वे दिन भी क्या दिन थे!
हम थे, तुम थे और साफ थीं गङ्गा जी
पोतते थे जिस्म में मिट्टी, तैरते थे घण्टों और
भूख लगने पर
खा लेते थे
ककड़ी, हिरमाना, खरबूजा,
प्यास लगने पर
डुबकी मार के
पी लेते थे
पेट भर पानी।
वे दिन भी क्या दिन थे!
हम थे, तुम थे और बोतल का पानी नहीं था
गली के चबूतरे पर बैठा होता था प्याऊ,
घर-घर में होता था कुआँ,
गली-गली में
सरकारी नल या चापाकल।
वे दिन भी क्या दिन थे!
हम थे, तुम थे और कोरोना नहीं था।
न मुख मास्क का झंझट न सेनेटाइजेशन की चिंता
चाट लेते थे, एक दूसरे की
जूठी आइसक्रीम भी।
सोचो तो..
अचानक से नहीं आया कोरोना
पहले मैली हुईं नदियाँ,
सूख गए तालाब और कुएँ,
बोतल में बिकने लगा पानी और तब आया
कोरोना।
सोचो तो..
क्या-क्या देखेंगे आगे
अगर बचे रह गए
हम तुम।
...........@देवेन्द्र पाण्डेय।
सच को आइना दिखाती सुंदर रचना, बचे न रहने का( मुक्ति ) कोई उपाय नहीं किया है तो फिर-फिर लौट कर आना ही होगा न
ReplyDeleteसचमुच क्या दिन थे . लौटकर आएंगे ऐसा अब नहीं लगता .
ReplyDeleteसार्थक प्रश्न और सारगर्भित कविता !!
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