25.7.10

सरकारी अनुदान



झिंगुरों से पूछते, खेत के मेंढक 

बिजली कड़की
बादल गरजे
बरसात हुयी

हमने देखा
तुमने देखा
सबने देखा

मगर जो दिखना चाहिए 
वही नहीं दिखता !

यार ! 
हमें कहीं, 
वर्षा का जल ही नहीं दिखता !


एक झिंगुर 
अपनी समझदारी दिखाते हुए बोला-

इसमें अचरज की क्या बात है !

कुछ तो 
बरगदी वृक्ष पी गए होंगे

कुछ 
सापों के बिलों में घुस गया होगा

मैंने 
दो पायों को कहते सुना है

सरकारी अनुदान
चकाचक बरसता है 
फटाफट सूख जाता है !

हो न हो
वर्षा का जल भी 
सरकारी अनुदान हो गया होगा..! 






( चित्र गूगल से साभार )

18.7.10

एक अभागी सड़क




धकधक पुर से व्यस्त चौराहा होते हुए
शहर तक जाने वाली
अभागी सड़क
तू ही बता


तू कहाँ से आई है  ?

मैं कोई सरकस का बाजीगर तो नहीं
जो मौत के कुएँ में जाकर
मोटर साइकिल के करतब दिखाकर
हँसता हुआ बाहर चला आऊँ...!

पर्वतारोही या खन्दकावरोही  भी नहीं 
जो चढ़ने - उतरने, दौड़ने-भागने का आदी हो 
सामान्य नागरिक हूँ 
सीधी-सादी सडक पर ही चलना जानता हूँ 
तुम्हारे जख्मों को ठीक नहीं कर सकता 
तुम्हारी मरहम पट्टी के लिए
तुम्हारे आशिक की तरह
सड़क जाम कराने के आरोप में
जेल नहीं जा सकता
तो क्या यहाँ बैठकर
दो  बूँद आँसू भी नहीं बहा सकता...!

ऐ अभागी सड़क...!
तेरी स्थिति बड़ी दुखदायी है
तू ही बता तू कहाँ से आई है...?

दिल्ली या मुम्बई की तो तू
हो नही सकती
गुजरात के भूकंप की तरह चरमराई
दंगों की तरह शर्माई
दिखती तो है
पर गुजरात की ही हो
यह जरूरी नहीं .

तू कश्मीर की तरह घायल है
मगर तेरे जिस्म से
खून की जगह निकलते
गंदे नाली के पानी को देखकर निश्चित रूप से कहा जा सकता है
कि तू
कश्मीर की भी नहीं है.

नहीं
तू दक्षिण भारत की सुनामी लहरों की बहाई  भी नहीं
भ्रष्टाचार की गंगा में डूबी-उतराई है
तेरे जिस्म में कहीं ऊँचे पहाड़ तो कहीं गहरी खाई है
लगता है तू
बिहार से भटककर
बनारस में चली आई है.

अब तुझ पर से होकर नहीं गुजरते
रईसों के इक्के
या फिर
फर्राटे से दौड़ने वाले
गाड़ियों के मनचले चक्के
अब तो इस पर घिसटते हैं
सांड, भैंस, गैये
या फिर
मजदूरी की तलाश में भागते
साइकिल के पहिये .

मैं जानता हूँ कि तू कभी ठीक नहीं हो सकती
क्योंकि तू ही तो
अपने रहनुमा के थाली की
कभी ख़त्म न होने वाली
मलाई है.

ऐ अभागी सड़क
तू
आधुनिक भारत के विकास की सच्चाई है
तू ही बता
बिगड़ी संस्कृति बन
मेरे देश में
कहाँ से चली आई है..!








11.7.10

लम्बी कविता, छोटी कहानी




घर 

बचपन में कई घर थे
सभी करते थे उसे
भरपूर प्यार
एक में रहता तो दूसरा आवाज देता...
कहाँ हो यार..?
चाचा बुलाते तो बाबा जाने न देते
मानों उसके जाते ही फ्यूज  हो जायेंगे
सारे बल्ब !

किशोर  होते ही
पैरों में 'घूमर'
बाँहों में 'पंख' लगने लगे
घर के रोम-रोम उसकी जुदाई से डरने लगे !

उसे याद है
जब भी वह देर से आता
घर का कोना-कोना, पूरे मकान को सर पर उठाए
हांफता - चीखता  मिल जाता !

दरवाजे
गुस्से से लाल-पीले बाउजी
खिड़कियाँ
झुंझलाई बहनें
बरामदे
चिंता के सागर में डूबी
माँ की आँखें .

पिटने के बाद भी
यह  एहसास उसे खुशियों से भर देता
कि यह घर
उससे बेहद प्यार करता है.

जवान होते ही
घर
उंगलियों में सिमट कर रह गए
नए मिले
पुराने खो गए
पास के दूर
दूर के पास हो गए
ताने मिलते तो बहाने बन जाते ...
कोई कहता,  "बे ईमान हो गया !"
कोई कहता,  "अपने ही घर में, दो दिन का मेहमान हो गया !"

इन सबसे अलग
दूर गली में
एक घर वो भी था जिसकी दीवारों में
ईंट के स्थान पर चुम्बक जड़े थे
जिसके दरवाजे पर सूरज उगता और ढल जाता

छत
इन्द्रधनुषी रंगों से रंगी होती
खिड़कियाँ
चाँदनी से नहाई  होतीं
घर
जिसके एहसास से ही दिल में चाँद उतर आता

वह रातभर
नीद में चलता रहता
दिनभर
उसी के खयालों में खोया रहता

भोर गुलाबी
दिन
शर्मीले
रातें ....
जाफरानी हो जाती
जिंदगी
उस गली में
दीवानी हो जाती !

प्यार हद से बढ़ा तो दोनों
बेखबर हो गए
जुदा थे
कई घर थे
एक होते ही
बेघर हो गए !

भुगतनी पड़ी
लम्बी
प्यार की खता
इक-दूजे  की आँखों  में ढूंढ कर
बच्चों के  फॉर्म में  भरते रहे
धर्म
जाति
स्थाई पता !

आँधियों में बालू के घर ढह जाते हैं
ताश के महल उड़ जाते हैं
प्यार झूठा हो तो जिन्दगी
मुठ्ठी से रेत की तरह फिसल जाती है
प्यार सच्चा हो
तो नई इमारत फिर से खड़ी हो जाती है

दोनों ने एक दुसरे का बखूबी साथ निभाया
हर इम्तहान में खरे उतरे
अपनी मेहनत से
एक खूबसूरत मकान खड़ा कर दिया
और शुरू कर दी
मकान  को घर बनाने की अंतहीन प्रक्रिया...

कोशिश ही कोशिश में
क्या से क्या हो गए
बच्चे बड़े
वे
बूढ़े हो गए !

देखते ही देखते
बच्चों ने
अपनी अलग दुनियाँ बसा ली
भारी मन से
घर ने घर को
सदा खुश रहने की दुआ दी

जिन्दगी फिर बे नूर हो गई
दिन की रोशनी
रात की चाँदनी
कोसों  दूर हो गई

खुशियों के पल एलबम में सजने लगे
घर के जख्म
फिर उन्हें
बेदर्दी से
कुरेदने लगे

मौसम  की मेहरबानी से
इन्द्रधनुष
कभी कभार
इक-दूजे की आँखों में दिख जाते हैं
तो वक्त की बदली
उसे
झट से ढक लेती है

कभी छत चूने लगती है
कभी कोई नींव
हौले से
धंसने लगती है

घर...!
ऐ  जिन्दगी..!
तू आजकल मेरे ख़यालों में रोज  आती है .

बांधना चाहता था तुझे गीतों में मगर
तू तो
कहानी की तरह
फैलती ही चली जाती है.....!


4.7.10

एक घर वह था




एक दिन वह था 
जब मैं 
अपने ही घर की छत पर 
छोटे-छोटे गढ्ढे बना दिया करता था 
हम उम्र साथियों के साथ कंचे खेलने के लिए !


एक दिन यह है 
जब मैं 
अपने घर की दीवारों में
कील ठोंकते डरता हूँ 


एक दिन वह था 
जब मैं 
बरसात में छत टपकने का मजा लेता था 


एक दिन यह है 
जब मैं 
दीवारों में हलकी सी सीलन  देख 
चढ़ जाता हूँ छत पर !


एक घर वह था 
जो मुझसे डरता रहता था 
एक घर यह है 
जिससे मैं डरता रहता हूँ 


एक घर वह था 
जो मुझे संभालता था 
एक घर यह है 
जिसे मुझे संभालना पड़ता है 


एक घर वह था 
जहाँ मैं रहता था 
एक घर यह है 
जो मुझमें रहता है |

27.6.10

मैं न भीगा ....!



शाम जब बारिश हुई


झम झमा झम ... झम झमा झम ....झम झमा 


झम ... झम।


मैं न भीगा ... मैं न भीगा ..... मैं न भीगा 


तान  कर छतरी चला था


मैं न भीगा।



भीगी सड़कें, भीगी गलियाँ, पेड़-पौधे, सबके घर 


आंगन


और वह भी, नहीं था जिसका जरा भी, भीगने का मन


मैं न भीगा ... मैं न भीगा .... मैं न भीगा


तान कर छतरी चला था


मैं न भीगा।



चाहता बहुत था भीग जाऊँ....



झरती हुई  हर बूँद की स्वर लहरियों में उतराऊँ......


टरटराऊँ 


फुदक उछलूँ 


खेत की नव-क्यारियों में


कुहुक-कुहकूँ बनके कोयल 


आम की नव डालियों में


झूम कर नाचूँ, जैसे नाचते हैं मोर वन में




उड़ जाऊँ


साथ  लाऊँ


एक बदली 


निचोड़ूँ तन पे अपने


भीग जाऊँ 


तरबतर हो जाऊँ ....




हाय लेकिन मैं न भीगा !





सोचता ही रह गया

देखता ही रह गया

फेंकनी थी छतरिया

तानता ही रह गया 



सामने बहता  समुंदर 

एक कतरा पी न पाया

उम्र लम्बी चाहता था

एक लम्हां जी न पाया





तानकर छतरी चला था



मोह में मैं पड़ा था


मुझसे मेरा मैं बड़ा था


मैं न भीगा .... मैं न भीगा .... मैं न भीगा।




शाम जब बारिश हुई


प्रेम की बारिश हुई


मैं न भीगा ...मैं न भीगा ...मैं न भीगा 

20.6.10

बोझ



( यह कविता इस अवधारणा पर आधारित है कि मृत्यु यकबयक नहीं आती, यमराज ले जाने से पहले बार-बार सुधरने का मौका देते हैं )


अलसुबह
दरवाजे पर दस्तक हुई .
देखा..
सामने यमराज खड़ा है !

मारे डर के घिघ्घी बंध गई
बोला..
अभी तो मैं जवान हूँ
कवि सम्मेलनों का नया-नया पहलवान हूँ
आपको कोई दूसरा दिखा नहीं !
जानते हैं, मैने अभी तक कुछ लिखा नहीं।
क्या गज़ब करते हैं !
कवि क्या बिना लिखे मरते हैं ?

यमराज सकपकाया
मेरा परिचय जान घबड़ाया
मैं तुझे नहीं झेल सकता
नर्क में भी, नहीं ठेल सकता
मगर आया हूँ तो खाली हाथ नहीं जाऊँगा
अभी तेरे बालों की कालिमा लिये जा रहा हूँ
भगवान ने आदेश दिया तो फिर आऊँगा !

सुनते ही मैं खुश हो गया
सोचा वाह कितना अच्छा है कि कवि हो गया
बोला-
जा, ले जा, तू भी क्या याद करेगा !
मैं सफेद बालों से ही काम चला लूँगा
स्पेशल हेयर डाई लगा लूँगा।

कुछ वर्षों के बाद
दरवाजे पर फिर दस्तक हुई
खोला, देखा, काँप गया
वही यमराज खड़ा है भांप गया।

हिम्मत जुटा कर बोला-
आइये-आइये
मैंने दो-चार कविता लिखी है
सुनते जाइये
वह सुनते ही रोने लगा
मुझे लगा उसे भी कुछ-कुछ होने लगा।
दुःखी होकर बोला यमराज
मुझे माफ करना कविराज
मैं आना नहीं चाहता
मगर तेरी मौत यहाँ खींच लाती है
पता नहीं आदमी को पहचानने में
भगवान से बार-बार क्यों चूक हो जाती है !

मगर आया हूँ तो खाली हाथ नहीं जाऊँगा
इस बार तेरे आँखों की थोड़ी रोशनी ले जाऊँगा !

मैने कहा
जा, ले जा, मैं चश्में से काम चला लूँगा
मगर फिर आया तो अपनी सारी नई कविता तुझे सुना दूँगा
सुनते ही यमराज भाग गया
इस तरह मेरा भाग्य, फिर जाग गया।
कुछ वर्षों बाद वह फिर आया
अबकी बार मेरे दो दांत उखाड़ ले गया
मैंने तुरंत नकली दांत लगा लिया।

सोचता हूँ
फिर आया तो क्या करूँगा
कौन सा अंग दे उसे संतुष्ट करूँगा !

सोचता हूँ
अब आए तो उसके साथ चल दूँ
हाथ-पैर सलामत रहे तभी जाना अच्छा है
आज बेटा भी तभी तक प्यार करता है
जब तक छोटा बच्चा है।

सुना है
समाज में लाचार जिस्म
परिवार वालों के लिए बोझ होता है
अब कौन उसे ताउम्र प्रेम से ढोता है
उड़ने लगे गगन में रिश्ते जमीन से
डरने लगे प्रमोद अपने प्रवीन से।

सुना है
यहाँ पति, पत्नी को

पत्नी, पति को
भाई, भाई को
बेटा, बाप को धोखा देता है
किस्मत वालों को ही ईश्वर
सही सलामत जाने का मौका देता है।

सोचता हूँ
अब आये तो चल दूँ।

हाथ-पैर सलामत रहे तभी जाना अच्छा है
आज बेटा भी
तभी तक प्यार करता है
जब तक छोटा बच्चा है।

13.6.10

बहत्तर वर्षीय बुजुर्ग


धूप से उज्ज्वल सफ़ेद बाल
गाल
जैसे कश्मीरी सेव
लाल-लाल

मार्निंग वॉक में मिले
एक बहत्तर वर्षीय बुजुर्ग
अपनी धुन में मस्त
तेज थी उनकी चाल !

मैंने छेड़ा...
श्रीमान,
वृद्ध होकर भी आप दिखते हैं जवान !
अपने चिर युवा होने का राज बताइये ?
जरा धीरे चलिए
मुझे यूँ न दौड़ाइए !

अँधेरा छटते ही
बूढ़ा सूरज
चिड़ियों की तरह चहचहाने लगा

सामान्य परिचय के बाद
अपनी कहानी और जीवन दर्शन
हँसते हुए
यूँ सुनाने लगा..

पाँच वर्ष पहले
पत्नी का स्वर्गवास हो गया
अकेला हूँ, विश्वास हो गया.

एक वर्ष पहले
तीसरा सबसे छोटा बेटा भी
अपने दो बड़े भाइयों की तरह
बहू की आँखों का तारा हो गया
अपना घर बसा कर
गृहस्थी का मारा हो गया
देखते ही देखते
बहुत बड़ा हो गया
अपने पैरों पर खड़ा हो गया .

दो बेटियाँ थीं
दोनों की शादी कर दी
अब घर में कोई शोर नहीं है
सर में कोई बोझ नहीं है
प्रभु भजन में कोई रोक नहीं है

सभी मुझे अपने घर बुलाते हैं
मगर मैंने सभी से कह दिया है
यहीं रहूँगा .

बड़ी मेहनत से
तीस साल पहले यहाँ घर बनाया था
इसमें मेरी पत्नी की यादें बसती हैं
इसमें मेरे बच्चों की
मौन किलकारियाँ गूँजती हैं
इसकी हर ईंट
मेरे संघर्ष की सीमेंट से जुडी है
इसे छोड़कर कहीं नही जाऊँगा .

यहाँ हर तरफ मौज ही मौज है
जितना जीना था जी लिया
अब तो हर सांस बोनस है
मैं हर पल
जिंदगी का मजा ले रहा हूँ
ईश्वर को धन्यवाद दे रहा हूँ

अच्छा, अब चलूँ ...!
हर रोज इस मार्ग से प्रवेश करता हूँ ..
नमस्कार !

हाँ, हाँ, जानता हूँ.....
बाग में प्रवेश करने का
वह छोटा और सीधा रास्ता है
मगर आदत से लाचार हूँ
अपने द्वारा निर्धारित मार्ग और सिद्धांतों पर ही चलना पसंद करता हूँ
नमस्कार.....!!

इतना कह कर
मुस्कुराते, हाथ हिलाते,
वे चले गए
मैं अपलक
देर तक
उन्हें जाते देखता रहा .

ठीक वैसे ही
जैसे कोई मझधार में फंसा व्यक्ति
किनारों को
हसरत भरी निगाहों से देखता है.

( चित्र गूगल से साभार )