऊ!
चहकती थीं
ऊपर
बिजली के तार पर बैठीं
गौरैया!

चना जोर गरम बेचता था
लूला
कुहनी के ऊपर से ही
गायब थे उसके
दोनों हाथ
जिसमे बंधे होते थे
स्टील के बड़े-बड़े चम्मच
इन्हीं चम्मचों को पीटकर
बुलाता था ग्राहक
तौलता, बेचता था
चने

शनीवार के दिन
आते थे
शनी देव वाले बाबा
आइसक्रीम वाला
काले-काले जामुन
और भी दूसरे फेरी वाले
मगर यहाँ
कॉलोनी में
सिर्फ एक
रद्दी कागज़ बेचोssss

6 comments:

  1. सच में सब कुछ बदल गया महानगरों में आकर...यादों के झरोखे से बहुत सुन्दर रचना...

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  2. वाह,क्या बात है !

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  3. सादर प्रणाम,
    आपकी इस सुन्दर रचना ने आज भी वही किया जो हमेशा आपकी रचनाएँ पढ़ने के बाद होता है। एकदम से मुस्कान आ जाती जाती है मुख पर …… गांव और उनसे जुडी पुरानी यादों का बहुत ही मनोहारी चित्रण करते हैं आप अपनी कविताओं मे.... आजकल तो गांव के उस माहौल को फिर से जीने के लिए आपका ब्लॉग और उस पर लिखी ये कविताएँ ही एकमात्र स्थान है। बहुत बहुत धन्यवाद भूली बिसरी यादें ताज़ा कराने के लिए।

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  4. सुंदर और संवेदनशील रचना। गांवों में बिताया अपना अतीत याद आ गया।

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  5. बेच दो रद्दी का कागज़ ,,और खोजो ठन्डे गन्ने के रस वाले को .......????शायद मिल जाये |

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  6. वाह....मज़ा आ गया पढ़कर. एकदम बीते दिनों में चले गए हम !
    गुलज़ार साहब की कविता दिल्ली की गर्मी याद आ गयी !

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