11.9.10

ईद मुबारक।

गगन में ईद का, घर में
तीज का चाँद निकला है
आज भारत में घूम कर देखो
हर तरफ चाँद निकला है
...ईद मुबारक।

5.9.10

जंगल राज में शिक्षा व्यवस्था

        
              आज शिक्षक दिवस है। हमारे देश-प्रदेश में शिक्षा के प्रति सभी खूब जागरूक हैं। जहाँ शिक्षक पूरी निष्ठा एवं लगन से विद्यार्थियों को शिक्षित करने में लगे हैं वहीं विद्यार्थी भी तन-मन से अध्ययनरत हैं। शासकीय एवं प्रशासनिक स्तर पर भी शिक्षा के क्षेत्र में खूब ईमानदारी देखने को मिलती है। अधिकारी-कर्मचारी मनोयोग से  रात-दिन मेहनत कर रहे हैं। परिणाम भी आप सभी के सामने है लेकिन अचानक से मेरे दिमाग में एक खयाल आया कि इन दो पायों से इतर, जरा जंगल में घूमा जाय और वहाँ कि शिक्षा-व्यवस्था पर ध्यान दिया जाय ! मैने कल्पना किया कि यदि जंगल राज हो तो वहाँ की शिक्षा व्यवस्था कैसी होगी। इन्हीं सब कल्पनाओं पर आधारित, प्रस्तुत है एक व्यंग्य रचना  जिसका शिर्षक है....

जंगल राज में शिक्षा व्यवस्था 

कीचड़ में फूल खिला
जंगल में स्कूल खुला
चिडि़यों ने किया प्रचार
आज का ताजा समाचार
हम दो पायों से क्या कम !
स्कूल चलें हम, स्कूल चलें हम।

धीरे-धीरे सभी स्कूल जाने लगे
जानवरों में भी 
दो पायों के अवगुन आने लगे !

हंसों ने माथा पटक लिया
जब लोमड़ी की सलाह पर
भेड़िए ने
प्रबंधक का पद झटक लिया !

जंगल के राजा शेर ने
एक दिन स्कूल का मुआयना किया
भेड़िए ने
अपनी बुद्धि-विवेक  के अनुसार
राजा को 
सभी का परिचय दिया.....

आप खरगोशों को ऊँची कूद
घोड़ों को लम्बी कूद
चीटियों को कदमताल कराते हैं
नींद अज़गरी
रूआब अफ़सरी
परीक्षा में बाजीगरी दिखाते हैं
आप हमारे 
प्रधानाचार्य कहलाते हैं !

भेड़िया आगे बढ़ा...

आपका बड़ा मान है, सम्मान है
आपका विषय गणित और विज्ञान है
आप स्कूल से ज्यादा घर में व्यस्त रहते हैं
क्योंकि घर में आपकी
कोचिंग की दुकान है !

शेर अध्यापकों से मिलकर बड़ा प्रसन्न था
वहीं एक कौए को देखकर पूछा-
इनका यहाँ क्या काम ?
भेड़िए ने परिचय दिया....
आप हमारे संगीत अध्यापक हैं श्री मान !
इनकी बोली भले ही कर्कश हो
आधुनिक संगीत में बड़ी मांग है
इन्होने जिस सांग का सृजन किया है
उसका नाम 'पॉप सांग' है !

शेर ने कोने में खड़े एक अध्यापक को दिखाकर पूछा-
ये सबसे दुःखी अध्यापक कौन हैं ?
जबसे खड़े हैं तब से मौन हैं !

भेड़िए ने परिचय दिया....

ये हिन्दी के अध्यापक हैं
कोई इनकी कक्षा में नहीं जाता
हिन्दी क्यों जरूरी है
यह भेड़िए की समझ में नहीं आता !

शेर ने पूछा...
वे प्रथम पंक्ति में बैठे बगुले भगत यहाँ क्या करते हैं ?
मैने देखा, सभी इनसे डरते हैं !
भेड़िए ने कहा.....
इनसे तो हम भी डरते हैं !
ये बड़े कलाकारी हैं
आपके द्वारा नियुक्त
शिक्षा अधिकारी हैं !

शेर ने कहा-
अरे, नहीं S S S..
ये बड़े निरीह प्राणी होते हैं
इनसे डरने की जरूरत नहीं है
तुम्हारे सर पर हमारा हाथ है
तुमसे टकरा सकें
इतनी इनकी जुर्रत नहीं है।

परिचय के बाद
दावत का पूरा इंतजाम था
शेर को 'ताजे मेमने' का गोश्त व 'बकरियाँ' इतनी पसंद आईं
कि उसने भेड़िए को
गले से लगा लिया
बगुलों को ईमानदारी से काम करने की नसीहत दी
स्कूल में चार-चाँद लगाने का आश्वासन दिया
और पुनः आने का वादा कर चला गया।

जाते-जाते
रास्ते भर सोचता रहा...
तभी कहूँ
ये दो  पाए
स्कूल खोलने पर
इतना जोर क्यों देते हैं ! 

31.8.10

दुश्मन.. !


तड़पता है मेरे भीतर
कोई
मुझसा
मचलता है बार-बार
बच्चों की तरह
जिद करता है
हर उस बात के लिए
जो मुझे अच्छी नहीं लगती।

वह
सफेद दाढ़ी वाले मौलाना को भी
साधू समझता है !
जबकि मैं उसे समझाता हूँ ..
'हिन्दू' ही साधू होते हैं
वह तो 'मुसलमान' है !

वह
गंदे-रोते बच्चे को देख
गोदी में उठाकर चुप कराना चाहता है
जो सड़क के किनारे
भूखा, नंगा, भिखारी सा दिखता है !
मैं उसे डांटता हूँ
नहीं s s s
वह 'मलेच्छ' है।

वह
करांची में
आतंकवादियों के धमाके से मारे गए निर्दोष लोगों के लिए भी
उतना ही रोता है
जितना
कश्मीर के अपने लोगों के लिए !
मैं उसे समझाता हूँ
वह शत्रु देश है
वहाँ के लोगों को तो मरना ही चाहिए।

मेरा समझाना बेकार
मेरा डांटना बेअसर
वह उल्टे मुझ पर ही हंसता
मुझे ऐसी नज़रों से देखता है
जैसे मैं ही महामूर्ख हूँ !

अजीब है वह
हर उस रास्ते पर चलने के लिए कहता है
जो सीधी नहीं हैं
हर उस काम के लिए ज़िद करता है
जिससे मुझे हानि और दूसरों को लाभ हो !

मै आजतक नहीं समझ पाया
आखिर उसे
मुझसे क्या दुश्मनी है!

18.8.10

बच्चों ने बेचे गुब्बारे.....!


मेला...



हमने देखे गज़ब नज़ारे मेले में।

लाए थे वो चाँद-सितारे ठेले में।।


बिन्दी-टिकुली, चूड़ी-कंगना

झूला-चरखी, सजनी-सजना

जादू-सरकस, खेल-खिलौने

ढोल-तराने, मखणी-मखणा


मजदूरों ने शहर उतारे मेले में।

हमने देखे गजब नज़ारे मेले में।।


भूखे बेच रहे थे दाना

प्यासे बेच रहे थे पानी

सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ

सपने बेच रहे ज्ञानी


बच्चों ने बेचे गुब्बारे मेले में।

हमने देखे गजब नज़ारे मेले में।।


बिकते खुशियों वाले लड्डू

एक रुपैया दो-दो दोना

हीरे वाली गजब अंगूठी

चार रुपैया चांदी-सोना


अंधियारे दिखते उजियारे मेले में।

हमने देखे गजब नज़ारे मेले में।।

13.8.10

आगे पंद्रह अगस्त कs लड़ाई हौ....... !

एक दिन, एक गरीब / अनपढ़ रिक्शे वाले से बातचीत के दौरान मुझे अनुभव हुआ कि यह शख्स, १५ अगस्त का शाब्दिक अर्थ आजादी ही समझता है न यह कि इस दिन देश आजाद हुआ था. वह कहता है कि आगे १५ अगस्त कs लड़ाई हौ.. तो वह यह कहना चाहता है कि आजादी के लिए संघर्ष तो आगे है. आजादी का अर्थ उसके लिए वह दिन है जब उसे भूखा न सोना पड़े, जब उसके बच्चों को शिक्षा आसानी से उपलब्ध हो, फीस-ड्रेस के लिए तड़फना न पड़े, पांच साल पहले बरसात में गिरी एक कमरे के घर वाली छत फिर से बन जाय, अपनी पत्नी को अस्पताल ले जाय तो उसका  इलाज उसके द्वारा कमाए जा सकने वाले पैसे में ही हो  जाय, उसे कभी कुत्ता काट ले तो इंजेक्शन के लिए मालिक से लिए गए ऊधार को चुकाने के एवज में, महीनों बेगार रिक्शा न चलाना पड़े, आजादी का मतलब तो वह यह समझता है कि जिस रिक्शे को वह दिनभर चलाता है उसे देर शाम मालिक को किराए के पैसे के साथ न लौटाना पड़े. प्रस्तुत है इसी सोच में डूबी एक कविता जिसे मैने काशिका बोली में लिखी है. काशिका बोली यानी काशी में बोली जाने वाली बोली. सभी को स्वतंत्रता दिवस के पावन अवसर पर ढेर सारी बधाई तथा इस ब्लॉग से स्नेह बनाए रखने के लिए आभार.


आगे पंद्रह अगस्त कs लड़ाई हौ.... !


अबहिन तs                                                                
स्कूल में
लइकन कs
नाम लिखाई हौ
फीस हौ
ड्रेस हौ
कापी-किताब हौ
पढ़ाई हौ
आगे.......
पंद्रह अगस्त कs लड़ाई हौ।


तोहरे घरे
सावन कs हरियाली होई बाबू
हमरे घरे
महंगाई कs आंधी हौ
ई देश में
सब कानून गरीबन बदे हौ
धनिक जौन करैं उहै कानून हौ
ईमानदार 
भुक्कल मरें
चोट्टन कs चांदी हौ

कहत हउआ
सगरो सावन कs हरियाली हौ ?
रिक्शा खींचत के प्रान निकसत हौ बाबूssss
देखा....
कितनी खड़ी चढ़ाई हौ !

एक्को रूपैय्या कम न लेबै भैया
आगे...
पंद्रह अगस्त कs लड़ाई हौ !

8.8.10

आजादी के 63 साल बाद.....



एक जनगणना मकान

एक प्राचीन शहर। बेतरतीब विकसित एक मोहल्ले की गलियाँ। गलियों में एक मकान । मकान के दरवाजे पर कुण्डी खड़खड़ाता, देर से खड़ा एक गणक । उम्र से पहले अधेड़ हो चुकी एक महिला घर से बाहर निकलती है-
का बात हौ..?
क्या यह आपका मकान है ?
हाँ, काहे ?
देखिए, हम जनगणना के लिए आये हैं, जो पूछें उसका सही - सही उत्तर दे दीजिए.
ई जनगणना का होला..?
गणक समझाने का प्रयास करता है कि इस समय पूरे देश में मकानों की और उन मकानों में रहने वाले लोगों की गिनती हो रही है. सरकार जानना चाहती है कि हमारे देश में कुल कितने मकान हैं, कितने पुरुष हैं, कितनी महिलाएं हैं, कितने बच्चे हैं .....
वह बीच में ही बात काट कर पूछती है...
ऊ सब त ठीक हौ मगर ई बतावा कि एहसे हमें का लाभ हौ..? का एहसे हमरे घरे पानी आवे लगी ? बिजली कs बिल माफ़ हो जाई ? लाईन फिर से जुड़ जाई ?....तब तक दो चार महिलायें और जुड़ जाती हैं.. हाँ भैया, एहसे का लाभ हौ ?

प्रश्नों से घबड़ाया गणक अपना पसीना पोछता है, प्यास के मारे सूख चुके ओठों पर अपनी जीभ फेरता है और फिर से सबको समझाने का प्रयास करता है..

देखिए, जैसे आपको रोटी पकाने के लिए आंटा गूंथना पड़ता है तो आप कैसे गूथती हैं .? कितना आंटा गूथेंगी ? जब तक आपको यह न मालूम हो कि घर में कितने लोग खाने वाले हैं ? वैसे ही सरकार यह जानना चाहती है कि अपने देश में कितने लोगों के लिए योजना बनायें, कितने स्कूल खोले जायं, कितने अस्पताल बनायें, कितनी सड़क, कितने मकान की आवश्यकता है, जो मकान हैं उनमें लोग कैसे रहते हैं..? मकान कैसा है, बिजली पानी है कि नहीं , जब तक सरकार को पूरी स्तिथि की जानकारी नहीं होगी वह कैसे अपनी योजनायें बनायेगी..! ईसीलिये सरकार हर १० वर्ष में अपने देश की मकान गणना और जनगणना कराती है.

मतलब एकरे पहिले भी जनगणना भयल होई ! अबहिन ले सरकार का उखाड़ लेहलस ? कम से कम हर घरे में बिजली पानी त मिलही जाएके चाहत रहल ! हम समझ गैली तोहरे जनगणना से हम गरीबन कs कौनो भला होखे वाला नाहीं हौ. सब बेकार हौ....

अरे, अभी आप नहीं बतायेंगी तो भविष्य में भी कोई लाभ नहीं होगा. जनगणना नही होगी तो मतदाता पहचान पत्र कैसे बनेगा ? वोटर लिस्ट में कैसे नाम चढ़ेगा ?

अच्छा तs ई सब वोट खातिर होत हौ..! हमें नाहीं करावे के हौ जनगणना, हमार समय बर्बाद मत करा, अब ले तs हम दुई घरे कs बर्तन मांज के आ गयल होइत.

सरकार पर, सरकारी कर्मचारियों की बातों पर, सरकारी योजनाओं पर, देश की राजनीति और नेताओं पर गरीब जनता का इतना अविश्वास देख गणक हैरान था. अपना हर वार खाली होते देख वह पूरी तरह झल्ला चुका था. अंत में हारकर उसने ब्रह्मास्त्र ही छोड़ दिया...

देखिए, अगर आपने सहयोग नहीं किया तो हमें मजबूर हो कर लिख देना पड़ेगा कि इस मकान के लोगों ने कोई सहयोग नहीं किया फिर पुलिस आके पूछेगी, तब ठीक है..?

तीर ठीक निशाने पर बैठा .
अच्छा तs बताना जरूरी हौ..?
कब से तो कह रहा हूँ . आप लोगों की समझ में ही नहीं आ रहा है. हाँ भाई हाँ, बताना जरूरी है.
एहसे हमार कौनो नकसान तs ना हौ !
नाहीं.
अच्छा तs पूछा, का जाने चाहत हौवा..?

क्या यह आपका मकान है ?
हाँ.
यहाँ कितने लोग रहते हैं ?
चार .
घर के मुखिया का नाम ?
कतवारू लाल ..
इनकी पत्नी का नाम ?
अरे, उनकर शादी ना भयल हौ. पागल से के शादी करी ? देखा सुतले हउवन... गणक ने एक कमरे वाले जीर्ण-शीर्ण घर के भीतर झाँक कर देखा. एक कृषकाय ढांचा, खटिये पर पड़ा-पड़ा ऊंघ रहा था. पलट कर पूछा ...
आप इनकी कौन हैं ?
महिला ने बताया..ई हमार बड़का भैया हउवन...!
अच्छा ! और कौन-कौन रहता है यहाँ ?
हमार तीन भैया अउर एक हम .
अउर दो लोगों की शादी हो चुकी है ?
हाँ.
उनके पत्नी-बच्चे ! वे कहाँ हैं ?
उन्हने कs मेहरारू लैका यहाँ नाहीं रहलिन, नैहरे रहलिन.
अरे, अभी नहीं हैं दो-चार दिन में आ जायेंगी ना !..गणक ने जानने का प्रयास किया .
नाहीं sss......चार पांच साल से नैहरे रहलिन. कब अयीहें कौन ठिकाना !
क्यों ? क्या तलाक हो गया है ?
अरे नाहीं ..ई तलाक - वलाक बड़े लोगन में होला. यहाँ खाए के ना अटल तs चल गयिलिन नैहरे.

तब तक दूसरा भाई भी आ गया...

बढ़ी हुई बाल-दाढ़ी, कमर पर मैली लुंगी, बाएं कंधे पर गन्दा गमछा. लड़खड़ाते-डगमगाते हुए आया और आते ही धप्प से बैठते हुए पूछने लगा...

का बात हौ साहब..?

भगवान का लाख शुक्र वह जल्दी ही बात समझ गया या फिर भीतर कमरे से सुन रहा हो...!

क्या करते हो ?
कुछ नाहीं साहब.
अरे ई का करिहें, साल भर से बिस्तर पर बीमार पड़ल हउवन. ..बीच में ही उसकी बहन ने बताया.
क्या तुम्हारी पत्नी तुम्हें छोड़ कर चली गयी है ?
हाँ, मालिक.
क्यों चली गयी ?
गरीबी सरकार.
राशन कार्ड नाहीं बना ?
राशन कार्ड हौ मालिक लेकिन राशन उठाए बदे पैसा ना हौ.
ओफ़ ! तीसरा भाई.? वह क्या करता है ?
मजदूरी सरकार .
उसकी पत्नी बच्चे ?
वोहू यहाँ ना रहलिन.
क्यों ?
गरीबी सरकार.
अच्छा तो आप बतायिए, आप यहाँ क्यों रहतीं हैं ? क्या आप की शादी नहीं हुई ?
शादी भयल हौ, लेकिन हम यहीं रहीला.
काहे ?
उहाँ भी अइसने गरीबी हौ. हमे खियाए बदे हमरे मरद के पास पैसा ना हौ. उनकर नाक, उनकर गरीबी से बहुत लम्बी हौ. बाहर काम करी ला तs उनकर नाक कट जाला. ईहाँ भाई के घरे कम से कम २-४ घरे कs चूल्हा-चौका करके दू रोटी भरे कs कमा लेईला. कइसेहू पेट कट जात हौ साहब. काहे हमरे गरीबी कs हाल जाने चाहत हौवा ? एहसे आपके का लाभ होई ?

गणक उनकी बातों से मर्माहत और भौचक था. उसे शायद अंदाजा नहीं था कि अभी भी अपने देश में इतनी गरीबी है ! पत्नियाँ, पतियों को छोड़ कर नैहर जा कर, बर्तन मांज कर जीवन यापन कर रहीं हैं. घर में रहकर बाहर काम करने में पतियों की इज्जत जाने का खतरा है.! यह कैसी नाक है ! यह कैसा समाज है ! ये कैसी पंचवर्षीय योजनायें हैं जिनका लाभ आजादी के सत्तरवें दशक तक इन ग़रीबों से कोसों दूर है ! यह कैसी व्यवस्था है ! उसने बात का रुख मोड़ा और अपने को जल्दी-जल्दी समेटने की गरज से सीधा-सीधा प्रश्न करना शुरू कर दिया..

घर में नल है ?
नल हौ पर पानी नहीं आवत.
बिजली है ? तार तो लगा है !
बिजली कट गयल हौ, बिल जमा करे बदे पैसा ना हौ.
घर में कितने कमरे हैं ?
यही एक कमरा हौ . बाक़ी आँगन . जौन हौ आपके सामने हौ सरकार. हमार बात सरकार की तरह झूठ नाहीं होला, गरीब हयी सरकार !
कीचन हौ ?
का ?
खाना कैसे पकता है ? गैस के चूल्हे में, मिट्टी के तेल से ?
अरे नाहीं सरकार, कहाँ से लाई गैस, स्टोव ! लकड़ी-गोहरी, बीन-बान के कैसेहूँ बन जाला ....
गणक ने जल्दी-जल्दी अपना फ़ार्म पूरा किया, रूमाल से माथे का पसीना पोंछा और लम्बी साँसें लेता हुआ घर से बाहर निकला. उसके मुंह से एक वाक्य आनायास निकल गया ...गरीबी हौ सरकार.!

1.8.10

सावन की बरसात



बादल-बिजली गड़गड़-कड़कड़ चमके सारी रात।
टिप्-टिप्-टिप्-टिप्, टिप्-टिप्-टिप्-टिप् सावन की बरसात।।

खिड़की कुण्डी खड़ख़ड़-खड़खड़ सन्नाटे का शोर
करवट-करवट जागा करता मेरे मन का चोर

मेढक-झींगुर जाने क्या-क्या कहते सारी रात।
टिप्-टिप्-टिप्-टिप्, टिप्-टिप्-टिप्-टिप् सावन की बरसात।।

अँधकार की आँखें आहट और कान खरगोश
अपनी धड़कन पूछ रही है तू क्यों है खामोश

मिट्टी की दीवारें लिखतीं चिट्ठी सारी रात।
टिप्-टिप्-टिप्-टिप्, टिप्-टिप्-टिप्-टिप् सावन की बरसात।।

बूढ़े वृक्षों पर भी देखो मौसम की है छाप
नई पत्तियाँ नई लताएँ लिपट रहीं चुपचाप

जुगनू-जुगनू टिम-टिम तारे उड़ते सारी रात।
टिप्-टिप्-टिप्-टिप्, टिप्-टिप्-टिप्-टिप् सावन की बरसात।।

टुकुर-टुकुर देखा करती है सपने एक हजार
पके आम के नीचे बैठी बुढ़िया चौकीदार

उसकी मुट्ठी से फिसले है गुठली सारी रात।
टिप्-टिप्-टिप्-टिप्, टिप्-टिप्-टिप्-टिप् सावन की बरसात।।