आज मन कुछ आध्यात्मिक हो रहा है . मैंने भी नवगीत की तर्ज पर एक भजन लिखा है जिसे आज पोस्ट करता हूँ . आपकी प्रतिक्रिया मुझे राह दिखाती है . प्रस्तुत है भजन ......
तू है कौन, कौन हैं तेरे
ताल-तलैया पी कर जागा
नदी मिली सागर भी मांगा
इतनी प्यास कहाँ से पाई
हिम से क्यों मरूथल तक भागा
क्यों खुद को ही, रोज छले रे
तू है कौन, कौन हैं तेरे
सपनों को अपनों ने लूटा
एक खिलौना था जो टूटा
छोड़ यहीं सब झोला-झंखड़
चल निर्जन में यह जग झूठा
भज ले राम, राम हैं तेरे
तू है कौन कौन हैं तेरे
घट पानी का पनघट ढूँढ़े
भरे लबालब मद में डूबे
सर चढ़ कर जब लगे डोलने
ठोकर खाए खट से फूटे
जो संभले वो पार लगे रे
तू है कौन कौन हैं तेरे।
बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
ReplyDeleteघट पानी का पनघट ढूँढ़े
ReplyDeleteभरे लबालब मद में डूबे
सर चढ़ कर जब लगे डोलने
ठोकर खाए खट से फूटे
बहुत अच्छी कविता।
तू है कौन कौन हैं तेरे।
ReplyDeleteसही अर्थ समझाने का अच्छा प्रयास ।
bhav poorn geet accha laga..........
ReplyDeleteshubhkamnae.............
bahut uttam prastuti.
ReplyDeleteघट पानी का पनघट ढूँढ़े
भरे लबालब मद में डूबे
सर चढ़ कर जब लगे डोलने
ठोकर खाए खट से फूटे
जो संभले वो पार लगे रे
तू है कौन कौन हैं तेरे।
padh kar anand aya, aur bhajan likhen.
सपनों को अपनों ने लूटा
ReplyDeleteएक खिलौना था जो टूटा
छोड़ यहीं सब झोला-झंखड़
चल निर्जन में यह जग झूठा......
बहुत खूब....बधाई.
बहुत सुंदर, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
सुन्दर !!!!
ReplyDeletebechain aatma jhalakti hai
ReplyDeleteये अंदाज़ भी खूब रहा देवेन्द्र जी...आप हरफ़नमौला हैं सरकार।
ReplyDelete"घट पानी का पनघट ढूँढ़े
भरे लबालब मद में डूबे
सर चढ़ कर जब लगे डोलने
ठोकर खाए खट से फूटे"
बहुत सुंदर पंक्तियाँ...
मार्च का अंतिम महिना, ???? भाई कुछ समझ नही आया ??
ReplyDeleteआप की रचना बहुत सुंदर लगी, बहुत सुंदर भाव.
धन्यवाद
खूबसूरत शब्दों और भावों से सजी सुंदर रचना...अच्छी कविता लगी...बधाई देवेन्द्र जी
ReplyDeleteapki rachna padh kar bahut acchha laga aur adhyatam ki taraf jhukav bhi..
ReplyDeleteaur apki bhawani didi wali rachna bhi man ko chhu gayi...2-3 bar padhne ka man kiya.
भाटिया जी...सुधार दिया है...शुक्रिया.
ReplyDeletehumaari recording bhi lagaani thi naa .abhi tak mili nahi aapko ??????????????
ReplyDeleteबहुत सही बात कही १६ तारीख से नव वर्ष की शुरुवात हो रही है पर आज के लोगों में से कितने ही लोगों को ये पता भी नहीं होगा
ReplyDeleteअंतिम पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं
घट पानी का पनघट ढूँढ़े
भरे लबालब मद में डूबे
सर चढ़ कर जब लगे डोलने
ठोकर खाए खट से फूटे
जो संभले वो पार लगे रे
तू है कौन कौन हैं तेरे।
बहुत अच्छी रचना .यहाँ कोई अपना नहीं है ,सब अकेले हैं ,अपनी अपनी दुनिया में हेर कोई खोया है .मगर एक विडंबना है की हर कोई दूसरे से कुछ पाने की आस लगाए रहता है.
ReplyDeleteयह संसार तब छूट जाता है जब मन का यह मेरा-तेरा भ्रम छूट जाता है.इसे छोडकर कहीं जंगल या किसी एकांत जगह जाने की कोई आवश्यकता नहीं है.
सुन्दर भावों की सुंदर सी कविता
ReplyDeleteसपनों को अपनों ने लूटा
ReplyDeleteएक खिलौना था जो टूटा
छोड़ यहीं सब झोला-झंखड़
चल निर्जन में यह जग झूठा.
वाह बहुत सुन्दर भजन है। बधाई।
ताल-तलैया पी कर जागा
ReplyDeleteनदी मिली सागर भी मांगा
इतनी प्यास कहाँ से पाई
हिम से क्यों मरूथल तक भागा
क्यों खुद को ही, रोज छले रे
तू है कौन, कौन हैं तेरे..
kya kamal ki rachna hai..!
bahoot khoob wali baat hai ji
ReplyDelete"तू है कौन कौन हैं तेरे।"
ye pta chal gaya to atma ki bechaini hi kho jaayegi...........
kunwar ji
बेहतरीन प्रस्तुति,धन्यवाद भाई जी.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई!
ReplyDeleteछू गयी ।
ReplyDeleteअति-उत्तम.
ReplyDeleteWWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
moko kanha dhundhe hai bande ..kabeer ki yh panktiya yad aa gai aapke dvara rachit bhajan padhkar .bahut hi sundr aur sarthak bhajn .
ReplyDeleteसुन्दर रचन । इतना बड-आ चित्र मत लगाइये ब्लॉग देर से खुलता है ।
ReplyDeleteनवगीत की तर्ज़ पर भजन ? वाह भाई ।
ReplyDeleteसही है अंग्रेजों की नक़ल करने में हमने अपनी अकल नहीं लगाई |भजन बहुत अच्छा लगा
ReplyDeleteवाह.....देवेन्द्र जी जैसे आपकी कवितायेँ लाजवाब होती है भजन भी कहीं जगह नहीं छोड़ता ......बहुत खूब .....!!
ReplyDeleteशायद खुली खिडकियों की ताज़ी हवा का करिश्मा हो .....!!
बहुत खूब... नव संवत्सर 2067 व नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएं |
ReplyDeleteचित्र मत हटाइये...
ReplyDeleteब्लॉग भले ही एकाध मिनट देरी से खुले..
पर इस चित्र को एक नजर ठहर के देखते हैं हम....हमें कोई जल्दी नहीं होती..कमेन्ट करके भागने की....
बाकी बात भजन से पहले..बच्चों की परीक्षाओं की...
उनकी कामयाबी के लिए दुआ करते हैं...
जो संभले वो पार लगे रे
तू है कौन कौन हैं तेरे।
ये दो लाइनें...हमारे लिए भी..
बच्चों के लिए भी......
घट पानी का पनघट ढूँढ़े
ReplyDeleteभरे लबालब मद में डूबे
Bahut hi umdaaaaaaaaah likha hai aapne!!
Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com
प्रभावशाली...आपका भजन कुछ सोचने के लिये प्रेरित करता है.
ReplyDeleteआपको नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें
काफी दिनों बाद आया मगर बहुत अच्छा लगा। आप ने तो नाम ही बदल डाला। आप कैसे है ?
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति के लिये बहुत बहुत बधाई....
aapke blog kee charcha bahut suni thi par aaj aane ka mauka mila... kavita umda hai... ab to nirantar aaya karunga...
ReplyDeleteजीवन में कभी-कभी आध्यात्मिक होना ज़रूरी हो जाता है...और कभी जान कर भी पलायन कर लेना चाहिये....सुन्दर भजन..."
ReplyDeleteप्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com
लगता है, बार-बार गुजरा हूं इन पंक्तियों से। दोपहर के बाद के घाट जैसी अनुभूति। शुद्ध, शांत और सत्य।
ReplyDeleteअच्छा है भाई!
ReplyDeleteघट पानी का पनघट ढूँढ़े
भरे लबालब मद में डूबे
सर चढ़ कर जब लगे डोलने
ठोकर खाए खट से फूटे
जो संभले वो पार लगे रे
तू है कौन कौन हैं तेरे।
गूढ़ व्यंजना है। बधाई!
एक नया रंग नजर आया इस बार..और क्या खूब नजर आया..जैसे कि हर रंग के कुशल चितेरे हैं आप..और रचना को नये स्तर पर ले जाते हैं हर बार..
ReplyDeleteइन पंक्तियों पर पहले भी कई बार रुका कि कुछ कहना संभव नही लगा..और इस बार भी बड़ी देर ठिठका रहा
घट पानी का पनघट ढूँढ़े
भरे लबालब मद में डूबे
सर चढ़ कर जब लगे डोलने
ठोकर खाए खट से फूटे
कितनी दूर तक जाती हैं यह पंक्तियां और इसके भाव..एक जलहीन प्यासे घट का पनघट से वही संबंध होता है जो आत्मा का ईश्वर से होता है..मगर जल पा कर वही घड़ा जल के मद मे पनघट से कितनी जल्दी विमुख हो जाता है..मगर यह नही जानता वह कि यह जल उसका अपना नही है..वह मात्र वाहक है..वैसे तो खाली घड़े सर पर कम ही चढ़ाये जाते हैं..मगर सरचढ़ा घड़ा जब मदमत्त हो कर डोलता है..तो समझिये उसका अंतकाल आ गया..यह शरीर भी बस मिट्टी का खाली घड़ा है बस!
घर-मंदिर मे गाने लायक है यह भजन!!
नवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएं व बच्चों की परीक्षाओं की शुभेच्छा सहित!!
कहाँ हो भाई? आज इस कविता पर आपकी टिप्पणी पढ़ रहा था तो आपकी खूब याद आई।
Deleteदूजी किस्म की अभिव्यक्ति, एक अलग ही रंग !
ReplyDeleteतू है कौन, कौन है तेरे.. की प्रतिध्वनि लगातार गूंज रही है कानों में ! आभार प्रविष्टि के लिए ।
सपनों को अपनों ने लूटा
ReplyDeleteएक खिलौना था जो टूटा
छोड़ यहीं सब झोला-झंखड़
चल निर्जन में यह जग झूठा
बात तो आपकी सही है ... ये जाग झूठा है ... पर अगर निर्जन में भी मन न माना तो क्या होगा ....
बहुत अच्छा लिखा है ...
तू है कौन, कौन है तेरे..
ReplyDeleteKoi kisi ka nahi ye jhoote, nate hain nato ka kya...