19.11.17

लोहे का घर-30

सुबह का समय है, लोहे के घर की खिड़की है और सामने हरे-भरे खेतों में दूर दूर तक फैली जाड़े की धूप। #ट्रेन छोटे छोटे स्टेशनों पर रुकती है, अपनी वाली की प्रतीक्षा में खड़े लोग दिखते हैं फिर ट्रेन चल देती है। लगभग हम उम्र पॉच बच्चों के साथ बैठी एक देहातन देर तक याद आती है। लगता है कि कुछ जिंदगियां बड़ी देसी टाइप की होती हैं। जाड़े में मां के साथ बच्चों के झुण्ड गली-गली दिख ही जाते हैं।
लोहे के घर में रोज के यात्री किसी विषय पर बहस कर रहे हैं और बाहर सामने की पटरी से एक डाउन ट्रेन हारन बजाती गुजर रही है। इंजन के शोर के बाद अपनी गाड़ी की खटर-पटर अच्छी लग रही है। बड़े शोर के बाद छोरा शोर अच्छा लगता है। पटरी पर चल रही है अपनी गाड़ी।
खेतों में धान की कटाई जोरों पर है। दूर दूर तक फैले कटे धान क ढेर और अधकटी फसलों पर सूर्य की किरणें धमाल मचा रही हैं। इन्हें देख-देख परिंदों के साथ-साथ हम भी खुश हैं लेकिन किसान और उसका परिवार चिंतित। तैयार फसल को ठिकाने लगाने की कड़ी मेहनत से जूझ रहा किसान प्रसन्न कब होता है, हम क्या जाने! हमने कभी खेती तो करी नहीं। हमने तो बस लहलहाती फसलों की फोटोग्राफी का आंनद लिया है। जाके पैर न पड़ी बिवाई, ऊ का जने पीर पराई!
आम का एक बाग गुजरा है। एक पुल पर चढ़ रही है ट्रेन। शांति से सो रही थी नदी। कम पानी की वजह से बीच में उभर आए रेत पर बैठ मस्ती कर रहे थे गांव के लड़के। एक नाव खड़ी थी किनारे। किनारे-किनारे नदी पर तैर रही घने वृक्षों की परछाइयां नदी को और भी मैली दिखा रही हैं।

आज सुरुज नरायण आदमियों की करनी से चित्त हो गए दिखते हैं। लोहे के घर की खिड़की से दिखने वाले खेतों में न धूप है न किरणें। ऐसा लगता है कि दोनो बहने डर गई हैं। आकाश में बादल नहीं हैं फिर भी उतर नहीं पा रहीं धरती पर।

अभी शाम के साढ़े पाँच बजा चाहते हैं लेकिन धुंध इतनी है कि लगता है शाम ढल गई। लोहे के घर की खिड़की से धुंध में डूबे खेत दिख रहे हैं। झुग्गी-झोपड़ी और दूर खेतों के बीच उग आए कंकरीट के घरों में जल चुके हैं बल्ब। साथी कह रहे हैं यह कोहरा नहीं, धुंध है। कोहरा होता तो हवा में दिसम्बर वाली ठंडी होती।
जाड़े के मौसम में जब घने कोहरे के कारण ट्रेने अत्यधिक लेट हो जाती हैं, तो एक दिन पहले वाली या सुबह वाली #ट्रेन अकस्मात नेट में अवतरित हो जाती है। यही हाल आज का है। अपनी रोज की सभी ट्रेने अत्यधिक लेट हैं, भोर में आने वाली बरेली एक्सप्रेस शाम को मिल गई।
अब खेत अंधकार में डूब चुके हैं। घर के भीतर रौशनी है। बोगी में भीड़ कम है। ज्यादातर रोज के यात्री ही दिखलाई पड़ रहे हैं। कोई ऊँघ रहा है, कोई मोबाइल चला रहा है। घर के बाहर चारों तरफ उजाला फैला हो, घर भले अंधेरे में डूबा रहे, कोई बात नहीं। मन में उजाला हो, आँखें भले अंधकार में डूबी रहें, क्या फ़र्क पड़ता है! यहाँ स्थिति थोड़ी विपरीत है। घर में उजाला है और बाहर अँधेरा। मन में निराशा है और आँखें उजाले में डूबी हुई।
शोर भी सुनाई पड़ रहा है। उस तरफ बैठे साथी देश की चिंता में हैं। देश की चिंता में शोर होना स्वाभाविक है। मीडिया भी टी.वी. चैनलों में विद्वानों को बुलाकर देश की चिंता करती है। खूब शोर होता है फिर सभी हँसते हुए घर जाते हैं। उस तरफ बैठे यात्री भी अब खिलखिला कर हँस रहे हैं। लगता है देश की चिंता कर चुके।
आज मिली लेट ट्रेन अभी तक बढ़िया चल रही है। 

आज पाँच बजे के आसपास जौनपुर से बनारस जाने वाली चार चार ट्रेने हैं। जो मर्जी वो पकड़ो। खुदा जब देता है, छप्पर फाड़ के देता है। यह अलग बात है कि कोई कल वाली है, कोई आज सुबह वाली। मजे की बात यह है कि रोज के यात्री रेल मंत्री को धन्यवाद दे रहे हैं। घंटों लेट यात्री जितना रेलवे को कोस रहे होंगे उससे ज्यादा तो अपने समय पर ट्रेन पकड़ पाने के लिए धन्यवाद मिल रहा है!
यह कोलकोता जम्मूतवी सियालदह एक्सप्रेस है। रात 12 बजे के आसपास जौनपुर से जाती है। अभी शाम 5.15 में चली है। रेल पटरी पर एक के पीछे दूसरी लगी हैं। एक्सप्रेस ट्रेन हर स्टेशन पर पैसिंजर की तरह रुक रही है। आगे प्लेटफॉर्म खाली ही नहीं है तो पीछे वाली आगे कैसे बढ़ेगी?
बोगी में अंधेरा था। दूसरे यात्रियों ने बताया कि कल से अँधेरा है। रोज के यात्रियों ने रॉड घुमाया तो सब रॉड जल गये। अब उजाला हो गया। अब सभी अपनी अपनी बीमारी के हिसाब से अपने अपने धंधे में लग गए। कोई बर्थ खाली देखकर लेट गये, कोई मोबाइल में पुराना क्रिकेट मैच/वीडियो देख रहे हैं, कुछ देश की चिंता कर रहे हैं, कुछ तास खेल रहे हैं और हम लोहे के घर की कहानी।
ट्रेन रुक रही है, चल रही है। लोग खुश हो रहे हैं, दुखी हो रहे हैं। पटरी पर चल रही है सभी की गाड़ी।

शाम ढल चुकी है। लोहे के घर में वेंडर भेज और नानभेज खाने का आर्डर ले रहे हैं। दो पीस मच्छी और भात 140 रुपये में। मछली रोहू बता रहा है। मेरे साथ मालदा तक जाने वाले लड़के बैठे हैं। खूब पूछताछ के बाद भी यह कहकर नहीं लिए कि महंगा है। पता नहीं सही रेट क्या है!
यह दिल्ली से मालदा जाने वाली फरक्का है। इसमें बंगाली अधिक हैं। मोबाइल में गाने भी बंगाली बज रहे हैं। मालदा कब पहुँचेगी पूछने पर एक लड़का कहता है ..पता नहीं। मुझे लगा मेरा प्रश्न ही वाहियात था। भारतीय रेल कब कहाँ पहुँचेगी यह भी पूछने की बात है! जब मिल जाय तब चढ़ लो, जब पहुँच जाओ उतर लो। झोले में दाना-पानी, गुण-भुजा बांध लो। मोबाइल चार्ज करने की व्यवस्था टंच रहे फिर क्या चिंता? गाते-बजाते पहुँच ही जाओगे। महंगा माछी-भात कितनी बार खाओगे? दो-दिन का सफर तीन दिन में क्या हर्ज है? रेलवे कोई एक्स्ट्रा किराया थोड़ी न लेती है!
वेण्डर भी कई प्रकार के आते हैं। अंडा-चावल, सब्जी- चावल वाले खाना, खाना, खाना.....चीखते आ/जा रहे हैं। इतने खिलाने वाले हैं फिर #ट्रेन लेट होने की क्या चिंता।

आपको पता है, मुझे पता है लेकिन क्या सभी बच्चों को पता है कि आज उनका दिन है? स्कूल जाने वाले बच्चे गहरी सांस लेंगे टेबल या बेंच पर अपने बस्ते का भारी बोझ पटक कर तब शायद उन्हें बता देंगे गुरुजी कि आज बाल दिवस है। सुनकर वे खुश होंगे और चाचा नेहरूको मिस करेंगे या फिर जल्दी-जल्दी याद करेंगे चाचा की जीवनी! क्या सभी बच्चे जा पाते हैं स्कूल?
लोहेकेघर में एक बच्चा पैर छू कर भीख मांग रहा है। न उसे पता है कि आज बाल दिवस है न उसे जिसने डाँट कर भगा दिया बच्चे को!
पटरी पटरी प्लास्टिक के टुकड़े बीन कर सीमेंट के खाली झोले में भरने वाले बच्चों को भी नहीं पता कि आज बाल दिवस है।
पानी की बोतल बेचने के लिए चलती ट्रेन से कूद कर उस पटरी पर खड़ी ट्रेन पर चढ़ने वाले बच्चे को भी नहीं पता।
देव दीपावली के मेले में जब चारों ओर घाटों पर जल रहे थे दिए कुछ बच्चे बेच रहे गुब्बारे! आज क्या वे मना रहे होंगे बाल दिवस?
आज सुबह चाय की दुकान पर गिलास धो रहे बच्चे को तो पक्का नहीं पता था।
माँ के साथ महुए के पत्तों की गठरी सम्भाले रेल की पटरी पार करते बच्चों को भी नहीं पता।
और तो और मुझे ही कहाँ पता था? वो तो फेसबुक में नेहरू-एडविना के प्रेम प्रंसग पर परसाईं का लेख पढ़ा तो याद आया कि आज बाल दिवस है!

चीटियों की तरह एक के पीछे दूसरी पंक्ति बद्ध हो, खरगोश की तरह टेसन-टेसन फुदकती चल रही हैं सभी ट्रेनें। सुपर फास्ट पैसिंजर को क्रॉस नही कर सकती क्योंकि हर टेसन के मेन लाइन पर खड़ी है मालगाड़ी। किसे पता था कि समाजवाद ऐसे भी लाया जा सकता है!

जौनपुर सीटी स्टेशन पर रोज के यात्रियों का उत्साह देखते ही बनता है..बेगम पूरा आ गई! बेगम पूरा आ गई! का शोर गूंजा और जम्मूतवी से चलकर बनारस जाने वाली ट्रेन जो दिन में ११ बजे के आसपास आती है, शाम ६.४५ में सीटी स्टेशन आ गई। सुल्तानपुर से बहुत जल्दी आ गई थी शायद इसलिए चलकर जफराबाद में इत्मीनान से रुकी है। अगल-बगल दो ट्रेनें खड़ी हैं। बाईं तरफ अप वाली पटरी पर सुबह आने वाली दून और दाईं तरफ गाजीपुर जाने वाली पैसिंजर। अपनी वाली बनारस तक नॉन स्टॉप है। सभी की देखा देखी यह भी रुक गई या और कोई कारण भगवान जाने!
#ट्रेन अब हवा से बातें कर रही है। अनावश्यक खड़ी ट्रेन जितनी बुरी लगती है, हवा से बातें करती उतनी ही हसीन। अब बड़ी प्यारी लग रही है अपनी बेगमपुरा।
गाड़ी रुक जाए तो बड़ी तकलीफ होती है, पटरी पर चलती रहे तो जीवन में आंनद रहता है। गाड़ी जब तक चलती रहती है लोहे के घर के सभी सदस्य अपनी-अपनी मस्ती में रहते हैं। निश्चिंत भाव से कोई मोबाइल में वीडियो देख रहा होता है, कोई राजनैतिक बहस में शामिल हो, देश की चिंता करने लगता है, कोई बैठे-बैठे ऊंघने/सोने लगता है। और तो और बेचन आत्मा भी चिंता छोड़ गीत गाने लगता है!
गाड़ी भले पटरी पर हो, अनावश्यक रुक जाए तो बड़े से बड़े धैर्यवान के भी धैर्य का बांध टूट जाता है। बेचैन हो खिड़की/दरवाजे से सिगनल झांकने लगता है। गाड़ी फिर पटरी पर चल पड़ती है, फिर खुश हो जाता है।
भारतीय रेल अपने देशवासियों को धैर्यवान बनाती है। जीवन जीने का फलसफा सिखाती है। रेलवे दर्शन को भी दर्शन शास्त्र में शामिल कर विश्वविद्यालयों में शोधपत्र लिखवाया जाय तो जीवन जीने के कई नए विचार प्रकाशित हों।
घर के लोग अभी फ़िर दुखी हुए हैं। किसी ने चेन पुलिंग करी है। चेन खींचने वाला बन्दा पटरी के उस पार भागा जा रहा है। अंधेरे में कोई उल्लू चीख रहा है... अपना उल्लू सीधा, भाड़ में जाए जनता!

लोहे के घर की बायीं तरफ वाली खिड़की के पास बैठ बनारस से जौनपुर की यात्रा में ट्रेन जब भुतहे बंगलों से आगे निकल आउटर पार होती है तब दिखती है 39 जी टी सी..गोरखा रेजीमेंट की लंबी बाउंड्री और बाउन्ड्री के भीतर दूर दूर तक फैले बबूल के जंगल। धीमी होती है #ट्रेनकी रफ्तार और देर तक दिखते हैं बबूल के जंगल। शायद सुरक्षा की दृष्टि से लगाये गए होंगे कि न आ पाए कोई, सैनिक छावनी तक।
सोचता हूँ काश ये जंगल बबूल के न होते! नीम, बरगद या पीपल के होते तो कितना अच्छा होता! बबूल के काँटे न होते, शांति की शीतल छांव होती। क्या जरूरी है सुरक्षा के लिए बबूल की बाड़? शहर के मध्य है यह जंगल। आम आदमी वैसे भी ऊँची बाउन्ड्री के भीतर नहीं घुस सकते। हाय! शायद जरूरी होता है सैनिकों के युद्धाभ्यास के लिए कंटीला वातावरण।
सोचता हूँ...देस ही न होते, सैनिक ही न होते, बबूल ही न होता तो कितना अच्छा होता!

मात्र 31.24 घण्टे लेट है कोटा पटना। कल सुबह आनी थी, आज शाम को जौनपुर के भंडारी स्टेशन पर 10 मिनट से खड़ी है। हम इस उम्मीद से बैठे हैं कि खड़ी है तो चलेगी भी। आखिर चलने के लिए ही तो आई है! जनरल में भीड़ है लेकिन स्लीपर की बोगियाँ खाली-खाली हैं। स्लीपर वाले आधे यात्री उतर कर भाग गये लगते हैं। उनके पास सड़क से जाने का पैसा होगा। जनरल वाले कहाँ जाते। एक दूसरे से चप चपा कर बैठे हैं। जो बैठ नहीं पाए हैं वे खड़े हैं। बिना टिकट के यात्रा की सुविधा सिर्फ पैसिंजर या जनरल बोगी में ही तो मिलती है! भीड़ भाड़ वाले जनरल डिब्बों में टी टी क्यों जाएं? परेशानी के सिवा क्या मिलेगा वहाँ?
भंडारी से एक टेसन आगे जफराबाद तक सिंगल पटरी है। पटना से आने वाली कोटा पटना उधर से आ रही है। जब वह आएगी तब यह चलेगी। अपनी वाली इत्मीनान से खड़ी हो, ग्रीन सिगनल की प्रतीक्षा कर रही है। सिंगल ट्रैक में यही होता है। एक स्पेस देगा तो दूसरी को मौका मिलेगा। आजकल के बच्चे शायद इसीलिए #सिंगल रहना चाहते हैं। एक फ़िल्म आई है 'करीब करीब सिंगल' । अभी फ़िल्म नहीं देखा, पोस्टर देखा है। दो ट्रेनें अगल बगल खड़ी हैं और दोनो की खिड़कियों से हीरो हीरोइन हाथ उठाते हुए एक दुसरे को कुछ इशारे कर रहे हैं। उधर से आने वाली पटना कोटा आ गई। किसी खिड़की से हीरोइन नहीं झाँक रही। झाँकती होती तो बोल देता ..मैं भी करीब करीब सिंगल हूँ। बच्चे बड़े हो चुके। थका मांदा घर जाता हूँ, बुढ़िया भाव खाती है, भाव नहीं देती। हाय! लंबी प्रतीक्षा के बाद उधर वाली से कोई झाँकी, मेरी वाली #ट्रेन चल दी। हम फिर करीब करीब सिंगल के सिंगल रह गए।
आधे घण्टे बाद अब पटरी पर चल रही है अपनी गाड़ी। मेरे साथ अगल बगल सब सिंगल पुरुष ही हैं। कोई लेटा है कोई बैठा है। कोई दोनो टाँगे उठाकर ऐसे लेटा है जैसे इस आसन में घर में सोता मिल गया तो पत्नी बेलन से पीटती हो! कोई एक हाथ से सर टिकाए विष्णु भगवान के शेषनाग आसन की तरह दाएं करवट लेटा है और बाएं हाथ से मोबाइल में पुराने क्रिकेट मैच का वीडियो देख रहा है। मेरे बगल में बैठे मोटे सरदार जी सामने वाली बर्थ पर दोनों टाँगे फैलाये, दोनो हाथों से मोबाइल पकड़े कोई फिलिम देखने में लीन हैं।
भंडारी से छूटने के बाद ट्रेन करीब करीब अच्छी चली। लगता है बनारस आउटर पर जाकर ही दम तोड़ेगी। हाय! किसी ने चेन पुलिंग कर दिया। ट्रेने यूँ ही थोड़ी न लेट होती है।


3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (20-11-2017) को "खिजां की ये जबर्दस्ती" (चर्चा अंक 2793) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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