5.7.18

लोहे का घर-46

पूरे चालीस मिनट देर से चली पैसिंजर। जैसे सुबह सुबह मछुआरे जाल फैलाकर पकड़ने लगते हैं मछलियां वैसे ही ठीक सात बजे गमछा फैलाकर पूरे मन से #तास खेलते हुए लोहे के घर के साथी पकड़ रहे हैं दहला। इन्हें #ट्रेन लेट होने की कोई फिक्र नहीं। फिक्र कर के भी क्या कर लेंगे? दूसरा कोई विकल्प नहीं। सुबह सही समय आ कर ट्रेन पकड़ लिए आगे कब पहुंचाना है #रेल जाने।

#शिवपुर स्टेशन में पहले से खड़ी कई मालगाड़ियों के बीच सीटी बजाते हुए आकर खड़ी हो गई अपनी पैसेंजर। हाय हैलो के बाद पैसिंजर ने माल से चुटकी ली..बहुत माल काट रही हो आजकल! हर वक़्त मेरा रास्ता छेककर खड़ी हो जाती हो!!! #मालगाड़ी ठसक के साथ बोली..'तुम बे टिकट यात्रियों को ढोने वाली पैसेंजर को पूछता ही कौन है? सरकार उसी को प्यार करती है, जो उसे कमा कर देता है। हम माल कमाते हैं, तुम घाटे का #बजट बनाती हो।' दुखी पैसिंजर ने एक लंबी सांस ली और कहा.. हमारी यह हालत तुम्हारे उसी सरकार ने किया है। कोई टिकट चेक करने ही नहीं आता तो लोग क्या करें? अब तो वे भी बिना टिकट चलने लगे हैं जो पहले नियमित टिकट लेते थे। उन्हें लगता है हमी टिकट लेने की बेवकूफी क्यों करें? काफी देर तक माल गाड़ियों से बतियाने के बाद पैसिजर ने एक लंबी सीटी मारी और सबको बाय-बाय करती चल दी।

आज #धूप तेज है। पटरी के किनारे-किनारे फैले कंकरीट के जंगल धूप से नहाए हुए हैं। अब हवा से बातें करते हुए ग्रामीण इलाके में दौड़ रही है अपनी पैसिंजर। सूख कर बंजर हो चुकी है खेतों की मिट्टी। मानसून आने की देरी से परेशान हो चुके हैं सभी।

खरगोश की तरह फुदकते हुए अगले स्टेशन #बीरापट्टी में फिर इत्मीनान से रुक गई है ट्रेन। यात्री बाहर निकल कर गप्प लड़ा रहे हैं। कोई कह रहा है.. एहसे बढ़िया त पइदले पहुंच गयल होइत जौनपुर। कोई कह रहा है.. पैसिंजर न हौ, मालगाड़ी से भी बेकार। यह सब सुन खिसिया रही है मालगाड़ी.. रोकता कंट्रोलर है, लोग गाली हमको देते हैं! करे कोई, भरे कोई!!! किसी दिन क्रासिंग तोड़ कर चल दुंगी तब समझेंगे हमको गाली देने वाले।

सुबह इतना समय लेकर चलते हैं कि एकाध घंटे की देरी से नहीं घबराते रोज के यात्री। देर सबेर दस बजे तक पहुंच ही जाएंगे। लेकिन आज कुछ ज्यादा ही देर कर रही है अपनी पैसेंजर। अब तो मस्ती से तास खेलने में मशगूल साथियों के बीच भी घबराहट झलक रही है। चाल चलते हुए खूब ताकत से पत्ते पटकते हुए भुनभुना रहे हैं..चल रेे!
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आज #योगा दिवस है। अपनी साइकिलिंग और रनिंग तो भोर में ही हो गई। एक घंटे का योगा कैंट प्लेटफॉर्म पर पैसेंजर ट्रेन में हो गया। एक घंटे नहीं चली #SJV #पैसिंजर। प्लेटफार्म पर आए तो पता चला ब्लॉक लगा है।

अभी रेलवे का सूचना तंत्र इतना विकसित नहीं हो पाया है कि वह ट्रेन के स्टार्ट होने में विलम्ब की सूचना नेट पर डाल पाए या घोषणा ही कर दे। सहनशील भारत के सहनशील यात्री निर्धारित समय पर प्लेटफॉर्म में आते हैं और धैर्य के साथ ट्रेन में बैठ कर चलने की प्रतीक्षा करते हैं। शायद यह तकनीक बाइसवीं शताब्दी में विकसित हो और लोगों को अनावश्यक प्लेटफॉर्म पर बैठ कर ट्रेन की प्रतीक्षा न करनी पड़े।

कैंट से ६ किमी चलकर अगले स्टेशन शिवपुर में फिर इत्मीनान से रुकी है ट्रेन। कब तक रुकी रहेगी? इस प्रश्न का उत्तर #उत्तर_रेलवे के पास नहीं है। पैसिंजर में बैठ कर ट्रक के पीछे लिखी इबारत याद कर रहा हूं.. समय मिलने पर पास दिया जाएगा।

आज भीड़ भी नहीं है पैसिंजर ट्रेन में। या तो रोज रोज के ब्लॉक से तंग आकर लोग नहीं आए या आज घर बैठ कर योगा कर रहे हैं। हम भी ट्रेन में सभी प्रकार का योग आसन कर चुके। दांत किटकिटाओ आसन, हवा में मुठ्ठी लहराओ आसन, लंबी सांस खींच कर हवा में गुस्सा बाहर फेंको आसन आदि सब कर चुके। अब इंजन के आगे खड़े हो रेलवे की पटरी पर शीर्षासन या #थ्री_इडियट की तरह पैंट खोल कर .. सरकार! तुसी ग्रेट हो!!! कहना ही शेष बचा है।

खाली खाली बोगी में खिड़की के पास एक जोड़ा है, पास ही उनका बच्चा खेल रहा है। महिला का पति महिला की गोदी में सर रखकर इत्मीनान से लेटा हुआ है। ट्रेन चलने या न चलने की उसको कोई फिकर नहीं है। शायद सोच रहा है..

ट्रेन चले न चले हमको क्या फिकर!
तेरी गोदी में सर है, जन्नत यहीं है।

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आज शाम ५.२० तक सिटी स्टेशन जौनपुर से फरक्का पकड़ कर बहुत खुश थे। आज जल्दी पहुंच जाएंगे घर, देखेंगे फुटबाल मैच। हाय! लगभग ५ किमी चलकर रुक गई #ट्रेन। कुछ समय बाद पता चला ट्रेन का इंजन खराब है। रोज के यात्री उतर कर पटरी पटरी पैदल ही चले जा रहे अगले स्टेशन #जफराबाद। हम भी उतर कर चल दिए। जफराबाद स्टेशन पर दूसरे रूट से आने वाली थी #दून

लगभग २ किमी चलकर जब जफराबाद पहुंचे तब पता चला किसी रूट से कोई ट्रेन नहीं आ सकती। इंजन खराब होने से फरक्का ऐसे मोड़ पर रुकी है कि उसने दोनों #रेलवे ट्रैक को जाम कर दिया है। न अप में न डाउन में कोई ट्रेन तब तक नहीं जा सकती जब तक नया इंजन आ कर इसे ले न जाय।

जफराबाद स्टेशन में कुंभ मेले में बिछुड़े हुए सभी भाई बहन इकठ्ठा जमा थे। कुछ घबरा कर सड़क मार्ग पकड़ लिए मगर अधिकांश डटे हुए अपने-अपने अंदाज में समय काट रहे थे। पकौड़ी वाले की पकौड़ी, चाट वाले की चाट सब एक ही झटके में ख़तम।

छोटा सा कस्बाई स्टेशन है जफराबाद। यहां गांव वाले छोटी मोटी दुकाने चलाते हैं। इन्हें क्या पता कि आज इंजन खराब हो जाएगा और उनके चाट पकौड़े इतनी जल्दी बिक जाएंगे! अब माल हो तब न सप्लाई हो, सब दुकान बन्द कर चल दिए घर। जिसे चाट पकौड़े नहीं मिले उसने बिस्कुट और सड़क पर लगे #चापाकल के पानी से अपनी प्यास बुझाई। अंधेरे स्टेशन में पूरे दो घंटे गुजारने के बाद फरक्का में नया इंजन लगा और खराब इंजन से गठ जोड़ कर आ गई फरक्का।

जहां बैठे हैं वहां एक बातूनी महिला, एक गुपचुप रहने वाली पौढ़ महिला, एक अंग्रेजी पत्रिका फैलाकर खिड़की से बाहर अंधेरा झांकने वाली सुमुखी कन्या, एक युवक और कुछ बच्चे बैठे हैं। अपने बैंक मैनेजर साहब भी जगह बनाकर किसी तरह तशरीफ रख पाए और धीरे धीरे फैलकर बैठ गए। सुमूखी कन्या और युवक मुस्लिम हैं। बातूनी और गुपचुप रहने वाली महिला हिन्दू। सभी को भूख लगी है। फरक्का में डिम भात बिकता है। हिन्दू महिला डिम भात नहीं खाएंगी। वैसे खाती हैं लेकिन आज बृहस्पति वार है इसलिए नहीं खाएंगी। मुस्लिम सूमुखी कन्या खाती है, कोई वार का परहेज नहीं। प्रौढ़ गुपचुप महिला खिड़की के पास सर रख कर सो रही है, बच्चे अपने में मगन हैं।

अलग धर्म और क्षेत्र के लोग इकट्ठे एक ही कमरे नुमा बोगी में आस पास बैठ कर अपने अपने रीति रिवाजों की चर्चा करते हुए प्रेम से हंस बोल रहे हैं। यह सिर्फ और सिर्फ लोहे के घर में ही हो सकता है। कंकरीट के जंगल वाले अपने घर में तो बड़ी ऊंची ऊंची दीवारें हैं।
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लगता है इंद्रदेव ने पुकार सुन ली। कल शाम जब ऑफिस से निकलने को हुए तो जौनपुर में झमाझम बारिश शुरू हो गई। भीगते भागते ट्रेन पकड़े और सफ़र में ही कपड़े सुखा लिए। यह तो अच्छा हुआ कि बनारस में बारिश नहीं हो रही थी और दुबारा नहीं भीगना पड़ा।

आज सुबह बिजली कड़कने की तेज आवाज से नींद खुली तो देखा घनघोर बारिश। धीरे धीरे तैयारी करते रहे। जब तक तैयार हुए बारिश भी रुक गई। बाइक से स्टेशन आए और लोहे के घर में बैठते ही फिर बारिश शुरू।
अनवरत टिप टिप टिप टिप बारिश हो रही है। #SJV #पैसिंजर रुक रुक कर चल रही है। पहले चलकर यार्ड में रुकी फिर शिवपुर और अब वीरापट्टी। ४५ मिनट में लगभग १२ किमी चल चुकी। कुल ५६ किमी चलना है और उम्मीद है तीन घंटे में दस बजे तक पहुंचा ही देगी।

एक मालगाड़ी आकर रुकी। थोड़ी देर के लिए मेंढकों की टर टराहट नहीं सुनाई पड़ी, मालगाड़ी के रुकते ही शोर थमा और वही टर टराहट फिर शुरू।

पैसिंजर हवा से बातें कर रही है। लोहे के घर की खिड़की से आने वाली बारिश की फुहार से तंग होकर यात्रियों ने खिड़की का शीशा गिरा दिया है। खिड़की के राड पर अनवरत बारिश की बूंदें बनतीं और टप्प से गिर जाती हैं। बूंदों के बनने और गिरने का सिलसिला जारी है। रोज के यात्री चिड़ियों की तरह चहक रहे हैं। आगे बैंक वाले हैं तो उनकी बातों में बैंक के रोज के काम की समस्याओं की चर्चा है। कोई बैंकर लोन न चुकाने वाले ग्राहक को डांट रहा है..न बैंक आते हो, न फोन उठाते हो, क्या इरादा है? ऐसे ही हर विभाग के लोग अपनी अपनी गोलबंदी कर अपने अपने कामों के हिसाब से चर्चा में मशगूल हैं। भयंकर गर्मी के बाद की बारिश से सभी के चेहरे खिले हुए हैं।

एक वेंडर गरम गरम हरा मटर बेच कर गया है। मेरे सामने बैठे तीन बच्चों ने अपने पापा से जिद करके एक एक दोना मटर खरिदवा लिया है और बड़े चाव से खा कर रहे हैं। मटर खा कर दोना खिड़की के बाहर फेंक चुके अब मूंगफली के लिए ललच रहे हैं। पापा ने एक पुड़िया मूंगफली भी खरीदी है। अब पापा के साथ सभी बच्चे मूंगफली खा रहे हैं। बच्चों की अम्मा का मुंह किसी बात पर अब भी सूजा हुआ है। वे गाल फुलाए, पलकें बन्द किए, बर्थ में सर पीछे टिकाए ऊंघ रही हैं। शायद घर से निकलते वक़्त देरी के लिए उनके पति देव ने उनको सबके सामने डांट दिया था! अच्छी बात यह है कि सभी स्वच्छता के प्रति जागरूक हैं और मूंगफली के छिलके खिड़की से बाहर फेंक रहे हैं। अभी भी साफ़ है लोहे के घर का यह कमरा।

खेतों में जगह जगह पानी लग चुका है। वृक्षों की रंगत लौट आई है। धूल धूसरित रहने वाले पत्ते नहा कर हरे भरे लग रहे हैं। इधर थमी हुई है बारिश। खिड़कियों के शीशे अब ऊपर उठ चुके हैं। इधर बारिश कम हुई लगती है। खेतों में पानी कम दिख रहे हैं। सूर्य की कुछ किरणें बादलों को चीर कर घर में घुसने में सफल हो रही हैं। जारी है धूप और बादलों का संघर्ष।

त्रिलोचन महादेव स्टेशन पर रुकी हुई है अपनी पैसिंजर। बच्चों का परिवार यहीं उतर कर पटरी पटरी, पैदल पैदल चला जा रहा है। थोड़ी थोड़ी दूरी के यात्रियों के लिए सस्ता और आराम दायक होता है पैसिंजर का सफर। ग्रामीण अल्प आय वर्ग के लिए लाइफ लाइन होती हैं पैसिंजर ट्रेनें। निर्धनों से प्यार करने वाली सरकारों को बुलेट के साथ पैसिंजर ट्रेन चलाने पर भी जोर देना चाहिए। 
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बारिश गुम है। झम्म से आई थी एक दिन और जुताई के बाद साफ़ हो गए, खेतों पर जमे घास। अब जुते खेतों की मिट्टी सूख कर ढेले-ढेले बिखरी पड़ी है जिन पर रस्क करतीं सूर्य किरणें बादलों उपहास का उड़ा रही हैं। एक चौकोर टुकड़े में बड़े हो रहे धान के बीजों को झमाझम बारिश की प्रतीक्षा है। गोधूली बेला है। हवा से बातें करती पटरी पर भाग रही है अपनी #ट्रेन

लोहे के घर की स्लीपर बोगी में भीड़ है। इसी भीड़ में सामने के बर्थ पर जगह बनाकर बड़े प्रेम से आलू पूड़ी खा रहे हैं एक प्रौढ़ दंपत्ति। विशाल काया के मालिक हैं दोनों। महिला ने बांए जांघ पर, बाएं हाथ से संभाला हुआ हुआ है एक बड़ा सा पानी का बोतल और दाएं हाथ से तोड़ तोड़ उदरस्थ करती जा रही हैं पूडियां। पुरुष बाएं हाथ में पकड़े है पूडी और दाएं हाथ से मुंह में ठूंसे जा रहा है बड़े बड़े ग्रास। दोनों सामने सामने बैठ कर, जल्दी जल्दी निपटा रहे हैं खाने का काम। जल्द ही समाप्त हो गईं घर से लाई सभी पुड़ियां। अब बारी बारी स्टील के एक ग्लास से दोनों पी रहे हैं पानी।

लोहे के घर में और भी यात्री हैं। कुछ युवा, कुछ प्रौढ़, कुछ बुढढे और कुछ महिलाएं। युवाओं के कान में तार ठूंसे हैं और हाथ में मोबाइल है। एक महिला साइड अपर बर्थ पर आराम से लेटी हैं। कुछ खिड़की झांक रहे हैं, कुछ बैठे बैठे ऊंघ रहे हैं। बनारस उतरने वाले यात्रियों में हलचल है। एक स्टेशन पहले ही सामान उठा कर जमा कर रहे हैं दरवाजे पर। जिन्हें दूर जाना है वे खाली जगह पा थोड़ा और फैलकर बैठ रहे हैं।

अधिक जगह मिलने से खुश हैं, पूड़ी खा कर भारी हुए प्रौढ़ दंपत्ति। उन्हें क्या पता कि और भीड़ चढ़ेगी बनारस स्टेशन पर, थोड़ा और सिकुड़ कर बैठना पड़ेगा आगे।
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दुर्जन पर उपदेश का प्रभाव नहीं पड़ता। बबूल के जंगल पर बदलते मौसम का कोई प्रभाव नहीं है। ये पहले की तरह कटीले हैं। भीषण गर्मी के बाद बारिश के मौसम ने हमें जरूर राहत पहुंचाई है। बारिश हो नहीं रही है लेकिन जारी है आकाश में बादलों की आवाजाही। बबूल के जंगल से आगे बढ़ चुकी है ट्रेन। खिड़कियों से मस्त आ रही है हवा।

कैंट स्टेशन के प्लेटफार्म से खरीद कर पापा लाए थे अमरूद। दादा जी के पास उछल-उछल खा रहे हैं बच्चे।
बच्चों की मां एक प्लास्टिक के प्लेट में खा रही हैं नमकीन। मसालेदार हरा चना लेकर चलती ट्रेन में दौड़ते हुए चढ़ा है वेंडर। दादा जी के डांटने के बाद भी जिद कर के बच्चों ने खरीदवा ही लिया चने के दोने। अब लकड़ी के चम्मच से निकाल निकाल बड़े चाव से खा रहे हैं मसालेदार हरा मटर।


अभी प्यासे लेकिन हरे भरे दिख रहे हैं खेत। धूप नहीं है तो गोल बना कर खेतों के बीच बकरियों के झुंड की तरह बैठे हैं बच्चे भी। एक चिड़िया तेज गति से ट्रेन के साथ उड़ रही थी। लग रहा था जैसे कंपटीशन कर रही हो! शायद हराकर सबक सिखाती रहती हो रोज सुस्त चाल चलने वाली ट्रेनों को। यह वाली ट्रेन चिड़िया की उड़ान से तेज निकली। चूं चूं करती पिछड़ गई चिड़िया। कहीं किसी कोने में बैठे कछुए ने देख लिया होगा तो चिड़िया का मजाक उड़ाता होगा.. मैं हरा देता हूं ट्रेन को और तुम हार गई!!!
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सुबह की धूप तेज है। सही समय पर चल रही है फोट्टी नाइन। जम चुकी है तास की अड़ी। उज्जर गमछे में फेंके जा रहे हैं राजा, रानी, इक्के। कोई पत्ता कलर बन जाता है और सभी पर जमाता है रंग। आरक्षण या ऊँची जाति का तमगा मिल गया हो जैसे! दुक्की से कट जाता है इक्का!!!

ट्रेन हवा से बातें कर रही है। पटरी के उस पार धूप से चमकती उखड़ी-उखड़ी सड़क और सड़क के उस पार दूर दूर तक फैले खेत। खेतों में कहीं बारिश का जमा पानी, कहीं बंजर धरती। कहीं सब्जी, कहीं धान के बीज। मेढ़-मेढ़ धूप में दौड़ते नन्हें गदेले। खेतों के बीच खड़ा सूखा युग्लिप्टस का वृक्ष। धूप में चुंधियाई आंखों से आकाश में बादल निहारता बूढ़ा किसान। युग्लिप्टस और किसान में साम्य ढूंढता हूं। किसान में जीवन शेष है। माथे पर घास का बोझ लादे जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाती महिलाएं। पल- पल बदलते हैं दृश्य लोहे के घर में।
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सुबह फोट्टी नाइन अप, शाम फिफ्टी डाउन। हावड़ा अमृतसर एक्सप्रेस। सही समय पर चले तो रोज के यात्रियों के यह ट्रेन सबसे सूट करती है। सुबह दस से पहले पहुंचा देती है जौनपुर और शाम साढ़े पांच से छः बजे के बीच वापसी में मिल जाती है। आज अप, डाउन दोनों सही समय पर मिली। ट्रेन का सही समय पर चलना बड़ा सुकून देता है रोज के यात्रियों को।

काम भर की भीड़ है। बैठने भर की जगह है। हर बार खिड़की वाली सीट नहीं मिलती। खिड़की वाली सीट पर स्लीव लेस पीला सूट पहने एक युवती चाय बिस्कुट सुडुक रही है। बगल में टी शर्ट और जींस पहने बैठा उसका साथी भी साथ दे रहा है। चाय खत्म हुई अब युवक कहीं चला गया है। युवती पूरी टांगे फैलाए, कान में तार ठूंसे खिड़की की तरफ पीठ कर के मोबाइल में बातें कर रही है। मेरे बगल में बैठा एक आदमी लगातार मोबाइल में किसी से बातें कर रहा है। एक से बात खतम होती है तो दूसरे को मिलाने लगता है। जब से अन लिमिटेड कॉल का दौर शुरू हुआ लोग फालतू समय का उपयोग मित्रों से बात करने में करने लगे हैं। अपने व्यस्त समय में फोन आया तो जल्दी उठाते नहीं।

सामने के साइड लोअर में बच्चों और महिलाओं का दूसरा परिवार है। सभी पलेठी मार कर खिड़की से बाहर देख रहे हैं। बाहर के दृश्य देख बच्चे प्रश्न करते हैं और महिलाएं बताती जाती हैं। साइड अपर बर्थ उनके सामानों से भरा पड़ा है। अजीब अजीब आवाजें निकालते हुए वेंडर चाय, हरा मटर, मैंगो जूस और पानी बेच रहे हैं। बच्चे वेंडरों की आवाजें दोहराते हैं और हंसते हैं..च ई य्या!

खिड़की के बाहर का संसार अभी मन मोहक है। गोधूली की बेला है। खेत चर कर चौपाए घरों की ओर लौट रहे हैं। एक खेत में चार देसी कुत्ते भी आराम फरमाते दिखे। शायद ये आपस में बैठ कर यह तय कर रहे थे कि गांव में किसकी झोपड़ी से पहले धुआं निकलेगा? जिस घर से धुआं उठता दिखलाई पड़े, उधर ही कूच किया जाय! रोटी वहीं पहले मिलेगी।

एक खेत में आग जलता दिखा। ये खेत पर पड़े भूंसे ऐसे ही फूंक दे रहे होंगे। कौन काटे?, कौन भूसा तैयार करे?, कहां रख्खे? जितने का भूसा नहीं, उतना तो समय और श्रम बेकार। बारिश भी तो सर पर है। खेत तैयार नहीं किया तो धान की बोआई कहां होगी?

एक खेत पर झुंड से छूटी बकरी बड़ी तेज मिमियां रही थी। शायद खेलने में भटक गई हो। जैसे शहर में कोई अकेली बच्ची साथियों से छूट जाय और रोने लगे! वैसे ही चीख रही थी, खेत में अकेली छूटी बकरी। बकरी को नहीं पता होगा कि जमाना खराब आ गया है। लेकिन फिर भी रास्ता भटकी बच्ची की तरह चीख रही थी बार-बार।

अब दिन पूरी तरह ढल रहा है। रोशनी कम हो रही है और अंधेरा तेजी से बढ़ता जा रहा है। बाहर जब कुछ नहीं दिखेगा, लोहे के घर में भीतर की लाइट जलेगी। अभी बाहर धुंधुलकी रौशनी है, अभी भीतर पूरा अंधेरा नहीं हुआ। हमारा हाल भी लोहे के घर वाला है। जब तक बाहर दिखता है, बाहर ही देखते रहते हैं। बाहर से झटका लगे तो भीतर के उजाले की तलाश प्रारंभ हो। अप्प दीपो भव: ऐसे ही थोड़ी न कहा होगा बुद्ध ने। 
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