एक दिन साथ प्रातः भ्रमण करने वाले मेरे मित्रों ने मेरी यह हरकत देख ली। उन्होने मुझे वृक्ष से बहुत देर बात करते देखा तो आश्चर्य से पूछने लगे, "पंडित जी! वहाँ का हौ?" मैने उन्हें पूरी बात नहीं बताई कि कवियों के एक जोड़े को प्रकाशक ने उल्लू बना दिया है, बस इतना ही कहा, "वहाँ उल्लू का एक जोड़ा रहता है।" मित्र कवि नहीं, व्यापारी हैं। ऐसी मान्यता है कि सुबह-सुबह उल्लू का दर्शन बड़ा शुभ होता है। उल्लू लक्ष्मी का वाहन होता है। उल्लू दर्शन से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। उनके लिए यह जानना खुशी की खबर थी कि उस नीम के वृक्ष में एक उल्लू का जोड़ा रहता है। सुनते ही वे दौड़ पड़े। सभी ने जोड़े के दर्शन किए और मुझे बहुत धन्यवाद दिया। खुश हो कर बोले, "पंडित जी कई दिनन से माल काटत हउअन, आज राज कs बात पता चलल।"
हमने अपना माथा पीट लिया। जिस लक्ष्मी के चक़्कर में प्रकाशक ने कवियों को उल्लू बनाकर छोड़ दिया, पैसे के आभाव में ये बुद्धिजीवी उल्लू बनकर भटक रहे हैं, उन्हें ही लक्ष्मी का वाहन कहा जा रहा है! यह कैसी विडंबना है, किसी का दुर्भाग्य, किसी का सौभाग्य बन जाता है। कोई मरता है तो किसी की लकड़ी बिकती है। दर्द तो वही महसूस कर सकता है जो दुःख भोगता है। कितना कटु सत्य है!
मित्रों को उल्लुओं का कवि के रूप में या अपनी कविताओं के श्रोता के रूप में परिचय देना व्यर्थ था। एक समस्या यह भी थी कि मेरे कवि मित्र जान जाएंगे कि यहाँ दो उल्लू श्रोता रहते हैं तो वे भी आकर उल्लुओं को कविता सुनाने लगेंगे और सब कवियों से भड़क कर, उल्लू कहीं दूसरे शहर में भाग गए तो मेरा क्या होगा! इतने अच्छे श्रोता फिर कहाँ मिलेंगे? मैने चुप रहना ही अच्छा समझा और उनकी हाँ में हाँ मिलाया, "सही बात है,उल्लू को देखना बड़ा शुभ होता है। आजकल किस्मत से उल्लू मिलते हैं, वरना तो गुरु ही मिलते हैं। वह भी काशी में! जहाँ छोटे गुरु, बड़े गुरु, आश्वासन गुरु, भवकाली गुरु आदि सभी प्रकार के गुरुओं की भरमार है, उल्लुओं का दिखना, किस्मत की बात है।
मुझे उल्लू, चमगादड़ बहुत मिलते हैं। एक बार भोपाल के एकांत पार्क में घूमते हुए भोर में 5 बजे ही पहुँच गया था। चार ईमली में ठहरा हुआ था और एकांत पार्क आवास से एक, दो किमी दूर ही था। घने वृक्षों के कारण पार्क में बहुत अँधेरा था। एक वृक्ष की शाख पर इतने चमगादड़ लटके मिले कि आनंद आ गया। मैने उनसे बात करने का प्रयास किया लेकिन वे भीड़ में थे और बुरी तरह चीख-चिल्ला रहे थे, कोई भाव नहीं दे रहे थे। ऐसा लगा जैसे बड़े अधिकारियों का झुण्ड अँधेरे में अपनी सल्तनत कायम होने का जश्न मना रहा है! सभी अपने साथियों के साथ आमोद प्रमोद में मस्त थे। उनकी अलग दुनियाँ थी, अलग खेल थे। हल्का-हल्का उजाला होने लगा तो इनकी चीख चिल्लाहट कम हुई और मैं मुग्ध भाव से उनकी लीलाएं देखकर अपने आवास वापस आ गया। मुझसे मेरे बेचैन आत्मा ने धीरे कहा,"निशाचरी करेंगे तो उल्लू चमगादड़ नहीं तो क्या हँस दिखेंगे?" मैने आत्मा को समझाया, "सभी प्राणियों से प्रेम करना चाहिए, किसी को कष्ट नहीं दोगे तो कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ेगा। जंगली जानवर कोई मनुष्य थोड़ी न हैं कि पेट भरा होने के बाद भी भविष्य के संग्रह के लिए लूट मचाएंगे।"
एक बार की बात है, जाड़े की भोर में, सारनाथ के इसी म्यूजियम वाले उद्यान में, एक घने नीम वृक्ष की शाख से एक बड़ा सुफेद उल्लू लटका दिखाई दिया! पहले तो अँधेरे में लगा कोई बेचैन आत्मा है लेकिन ध्यान से देखा तो पाया यह एक बड़ा सा सुफेद उल्लू है जो पतंग के मँझे से फँसा, असहाय लटका हुआ है।
नहीं, नहीं, वह कोई कवि नहीं था, सच्ची घटना है, उल्लू ही था। इतना असहाय उल्लू ही हो सकता है। मैने पार्क के साथी कर्मचारियों को फोन लगाया और इस उल्लू को बचाने का आग्रह किया। दो साथी, तत्काल एक लम्बी सीढ़ी लेकर आ गए और उल्लू को नीचे जमीन पर उतार लाये। छूटने के प्रयास में उल्लू ने अपने पूरे शरीर को मँझे से जख्मी कर लिया था और पूरी तरह उलझा हुआ था। पुरातत्व विभाग के दोनो कर्मचारियों ने बहुत मेहनत से उल्लू को मँझे से मुक्त किया, मरहम लगाया और छत में रख दिया। वह इतना लाचार था कि उड़ नहीं सकता था और जमीन पर रखने का मतलब कुत्ते मार देते। छत पर रखकर हम निश्चिन्त हो गए कि अब यह बच जाएगा। हुआ भी यही, कुछ देर बाद वह उड़कर अपनी दुनियाँ में चला गया।
जब उल्लू के इस जोड़े को देखता हूँ तो सभी उल्लू, चमगादड़ याद आते हैं। सभी उल्लू प्रकाशक के मारे नहीं होते, कुछ अपने ही रिश्तेदारों के द्वारा सताए, कुछ हालात के शिकार भी होते हैं। प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी के सताए उल्लुओं को देखकर फिर भी हँसी आती है लेकिन कलेजा काँप जाता है जब अनाथ आश्रम में अपने ही बच्चों के द्वारा सताए लाचार बुजुर्ग, उल्लू की तरह दिन में भी रोते दिखलाई पड़ते हैं।
बहुत दिनों बाद या कहें कई वर्षों बाद एक दिन अचानक घने नीम वृक्ष के कोटर में बैठा उल्लू का यह जोड़ा दिखलाई दिया। इनके यहाँ दिखने की कहानी भी रोचक है। हुआ यूँ कि बगल के नीम वृक्ष पर तोते का एक जोड़ा रहता था। मैं उनसे हमेशा बातें करता। कभी कहता, "गोपी कृष्ण कहो बेटू, गोपी कृष्ण।" तोते बोलते, "टें टें!" कभी कहता, "जय श्री राम " तोते बोलते, "टें टें", अच्छा बोलो, "जय भीम, बुद्धम शरणम गच्छामि, आजादी-आजादी" तोते हर बार बोलते, "टें टें! टें टें! टें टें!" उनके इस व्यवहार से मुझे यह ज्ञान हुआ कि जो तोते वास्तव में आजाद होते हैं वे अपनी ही बोली बोलना पसंद करते हैं! गोपी कृष्ण, जय श्री राम, जय भीम या आजादी-आजादी वाले तोते वे होते हैं जिन्हें पढ़ाया, सिखाया, रटाया जाता है।
एक रात इसी नीम के वृक्ष पर भयानक बिजली गिरी! बिजली इतनी शक्तिशाली थी कि घना वृक्ष दो भागों में बँट गया। एक हिस्सा तो जमीन पर धराशायी हो बिछ गया, दूसरा हिस्सा जड़ें पकड़ कर खड़ा रहा। दूसरी सुबह प्रातः भ्रमण के समय मैने एक हिस्से को धरती पर बिखरा पाया तो देखते ही समझ गया, कल रात इस पर बिजली गिरी है। बीच में तोते के जोड़े का घोंसला या तोते का जोड़ा कहीं नजर नहीं आया। बहुत ढूँढा, कहीं नजर नहीं आया। इसी तोते के जोड़े को ढूंढने के प्रयास में बगल की शाख पर बैठा यह उल्लू का जोड़ा दिख गया!
मैं इनसे वैसे ही बातें करने लगा जैसे तोतों से करता। धीरे-धीरे कई महीने बीत गए, मुझे अब इन उल्लुओं से प्यार हो गया है। जब से यह ज्ञान हुआ है कि ये उल्लू बनने से पहले बुद्धिजीवी कवि थे, एक प्रकाशक ने इन्हें उल्लू बनाया है तो मेरी सहानुभूति इनसे और बढ़ गई है। और जब से महागुरु गूगल ने बताया है कि छोटे उल्लुओं की उम्र 2 से 4 वर्ष होती है, मैं इनसे बिछड़ने की आशंका से दुखी हूँ। इनसे मिले लगभग 2 वर्ष तो हो ही चुके हैं, क्या ये भी गुम हो जाएंगे?
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