25.1.24

लोहे का घर 75 (संस्मरण)

लोहे का घर का घर मेरा पीछा नहीं छोड़ता या मैने लोहे के घर को अपना आवास बना लिया है, नहीं पता। अभी मुंबई, गोवा, पुणे घूमकर 10 दिनों में घर आया ही था कि आज फिर दिल्ली जाने के लिए 'शिव गंगा एक्सप्रेस' पकड़ना पड़ा।

हुआ यूँ कि बिटिया छुट्टी लेकर आई थी लेकिन अचानक से 8 तारीख को ऑफिस पहुंचने का बुलावा आ गया। उसने 7 तारीख के लिए फ्लाइट का टिकट लिया था लेकिन खराब मौसम के कारण फ्लाइट निरस्त हो गई और मजबूरी में ट्रेन पकड़नी पड़ी। एक वर्ष के बच्चे के साथ उसे इतनी देर के सफर में अकेले भेजना ठीक नहीं लगा, मैं भी चल दिया। कल सुबह पहुंचेंगे, दिन में 3 बजे वन्दे भारत से वापस आना है, सिर्फ पहुंचाने जा रहे। थर्ड ac में दरवाजे के बगल वाली साइड लोअर/ अपर मिली है। रात्रि के 11 बजने वाले हैं, लगातार कोई न कोई आ/जा रहा है, सो नहीं पा रहे।


जिसका डर था, वही हुआ। बिटिया की तबीयत खराब हो गई। ठंड लग गई या बदहजमी हो गई 4-5 बार लगातार बाथरूम जाने से उसकी हालत पतली होने लगी। मुझे लगा, यही हाल रहा तो बेहोश हो जाएगी। टी टी से मदद मांगी। उसने फोन करके कानपुर में डॉ बुलवा लिया और मुझसे बोला, "अभी 40 मिनट में कानपुर आ जाता है, डॉ, दवाई सब मिल जाएगा।"


कानपुर स्टेशन अपने निर्धारित समय 2.45 पर पहुंची। ट्रेन रुकते ही डॉ, दवा के साथ उपस्थिति हो गए। एक घण्टे में उनकी दवा से आराम मिल गया। उसका बार -बार बाथरूम जाना रुका, मैं नाती को संभालता रहा। मेरे कूपे के सहयात्री भी सहयोगी मिल गए। मेरे पास एक अपर, एक साइड लोअर की 2 बर्थ थी, एक अपनी लोअर बर्थ देकर मेरी अपर बर्थ में सोने चला गया, इससे बहुत राहत मिली। नाती ने भी खूब सहयोग किया, अपनी अम्मा के तबियत खराब होने तक, गहरी नींद में सोया रहा। इस समय दोपहर के 12 बजने वाले हैं, ट्रेन 5घण्टे लेट चल रही है। इसे सुबह 8.30 पर दिल्ली पहुँचना था लेकिन अभी यह दिल्ली से 150 किमी दूर है। बिटिया का ऑफिस तो गया, अब चिंता यह है कि दोपहर 3 बजे से पहले दिल्ली पहुँच जाय और मैं दामाद जी को बिटिया, नाती हवाले कर वन्दे भारत पकड़ लूँ। वन्देभारत दिल्ली से 3 बजे छूटेगी। 😃

शिवगँगा 3 बजे के बाद पहुंची दिल्ली। अच्छा यह हुआ कि लौटने की ट्रेन 'वन्दे भारत' भी 2 घण्टे विलम्ब से चलने का मैसेज आ गया। मैने बता दिया था कि मैं स्टेशन से ही लौट जाऊंगा, घर में जरूरी काम है, लौटना जरूरी है। समधी, समधन और दामाद जी सभी भरपूर भोजन के साथ दिल्ली प्लेटफार्म पर मौजूद थे। मेरे पास 2घण्टे का समय था, मैं भी स्टेशन से बाहर निकल आया और कार में ही भोजन करके, बिटिया के साथ सबको विदा कर दिया और हाथ हिलाते हुए लौट चला प्लेटफार्म पर जहाँ से वन्दे भारत मिलनी थी। ट्रेन बहुत विलम्ब से आई, 7 बजे छूटी और चाल ठीक रही तो पहुंचाएगी भी 8 घण्टे बाद, भोर में 3 बजे। मतलब आते समय ट्रेन सुबह 8.30 के बजाय दोपहर में 3 के बाद आई थी और जाते समय यह रात्रि 11 के बजाय भोर में पहुंचाने वाली है। इस तरह आते/जाते का 16 घंटा ट्रेन ने खा लिया।

लोहे के इस घर का मेरा पहला अनुभव है। हवाई जहाज की तरह सुफेद कूपे की सीटों पर यात्री लाइन से आगे /पीछे बैठे हैं। अपनी विंडो सीट है। हर रो में 3 चेयर कार हैं। मेरी बगल की दोनो सीट खाली है, शायद अगले स्टॉपेज कानपुर में भरे। दिल्ली और बनारस के बीच कानपुर और प्रयागराज यही 2 स्टॉपेज हैं। पानी, नाश्ता, चाय मिल गया। भले पैसा टिकट में लिया हो लेकिन कोई प्रेम से खिलाए तो अच्छा लगता है। थके शरीर को आनंद आया। सभी यात्री अपनी-अपनी सीट पर मगन हैं, दिखलाई नहीं दे रहे। मेरे बगल के 2 खाली बर्थ में से 1 में एक 2 जुड़वा पाँच वर्ष की बेटियों का पिता, जम कर लैपटॉप चलाने में लीन है। उसकी 2 बर्थ है, उसमें पत्नी और दोनो बच्चे बैठे हैं। मुझे देखता देख, हँसते हुए बोल रहे थे, 'अगली बार बच्चों के लिए भी बर्थ लेना पड़ेगा।' इन्हें कानपुर जाना है, आज तो इनका काम बन गया। कानपुर तक तो दोनो सीट खाली रहने वाली है। सामने बोगी की स्क्रीन पर, अगला स्टॉपेज कानपुर लिखकर आ रहा है और लगातार एक लाइन चल रही है, जिसमें चेतावनी प्रदर्शित हो रही हैं, "शिकायत इस नम्बर पर करें, लावारिस समानों से सावधान रहें, कमोड में कुछ न फेंके, मध्यपान, धूम्रपान न करें आदि।" कहीं किसी की मोबाइल की रिंगटोन, कहीं वीडियो की आवाज को छोड़ दिया जाय तो कूपे में शांति है, लिखने का माहौल है लेकिन अपना शरीर ही 24 घण्टे की बिना आराम वाली यात्रा के कारण थका हुआ है।

सुबह के 6 बजने वाले हैं, कानपुर के आउटर में ट्रेन रुकी है। कल शाम 7 बजे जब यह ट्रेन चली थी, इसे कानपुर पहुँच जाना था। कोहरे के कारण लेट है ट्रेन। लगता है बनारस पहुँचने में 10 बजाएगी। कानपुर उतरने वाले यात्री अपने सामान पैक कर तैयार हैं, पहुँचे तो उतरें। जिन्हें यहाँ नहीं उतरना है उनके खर्राटों की आवाजें आ रही हैं। यह मेरे घूमने का समय है, इस समय मुझे नींद नहीं आती। जितना सोना था, सो लिए। मेरे बगल में बैठे यात्री की 5 वर्ष की दोनो जुडवां बेटियाँ 'अंकल बाय' कहके माता पिता के साथ कानपुर उतरने के लिए दरवाजे पर चली गई हैं। कल शाम मैने अपनी आइसक्रीम इन्हें खिला दिया था, तभी से ये मुझसे बहुत खुश हैं। दोनो चुलबुली बेटियों से पूछता था, "तुम दोनो में कौन बड़ी है?" एक बोलती, "ये मुझसे 5 मिनट बड़ी है, लेकिन हाईट में मैं बड़ी हूँ!" कितनी बड़ी?, पूछने पर नहीं बता पाती, शरमा जाती, केवल हाथ से इशारा करती, "इत्ती बड़ी।" अब घर पहुँच कर पक्का पता लगाएगी कि हाईट में वो कित्ती बड़ी है? कानपुर आ गया, दोनो चली गईं। कानपुर से कोई नहीं चढ़ा, मेरे बगल की दोनो सीट खाली है और जहाँ बच्चे बैठे थे, वो कोना भी सूना हो गया है।

प्रयागराज से आगे बढ़ी है वन्देभारत। अब कोहरा घना नहीं है। एनाउंस हो रहा है, "भारतीय रेलवे आपके सुखद और मंगलमय यात्रा की शुभकामनाएँ देती है।" जिस ट्रेन को कल रात 11 बजे वाराणसी स्टेशन पर होना था, आज 9 बजे दिन में प्रयागराज से चली है, यात्रा कितनी सुखद है, यह आप समझ ही सकते हैं। वैसे इसमें भारतीय रेलवे का कोई दोष नहीं, सब दोष कोहरे का है। आकाश में कोहरा घना होना, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना ही नहीं, लोहे के घर के विलम्ब से चलने के लिए हो रही आलोचना से बचाव का एक रास्ता भी है! इतनी शानदार गाड़ी में कुछ ही यात्री शेष हैं। लगता है विलम्ब के कारण टिकट निरस्त करा कर लोगों ने दूसरा रास्ता अपना लिया है।

अपन तो दुःख में सुख ढूंढते हैं। इतनी बड़ी गाड़ी में कुछ यात्रियों के साथ शांतिपूर्वक अपनी यात्रा चल रही है। बीच-बीच में चाय/नाश्ता भी मिल रहा है। अधिक देर ठहराने का कोई अतिरिक्त मूल्य भी नहीं चुकाना, अतिरिक्त नाश्ता भी शायद मुफ्त में मिले! लग रहा है बारात में चल रहे हैं और बरातियों की तरह रेलवे अपना स्वागत कर रहा है! और क्या चाहिए? सूर्यदेव के दर्शन हो रहे हैं, अब रफ्तार तेज हुई है, लगता है, 12 बजे तक घर पहुँच जाएंगे।

5 comments:

  1. वाह ! लोहे के घर को इस तरह अपना लेने से कोई शिकायत शेष रह भी कहाँ सकती है, अति रोचक आनंद दायक यात्रा विवरण !

    ReplyDelete