19.5.22

घड़ा

पीपल के पेड़ पर माटी के कलश लटके होते हैं। माना जाता है कि मरने के बाद आदमी 12 दिनों तक प्रेत योनि में भटकता है, तेरहवें दिन श्राद्ध हो जाने के बाद वह पितरों की श्रेणी में शामिल हो जाता है। 12 दिनों तक मृत आत्माओं को पानी देने के लिए माटी के कलश, पीपल के शाखों पर बांध देते हैं और मृतात्मा के लिए पुत्र/वारिश रोज सुबह/शाम घट में जल भरता रहता है। 


हम काशी की गलियों में बसे एक मोहल्ले ब्रह्माघाट में रहते थे। घाट से गंगा की सीढ़ियाँ उतरते समय बायीं तरफ आज भी पीपल का एक विशाल वृक्ष है जिसमें माटी के घट लटके होते हैं। हम लड़के, किशोरावस्था में घाट की सीढ़ियाँ चढ़ते/उतरते बड़े ध्यान से इन घटों को देखते रहते थे। कोई कहता,"पीपल का पेड़ है, इसमें भूत रहते हैं।" हम शुरू से ही भूत/प्रेत पर विश्वास नहीं करते थे तो इन तर्कों को शुरू से खारिज कर देते थे। बात ही बात में किसी ने बाजी लगा दी,"रात को 12 बजे यहाँ आकर दिखाओ तो माने कि भूत नहीं होते!" हम कहाँ हारने वाले थे! उत्साह में बोल दिए,"आएंगे क्या, एक घट भी उतार लाएँगे, तुम लोगों को विश्वास हो जाय कि हम आए थे। तुम लोग दूर चबूतरे पर बैठे रहना।" 


वो किशोरावस्था की शैतानियों के दिन थे। बात आई/गई हो गई लेकिन जब भी मित्रों को मौका मिलता, चिढ़ाने से नहीं चूकते,"पाण्डेय! घण्टा कब उतारोगे?" हम सुनकर कट के रह जाते और मौके की तलाश करते। एक दिन मौका मिल ही गया।


गलियों में 'नूतन बालक समिति' की ओर से 'गणेश विद्या मंदिर' स्कूल (जो ब्रह्माघाट से थोड़ी दूर घासी टोला मुहल्ले में स्थित था) और मोहल्ले के ही एक विशाल भवन जो 'आंग्रे का बाड़ा'  के नाम से प्रसिद्ध था, में धूमधाम से गणेश जी की प्रतिमा स्थापित होती और कई दिनों तक भांति-भांति के सांस्कृतिक समारोह आयोजित होते थे। इन्ही समारोहों में एक दिन बड़े पर्दे पर फिल्म भी दिखाई जाती। हम किशोर, भले दूसरे आयोजनों में न जांय, फिल्म देखने जरूर जाते।  


उस दिन आंग्रे के बाड़े में शाम को एक फ़िल्म दिखलाई जाने वाली थी। उन दिनों जब टीवी नहीं थी, हम किशोरों के लिए यह एक बहुत बड़ा आयोजन था। वह कौन सी फ़िल्म थी, याद नहीं लेकिन फ़िल्म थी, यही बहुत था। सभी मित्र फिल्म देखने के लिए जमा हुए थे और घरों से भी गणेशजी के नाम पर समारोह में जाने की पूरी छूट थी। 


फिल्म रात 12 बजे के आसपास समाप्त हुई और हम शोर करते हुए घर जाने के लिए बाहर चबूतरे पर जमा हुए। तभी मैने मौका ताड़ा और घोषणा कर दी, "हम पीपल के पेड़ से घण्ट उतारने जा रहे हैं, तुम लोग यहीं बैठो, 5 मिनट में आ रहे हैं।" सभी मित्र अवाक हो, मेरा चेहरा देखने लगे! और चीखने लगे,"पागल हो गए हो क्या? पीपल के पेड़ पर भूत रहते हैं।" मैने हँसते हुए कहा, "कोई भूत नहीं रहता, चिंता मत करो, अभी आ रहे हैं।"


हम दौड़ते हुए घाट की सीढ़ियाँ उतर गए। पीपल के पेंड़ के पास पहुँचकर, ठिठक कर खड़े हो गए। घट तो बहुत ऊँचाई पर हैं, कैसे उतारें? सोचते-सोचते कोई उपाय नजर नहीं आया। घट वाकई मेरी ऊँचाई से बहुत ऊपर थे! आस पास कोई नहीं था, जो मदद करे। कोई होता भी तो ऐसे कामों में क्यों मदद करता? मारकर भगा देता। तभी नीचे जड़ों के पास एक खाली घड़ा दिखाई दिया! मुझे मन माँगी मुराद मिल गई। घड़ा उठाया और भाग कर सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। चबूतरे के पास पहुँचे तो यह क्या! मेरे सभी मित्र कहाँ गए? मैं घड़ा वहीं चबूतरे पर रखकर आवाज जोर-जोर से आवाजें लगाने लगा, "कहाँ हो? देखो! घड़ा ले आए। कोई है?" हारकर वहीं चबूतरे पर बैठ गए। सोचने लगे, "सभी डरपोक हैं, चलो!  घड़ा घर ले चलते हैं, कल दिखाएंगे।" घड़ा उठाने के लिए ज्यों ही मुड़े, वहाँ कोई घड़ा नहीं था! डर के मारे मेरी घिघ्घी बंध गई। अरे! यहीं तो रक्खा था, घड़ा कहाँ गया?



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6 comments:

  1. आपके पास कहानी किस्से ज़बरदस्त हैं ।
    डरा तो नहीं रहे न ?

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    1. धन्यवाद। डरा नहीं रहे, घटना घटी है सिर्फ अन्त थोड़ा उत्तेजक बना दिया।

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  2. रोमांचक, भूतिया किस्से की अगली कहानी की प्रतीक्षा है।

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