इतने तनाव में क्यों हो? धूप में पैदल चलकर आ रहे हो?
नहीं भाई, समाचार देख कर आ रहा हूँ।
अरे! रे! रे! इतना जुलुम क्यों किया अपने ऊपर? जेठ की दोपहरी में दस किमी पैदल चलना मंजूर, समाचार देखना नामंजूर।
क्या बताएं यार! आज छुट्टी थी, कोई काम भी नहीं था, बाहर धूप थी, सोचा समाचार ही देख लें...
बस यहीं चूक कर गए।
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धूप के कई साइड इफेक्ट हैं। धूप में चलना पड़े तभी समस्या होगी यह जरूरी नहीं। धूप में न चल पाना और घर में ही फँसे रह जाना भी मुसीबत का कारण बन सकता है। ऐसे वक्त समस्याएँ आपको निर्बल जान, आप पर आक्रमण कर सकती हैं। गरमी भेष बदल कर तांडव करती है!
सारा दिन घर में हो, कोई ढंग का काम नहीं किए! कम से कम बाथरूम ही साफ़ कर लिया होता!!!
इतने मैले कपड़े खूँटी में टँगे हैं, इनको ही धो लिया होता।वाशिंग मशीन में ये अपने से उड़ कर तो जाएंगे नहीं। शर्ट के कॉलर, पैंट की मोहरी..सब वाशिंग अपने से साफ नहीं करती जनाब! थोड़े हाथ भी चलाने पड़ते हैं।
छुट्टी में ए.सी.की जाली नहीं साफ़ करेंगे तब कब करेंगे?
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बनारस की गलियों में यह समस्या नहीं है कि गरमी प्रचण्ड है तो घर से बाहर कैसे निकलें? एक गमछा लपेटो, एक कंधे पर रखो और निकल कर बैठ जाओ पास के किसी पान/चाय की अड़ी पर। अरबपति भी छेदहा बनियाइन पहने, पान घुलाए बैठे दिख जाते हैं। बहरी अलंग गांवों में रहने वाले भी पूर्वजों के पुण्य प्रताप से लगाए किसी घने बरगद/नीम/आम के नीचे खटिया बिछा कर बेना डुलाते, बेल फोड़ते/घोलते, खैनी रगड़ते दिन काट लेते हैं। समस्या शहरी कॉलोनी में रहने वालों के लिए है। गरमी उनके सर पर चौतरफा तांडव करती है। ए.सी. कमरे से निकल कर मॉल में घुस सकते हैं लेकिन कितने दिन? अधिकतर तो दिखावटी रईस हैं! एक दिन के बाद दूसरे दिन से ही बजट गड़बड़ाने लगता है। भरे बाजार, बिगड़ता EMI नजर आने लगता है। पड़ोसी को कार निकालते देख चिढ़ने/खीझने लगते हैं। मुँह से बिगड़े बोल निकलने लगते हैं... बहुते गरमी चढ़ल हौ! जल्दिए दख्खिन में मिल जाई। अब इस वाक्य में गरमी का अर्थ सुरुज नारायण के धूप से नहीं, पैसे की प्रचुर मात्रा से है। 'दख्खिन में मिलना' एक अश्लील गाली है जिसे बनारसी ही समझ सकते हैं और दूसरे जो नहीं समझते, न ही समझें तो अच्छा है। बनारसी समझें तो कोई हर्ज भी नहीं, वे रोज ऐसी गाली देते/लेते रहते हैं।
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एक दिन मैं, जेठ दुपहरिया के मध्यान में, सर पर गमछा लपेटे, हेलमेट पहने, ट्रेन पकड़ने, तारकोल की सड़क पर, बाइक चलाते हुए, अपनी धुन में, चला जा रहा था। बगल से चाँद खोपड़ी वाला, एक प्रौढ़, स्कूटी से गुजरा! मैं कभी अपना गमछा/हेलमेट सही करता, कभी उस चन्डुल को हैरत से देखता। तीखी सूर्य किरणों का ताप इतना ज्यादा था कि मेरे चप्पल से बाहर निकलती उँगलियाँ भी झुलस जाना चाहती थीं। यह शक्श कैसे इस धूप में सही सलामत, नङ्गे सर, स्कूटी चला रहा है! जैसे सूर्य की रोशनी पा, पूनम का चाँद चमकता है, वैसे ही उसकी दिव्य खोपड़ी दिनमान की आभा से देदीप्यमान थी। मन किया पूछ लूँ..भाई साहब! आपको गर्मी नहीं लग रही?
तभी उसने स्कूटी साइड में करी, पिच्च से पान थूका और फोन में गरजने लगा..खोपड़ी धूप से भन्ना गयल हौ भो#ड़ी के! तू हउआ कहाँ?...
उसने आगे भी कुछ सांस्कृतिक शब्दों का प्रयोग किया होगा लेकिन मैं जल्दी में था और निकल लेने में ही अपनी भलाई समझी। सोचा..मैं भी कितना मूर्ख हूँ! बाल-बाल बचा। सूरज की गरमी उसके सर पर तांडव कर रही थी और मैं आग में घी डालने जा रहा था!
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