लोहे के घर में अकेले बैठे हों तो कुछ लिखने के लिए मोबाइल पर उँगलियाँ चलने लगती है। लिखने के लिए बड़ा अनुकूल माहौल है। लखनऊ-बनारस शटल एक्सप्रेस की ए.सी. चेयर कार वाली बोगी में 2 नम्बर की बर्थ है। सो नहीं सकते, बैठना मजबूरी है। बैठकर करेंगे क्या? सामने बंद दरवाजे के सिवा कुछ नहीं। अपनी विंडो सीट है, शाम के 6.30 बजने वाले हैं, बाहर अभी उजाला है, बाहर झाँक सकते हैं। अच्छी भली समय से प्लेटफार्म पर लगी ट्रेन को 15 मिनट लेट चलाया मालिक ने! कोई मजबूरी होगी। अभी कबाड़ इलाके से रेंग कर आगे बढ़ रही है, रफ्तार पकड़ेगी तब बाहर झाँकने लायक दृश्य दिखेंगे।
बगल में 3 नम्बर वाली एक बर्थ पर एक युवा बैठा था, तभी एक प्रौढ़ दम्पती हिलते हुए आकर अनुरोध करने लगे, "वहाँ बैठ जाते तो हम लोग साथ बैठ जाते? हमारी एक सीट, 4 नम्बर यहाँ, एक वहाँ मिल गई है" युवक शरीफ निकला, झट से अपना झोला उठाकर यहाँ से वहाँ हो गया!" शरीफ लोगों से बहुत अनुरोध नहीं करना पड़ता, वे झट से झोला उठाकर चल देते हैं। इसके लिए आपके अनुरोध में दम होना चाहिए। यह नहीं कि शरारतन अगले से कहें,"झोला उठाओ, चले जाओ!" अगला कहेगा,"नहीं जाएँगे, अभी और तुम्हारी छाती पर और मूंग दलेंगे, क्या कर लोगे?"
मेरे पीछे 5,6 नम्बर वाली बर्थ का भी यही आलम था, एक जोड़े की सीट आगे-पीछे हो गई थी। यहाँ भी 'सिंगल' अपना झोला उठाकर चला गया। सिंगल' के साथ अक्सर लफड़ा हो जाता है, जोड़े रंग जमा कर, सार्वजनिक सीट से ऐसे ही उठा देते हैं। भले अपने घर में घुसने के बाद ये जोड़े एक दूसरे का मुँह देखना पसंद न करते हों लेकिन सामाजिक मर्यादा है, क्या किया जाय? कैसे अपनी बीबी को दूसरे युवा के साथ बैठने दिया जाय? मर्यादा भी तो निभानी है! मुझे तो लगता है, आजकल लोग मन से न चाहते हुए भी, मर्यादा पुरुष बने घूमते हैं!
मैं भी यहाँ सिंगल हूँ लेकिन मेरे साथ यह लफड़ा नहीं हुआ। एक नम्बर सीट पर एक नौजवान आया और अपना झोला रखकर चला गया! ट्रेन चल दी, नहीं आया!!! मैं घबड़ाने लगा, झोला रखकर कहाँ गायब हुआ? कहीं झोले में कुछ गड़बड़ समान तो नहीं! तभी वही युवक काले पैंट-कोट में चार्ट लेकर सामने आ गया,"आपका नाम?" ओह! तो यह टी टी है!!! भगवान कितना दयालु है! इस ट्रेन में, एक नम्बर की बर्थ टी टी की होती है, यह आज पता चला।
बाहर का दृश्य बहुत सुहाना है। हरी भरी धरती, कहीं खेत चरते चौपाए, कहीं भरे पानी मे डूबे धान, बरश चुके बादलों से खाली हुआ साफ आसमान, हरे/घने पेड़, छा रहा अँधेरा, जा रहा उजाला और घास का भारी गठ्ठर सर पर लादे, मेड़-मेड़ जा रही, भउजाई!
अब बाहर अँधेरा अधिक हो चुका है। शीशे से बाहर झाँको तो अपनी ही परछाई दिख रही है! बोगी में भीतर उजाला हो चुका है। सभी लाइट जल चुकी है। यही होता है। जब भीतर रोशनी होती है तो बाहर देखना भी चाहो, दर्पण की तरह अपना चेहरा ही दिखने लगता है! पता नहीं, अपने भीतर कब दीपक जलेगा? और जान पाएंगे, 'कौन हैं हम?' कब खतम होगा, मैं?"
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फोटो कहाँ है जी , ऐसे नहीं चलेगा , ये चित्रहार हमें पूरा देखना है। बाकी लोहे का घर तो है ही हमेशा की तरह , ख़ास
ReplyDeleteआप अभी तक जुड़े हैं, यह खुशी की बात है, धन्यवाद।
Deleteजोड़े रंग जमा कर, सार्वजनिक सीट से ऐसे ही उठा देते हैं। भले अपने घर में घुसने के बाद ये जोड़े एक दूसरे का मुँह देखना पसंद न करते हों लेकिन सामाजिक मर्यादा है, क्या किया जाय।
ReplyDeleteऐसा सच सार्वजानिक कर दिया । लोहे का घर ज़बरदस्त श्रृंखला है ।
आभार।
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ५ अगस्त २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
धन्यवाद।
Delete“सभी लाइट जल चुकी है। यही होता है। जब भीतर रोशनी होती है तो बाहर देखना भी चाहो, दर्पण की तरह अपना चेहरा ही दिखने लगता है! पता नहीं, अपने भीतर कब दीपक जलेगा? और जान पाएंगे, 'कौन हैं हम?' कब खतम होगा, मैं?"
ReplyDeleteगहन चिन्तन…,सुन्दर पोस्ट ।
धन्यवाद।
Deleteलोहे के इस चलते फिरते घर के साथ समानांतर चल रहा चिंतन....
ReplyDeleteकमाल का लेखन
वाह!!!
धन्यवाद।
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