25.5.17

ड्रम के ऊपर बैठी बच्ची


लोहे के घर में
खिड़की के पास ड्रम के ऊपर बैठी बच्ची
कभी इस खिड़की से
कभी उस खिड़की से
झाँक रही है बाहर

गोधुली बेला है
तेजी से बदल रहे हैं दृश्य
चर रही हैं बकरियाँ
लड़के खेल रहे हैं क्रिकेट
आ/जा रही हैं झुग्गी-झोपड़ी

एक झोपड़ी के बाहर आंगन बुहार रही है
एक लड़की
बच्ची के दुधमुँहे भाई को सजा/सम्भाल रही है
लोहे के घर मे बैठी
माँ

मेरे आँखों के सामने
दृश्य आपस में
गड्डमड्ड होने लगे
ड्रम के ऊपर बैठी बच्ची
लड़की बन
आँगन बुहारने लगी
फिर माँ बन
बच्चा खिलाने लगी!

पटरियाँ बदलने लगी
हवा से बातें करती ट्रेन
दृश्य फिर साफ़ होने लगा
अभी भी बहुत खुश है
कभी इस खिड़की से
कभी उस खिड़की से
बाहर झाँकती
खिड़की के पास ड्रम के ऊपर बैठी बच्ची.
......................

8 comments:

  1. चेहरे बदल जाते हैं, भूमिकाएं कहाँ बदलती हैं..ड्रम के ऊपर बैठी बच्ची भी बुहारने ही वाली है आंगन..एक दिन..

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  2. वाह,बच्ची के जीवन की सारी भूमिकायओं से साक्षात् करा दिया आपने .

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  3. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति नहीं रहे सुपरकॉप केपीएस गिल और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।

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  4. बहुत सुन्दर रचना

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