...............................................................
थोड़ी लम्बी हो गई है। चाहता तो दो किश्तों में भी प्रकाशित कर सकता था। आप चाहें तो दो बार में पढ़ सकते हैं। पढ़ना शुरू तो कीजिए......
चार वर्षों के लिए मेरा भी बस्ती गमन (1994-1998) हुआ था। बस्ती अयोध्या से लगभग 70 किमी दूर स्थित शहर का नाम है। यहाँ पर रहने से ज्ञान हुआ कि बस्ती के संबंध में मुझसे पहले किसी बड़े लेखक ने लिख दिया है...बस्ती को बस्ती कहूँ तो का को कहूँ उजाड़ ! बड़े लेखकों में यही खराबी होती है कि वे हम जैसों के लिखने के लिए कुछ नहीं छोड़ते। मेरे में भी इस शहर के बारे में अधिक कुछ लिखने की क्षमता नहीं है सिवा इसके कि यह एक दिन के मुख्य मंत्री का शहर है। सबसे अच्छी बात तो बड़े लेखक ने लिख ही दी। छोटे शहरों की एक विशेषता होती है कि आपको कुछ ही दिनो में सभी पहचानने लगते हैं। मानना आपके आचरण पर निर्भर करता है। आचरण की सामाजिक परिभाषा आप जानते ही हैं। कवि समाजिक होना चाहता है मगर हो नहीं पाता। इस शहर में नौकरी पेशा लोगों के लिए जीवन जीना बड़ा सरल है। 4-5 किमी लम्बी एक ही सड़क में दफ्तर, बच्चों का स्कूल, अस्पताल, सब्जी, मार्केट, बैंक, डाकखाना, खेल का मैदान सभी है। एक पत्नी. दो बच्चे हों और घर में टी0वी0 न हो तो कम कमाई में भी जीवन आसानी से कट जाता है।
एक दिन कद्दू जैसे पेट वाले वरिष्ठ शर्मा जी मेरे घर पधारे और मार्निंग वॉक के असंख्य लाभ एक ही सांस में गिनाकर बोले, “पाण्डे जी, आप भी मार्निंग वॉक किया कीजिए। आपका पेट भी सीने के ऊपर फैल रहा है !” घबड़ाकर पूछा, “सीने के ऊपर फैल रहा है ! क्या मतलब ? शर्मा जी ने समझाया, “सीने के ऊपर पेट निकल जाय तो समझ जाना चाहिए कि आप के शरीर में कई रोगों का स्थाई वास हो चुका है ! हार्ट अटैक, शूगर, किडनी फेल आदि होने की प्रबल संभावना हो चुकी है।“ शर्मा जी ने इतना भयावह वर्णन किया कि मैं आतंकी विस्फोट की आशंका से ग्रस्त सिपाही की तरह भयाक्रांत हो, मोर्चे पर जाने के लिए तैयार हो गया। डरते-डरते पूछा, “कब चलना है ? शर्मा जी ने मिलेट्री कप्तान की तरह हुक्म सुना दिया, “कल सुबह ठीक चार बजे हम आपके घर आ जाएंगे, तैयार रहिएगा।
मार्निंग वॉक के नाम पर की जाने वाली निशाचरी से मैं हमेशा से चिढ़ता रहा हूँ। ये क्या कि सड़क पर घूमते आवारा कुत्तों के साथ ताल पर ताल मिलाते हुए, मुँह अंधेरे, धड़कते दिल घर से निकल पड़े। चार बजे का नाम सुनते ही मेरी रूह भीतर तक कांप गई। जैसे मेरी भर्ती कारगिल युद्ध लड़ने के लिए सेना में की जा रही हो। मैने पुरजोर विरोध किया, “अरे सुनिए, आप तो मार्निंग वॉक की बात करते-करते निशाचरी का प्रोग्राम बनाने लगे ! रात में भी कोई घूमता है ? मैं क्या रोगी-योगी हूँ ? भोगी इतनी सुबह नहीं उठ सकता ! कुत्ते ने काट लिया तो ? शर्मा जी मेरी तरफ ऐसे देखने लगे जैसे कोई नकल मार कर परीक्षा उत्तीर्ण करने वाला विद्यार्थी, फेल विद्यार्थी को हिकारत की निगाहों से देखता है। जैसे कोई रो-धो कर मिलेट्री की ट्रेनिंग ले चुका जवान नए रंगरूट को पहली बार आते देखता है। फिर समझाते हुए बोले, “पाण्डेय जी, आप तो समझते नहीं हैं। चार बजे घर से नहीं निकले तो देर हो जाएगी। पाँच बजे के बाद तो सब लौटते हुए मिलेंगे।“ मैने फिर विरोध किया, “अरे छोड़िए, सब लौटते हुए मिलें या लोटते हुए ! नाचते हुए मिलें या रोते हुए ! हमें इससे क्या ? हम तो तब चलेंगे जब प्रभात होगा।“ मगर शर्मा जी को नहीं मानना था, नहीं माने। जिद्दी बच्चों की तरह यूँ छैला गए मानो उन्हें जिस डाक्टर ने मार्निंग वॉक की सलाह दिया था, उसी ने 4 बजे का समय भी निर्धारित किया था। बोले, “देखिए आपने वादा किया है ! चलना ही पड़ेगा। चल कर तो देखिए फिर आप खुद कहेंगे कि चार बजे ही ठीक समय है।“ मरता क्या न करता ! हारकर चलने के लिए राजी हो गया । मुझे शर्मा जी ऐसे प्रतीत हुए मानो सजा सुनाने वाला जज भी यही, फाँसी पर चढ़ाने वाला जल्लाद भी यही । जाते-जाते मुझे सलाह देते गए, “एक छड़ी रख लीजिएगा !”
छड़ी क्या मैं उस घड़ी को कोसने लगा जब मैने शर्मा जी से मार्निंग वॉक पर चलने का वादा किया था। मेरे ऊपर तो मुसीबतों का पहाड़ ही टूट गया। शुक्र है कि उन दिनों ब्लॉगिंग का शौक नहीं था लेकिन देर रात तक जगना, टी0वी0 देखना या कोई किताब पढ़ना मेरी आदत रही है। अब ब्लॉगिंग ने टी0वी0 का स्थान ले लिया है। मैं कभी घड़ी देखता, कभी उस दरवाजे को देखता जिससे शर्मा जी अभी-अभी बाहर गये थे। मन ही मन खुद को कोस रहा था कि साफ मना क्यों नहीं कर दिया ! संकोची स्वभाव होने के कारण मेरे मुख से जल्दी नहीं, नहीं निकलता और अब किया भी क्या जा सकता था ! सोने से पहले जब मैने अपना फैसला श्रीमती जी को सुनाया तब उन्हें घोर आश्चर्य हुआ। वह बोलीं, “आज ज्यादा भांग छानकर तो नहीं आ गए ! तबीयत तो ठीक है !! उठेंगे कैसे ?” एक साथ इतने सारे प्रश्नों को सुनकर ऐसा लगा जैसे मिलेट्री में भरती होने से पहले साक्षात्कार शुरू हो गया हो ! बंदूक से निकली गोली और मुख से निकली बोली कभी वापस नहीं आती। अब अपनी बात से पीछे हटना मेरी शान के खिलाफ था। मैं बोला, “आप समझती क्या हैं ? मैं उठ नहीं सकता ! आप उठा के तो देखिए मैं उठ जाउंगा !!” श्रीमती जी मुझे ऐसे देख रही थीं जैसे उस पागल को जो मेरे घर कल सुबह-सुबह मुझसे पैसे मांग रहा था। फिर उन्होंने हंसते हुए कहा, “मैं क्यों उठाने लगी ? क्या मुझे भी घुमाने ले चलोगे !” मैं कभी शर्मा जी को याद करता कभी श्रीमती जी को साथ लिए अंधेरे में घूमने की कल्पना करता। झल्लाकर बोला, “आप रहने दीजिए, मैं अलार्म लगा कर सो जाउंगा।“ मैने सुबह 4 बजे का अलार्म लगाया और बिस्तर में घुस गया। मार्निंग वॉक और कुत्तों की कल्पना करते-करते गहरी नींद में सो गया।
जब मेरी नींद खुली तो पाया कि मेरी श्रीमती जी मुझे ऐसे हिला रही थीं जैसे कोई रूई धुनता हो और शर्मा जी दरवाजा ऐसे पीट रहे थे जैसे रात में उनकी बीबी कहीं भाग गई हो ! मैं हड़बड़ा कर जागृत अवस्था में आ गया। सर्वप्रथम तीव्र विद्युत प्रवाहिनी स्त्री तत्पश्चात टिकटिकाती घड़ी का दर्शन किया। घड़ी में चार बजकर पंद्रह मिनट हो रहे थे ! दरवाजे पर शर्मा जी अनवरत चीख रहे थे ! मैने उठकर ज्यों ही दरवाजा खोला शर्मा जी किसी अंतरिक्ष यात्री की तरह घर के अंदर घुसते ही गरजने लगे, “अभी तक सो रहे थे ? 15 मिनट से दरवाजा पीट रहा हूँ !” जैसे मिलेट्री का कप्तान डांटता है। उनकी दहाड़ सुनकर सुनकर सबसे पहले तो मेरा मन किया, दो झापड़ लगाकर पहले इसे घर के बाहर खदेड़ूं और पूछूं, “क्या रिश्ते में तू मेरा बाप लगता है ?” मगर क्या करता, अपनी बुलाई आफत को कातर निगाहों से देखता रहा। माफी मांगी, कुर्सी पर बिठाया और बेड रूम में जाकर घड़ी देखने लगा। तब तक मृदुभाषिणी दामिनी की तरह चमकीं, “घड़ी को क्यूँ घूर रहे हैं ? मैने ही अलार्म 6 बजे का कर दिया था ! सोचा था न बजेगा न आप उठेंगे !! चार बजे उठना हो तो कल से बाहर वाले कमरे में तकिए के नीचे अलार्म लगा कर सोइएगा और बाहर से ताला लगाकर चले जाइएगा ! मैं 6 बजे से पहले नहीं उठने वाली। अपने शर्मा जी को समझा दीजिए कि रात में ऐसे दरवाजा न पीटा करें।“ मैं सकपकाया। यह समय पत्नी से उलझने का नहीं था। एक जल्लाद पहले से ही ड्राईंगरूम में बैठा था ! दूसरे को जगाना बेवकूफी होती । जल्दी से जो मिला पहनकर बाहर निकल पड़ा। मेरे बाहर निकलते ही फटाक से दरवाजा बंद होने की आवाज सुनकर शर्मा जी मेंढक की तरह हंसते हुए बोले, “हें..हें..हें..लगता है भाभी जी नाराज हो गईं !” मैं उनके अजूबेपन को अपलक निहारता, विचारों की तंद्रा से जागता, खिसियानी हंसी हंसकर बोला, “नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।“
शर्मा जी काफी तेज चाल से चलते हुए एक बदबूदार गली में घुसे तो मुझसे न रहा गया। मैने पूछा, “ये कहाँ घुसे जा रहे हैं ? इसी को कहते हैं शुद्ध हवा ? शर्मा जी बोले, “बस जरा सिंह साहब को भी ले लूँ ! मेरे इंतजार में बैठे होंगे। एक मिनट की देर नहीं होगी। वो तो हमेशा तैयार रहते हैं।“ शर्मा जी बिना रूके, बिना घुमे, बोलते-बोलते गली में घुसते चले गए। अंधेरी तंग गलियों को पारकर वे जिस मकान के पास रूके उसके बरामदे पर एक आदमी टहल रहा था। दूर से देखने में भूत की तरह लग रहा था। हम लोगों को देखते ही दूर से हाथ हिलाया और लपककर नीचे उतर आया। आते ही उलाहना दिया, “बड़ी देर लगा दी !” मैने मन ही मन कहा, “साला.. मिलेट्री का दूसरा कप्तान ! कहीं ‘बड़ी देर हो गई’ सभी मार्निंग वॉकर्स का तकिया कलाम तो नहीं !” मैं अपराधी की तरह पीछे-पीछे चल रहा था और शर्मा जी, सिंह साहब से मेरा परिचय करा रहे थे, “आप पाण्डेय जी हैं। आज से ये भी हम लोगों के साथ चलेंगे।“ सिंह साहब ने मुझे टार्च जलाकर ऐसे देखा मानो सेना में भर्ती होने से पहले डा0 स्वास्थ्य परीक्षण कर रहा हो ! संभवतः इसी विचार से प्रेरित हो मेरी जीभ अनायास बाहर निकल गई ! सिंह साहब टार्च बंदकर हंसते हुए बोले, बड़े मजाकिया लगते हैं ! उनके हाव भाव से मुझे यकीन हो गया कि वे मन ही मन कह रहे हैं, “इस जोकर को कहाँ से पकड़ लाए !”
रास्ते भर सिंह साहब मार्निंग वॉक के लाभ एक-एक कर गिनाते चले गए और मैं अच्छे बच्चे की तरह हूँ, हाँ करता, मार्ग में दिखने वाले अजीब-अजीब नमूनों को कौतूहल भरी निगाहों से यूँ देखता रहा जैसे कोई बच्चा अपने पापा के साथ पहली बार मेला घूमने निकला हो। एक स्मार्ट बुढ्ढा, चिक्कन गंजा, हाफ पैंट और हाफ शर्ट पहन कर तेज-तेज चल रहा था। कुछ युवा दौड़ रहे थे तो कोई शर्मा जी की तरह अंतरिक्ष यात्री जैसा भेषा बनाए फुटबाल की तरह लुढ़क रहा था। शर्मा जी सबको दिखा कर मुझसे बोले, “देख रहे हैं पाण्डे जी ! (मैने सोचा कह दूं क्या मैं अंधा हूँ ? मगर चुप रहा) क्या सब लोग मूर्ख हैं ? देखिए, वो आदमी कितनी तेज चाल से चल रहा है ! चलिए उसके आगे निकलते हैं !! शर्मा जी लगभग दौड़ते हुए और हम सबको दौड़ाते हुए उसके बगल से उसे घूरकर विजयी भाव से आगे निकलने लगे तो वह आदमी जो दरअसल ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़ रहा था, मार्निंग वॉकर नहीं था, हमें रोककर पूछ बैठा, “ आप लोगों को कौन सी ट्रेन पकड़नी है ?” उसके प्रश्न को सुनकर शर्मा जी हत्थे से उखड़ गए, “मैं आपको ट्रेन पकड़ने वाला दिखता हूँ ?” लगता है वो आदमी भी शर्मा जी का जोड़ीदार था। पलटकर बोला, “तो क्या चंदा की सैर पर निकले हो ? चले आते हैं सुबह-सुबह माथा खराब करने !” किसी तरह हम लोगों ने बीच बचाव किया तो मामला शांत हुआ।
हम लोग जब मैदान में पहुँचे तो वहाँ कई लोग पहले से ही गोल-गोल मैदान का चक्कर लगा रहे थे। शर्मा जी, सिंह साहब के साथ यंत्रवत तेज-तेज, गोल-गोल घूमने लगे और मैं एक जगह बैठकर वहाँ के दृष्य का मूर्खावलोकन करने लगा। पूर्व दिशा में ऊषा की किरणें आभा बिखेर रही थीं। सूर्योदय का मनोहारी दृष्य था। मैने बहुत दिनो के बाद उगते हुए सूर्य को देखा था। मेरा मन जगने के बाद पहली बार प्रसन्नता से आल्हादित हो उठा। चिड़ियों की चहचहाहट, अरूणोदय की लालिमा, हवा की सरसराहट ने न जाने मुझ पर कैसा जादू किया कि मैं भी उन्हीं लोगों की तरह गोल-गोल दौड़ने लगा ! दौड़ते-दौड़ते मेरी सांस फूलने लगी। मैं हाँफने लगा मगर देखा, शर्मा जी और सिंह साहब दौड़ते ही चले जा रहे हैं ! मारे शरम के मैं भी बिना रूके दौड़ता रहा। अनायास क्या हुआ कि मेरा सर मुझसे भी जोर-जोर घूमने लगा। मुझे लगा कि मुझे चक्कर आ रहा है ! घबड़ाहट में पसीना-पसीना हो गया और भागकर बीच मैदान में पसर गया ! यह तो नहीं पता कि मुझे नींद आ गई थी या मैं बेहोश हो गया था लेकिन जब मेरी आँखें खुलीं तो मार्निंग वॉकर्स की भीड़ मुझे घेर कर खड़ी थी ! शर्मा जी मेरे चेहरे पर पानी के छींटे डाल रहे थे। एक दिन की मार्निंग वॉकिंग ने मुझे शहर में ऐसी प्रसिद्धि दिला दी थी जो शायद शर्मा जी आज तक हासिल नहीं कर पाए होंगे।
हा हा पूरा खरा उतरा है इस बार का व्यंग लेखन-मूर्खावलोकन ! इन सिरफिरों के चक्कर में कैसे फंस गए ?
ReplyDeleteमस्त लगी जी आप की म्रनिंग वाक, दुसरे दिन तो नही गये होंगे? धन्यवाद
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी पहली बात तो ये कि मैंने लेख को पूरा पढ़ा है. लेख में गंभीर बाते भी सरलता से वर्णित कि गयीं हैं. वर्णन जिवंत लगता है.
ReplyDeleteएक बात और मुख्य बातें तो बड़े लेखकों ने लिख दी, बची खुची पर अब आप हाथ साफ़ हर रहे हैं, सोचिये हमारे लिए क्या बचेगा..?
सुबह कि सैर पर मैंने भी पूर्व में एक लेख लिखा था, यदि थोडा समय निकाल पाएं तो अपनी मूल्यवान राय दे.
लेख का पता
http://arvindjangid.blogspot.com/2010/10/blog-post_08.html
आपका साधुवाद.
मस्त कर दिए प्रभु!
ReplyDeleteआप के चरण कहाँ हैं?
सुबह की सैर पर भी इतना उम्दा व्यंग्य लिखा जा सकता है! कमाल है!!
जाने कितनी फुलझड़ियाँ बिखरी पड़ी हैं। ...लम्बी तो एकदम नहीं है।
मेरा एक सहपाठी बस्ती का है, सुबह सुबह टहलता भी है क्यों कि मधुमेह ने पकड़ लिया है। उसे यह बताता हूँ - बस्ती को बस्ती कहूँ तो का को कहूँ उजाड़ !
अपना मोबाइल और पता भेजिए तो। उसे बताना पड़ॆगा। फिर एक बार और आप सुबह की सैर करने निकलेंगे और हमें एक और व्यंग्य पढ़ने को मिल जाएगा(अगर आप का शरीर इस लायक रहा तो।)
__________
ततपश्चात - तत्पश्चात
अरे, वाह रे गिरिजेश भाई केवल एक गलती!
ReplyDeleteपप्पू पास हो गया।
अभी तक चरण वहीं हैं जहाँ मैं हूँ..धरती पर। हाँ, आपकी प्रशंसा से मन पंछी हो गया।
..धन्यवाद।
... kyaa baat hai ... bahut khoob !!!
ReplyDeleteये तो अनायास ही आपको प्रथम विजेता सा सुख भी हासिल हो गया.
ReplyDeleteसुबह उठकर घूमना और मन की मनमानी में छत्तीस का आँकड़ा है, क्या करें मन दबाये बैठा है, आजकल।
ReplyDeleteदेखा न मूर्खावलोकन का फायदा? एक पोस्ज़्ट ठेली गयी। लेकिन मार्निन्ग वाक जरूरी है -- इसे चालू रखिये।
ReplyDelete''ाब ब्लागिन्ग करते हुये तो और भी जरूरी हो गया है। लेकिन श्रीमति जी के साथ न कि शर्मा जी के साथ। अच्छा लगा व्यंग। आभार।
आपकी प्रसिद्धि एक ही दिन में ..बहुत बढ़िया व्यंग ..
ReplyDeleteआपके इस प्रातःभ्रमण की परिणति देखकर यह विचार मस्तिष्क में आया कि मैं इस रोग से बचा हूँ और शायद अब मॉर्निंग वॉक का रोग मुझसे उतना ही दूर रहने वाला है जितना नोएडा से बस्ती.. कौन सद्गति करवाये!!
ReplyDeleteवैसे मुझे भी यह व्यंग्य लेखन लम्बा तो नहीं लगा... हाँ आपकी वॉक लम्बी रही होगी!
मस्त है, देवेंद्र जी!!
वाह ये हुई ना कोई बात, गजब कर दिया भाई आज तो, यकिन नी होंदा कि मार्निंग वाक ऐसी पोस्ट भी लिखवा सकती है. जींवता रह.
ReplyDeleteरामराम.
व्यंग्य तो बढि़या रहा देवेन्द्र भाई। पर कहीं कहीं ज्यादा ढील दे दी । थोड़ी कसावट चाहिए।
ReplyDeleteतभी तो हम मार्निंग वाक् की जगह इवनिंग वाक् कर लेते है. वाह!!!! लाजवब बस्ती, मार्निग वाक् और ट्रेन पकड़ने के लिए वाक्/रन . हसीं से बुरा हाल हो गया
ReplyDelete”पूर्व दिशा में ऊषा की किरणें आभा बिखेर रही थीं। सूर्योदय का मनोहारी दृष्य था। मैने बहुत दिनो के बाद उगते हुए सूर्य को देखा था। मेरा मन जगने के बाद पहली बार प्रसन्नता से आल्हादित हो उठा। चिड़ियों की चहचहाहट, अरूणोदय की लालिमा, हवा की सरसराहट ने न जाने मुझ पर कैसा जादू किया कि मैं भी उन्हीं लोगों की तरह गोल-गोल दौड़ने लगा”
ReplyDeleteवाह देवेन्द्र जी, हंसी मज़ाक़ के बीच कितने काम की बात कही है आपने.
साधु- साधु :)
ReplyDeleteआप चाहे रहें बेचैन
ReplyDeleteपर उन गलियों को तो पड़ गया चैन
नाम के शर्मा जी
जरा न शर्माए
तभी तो आप इतनी काम की बात
व्यंग्य के माध्यम से बतलाने आये
यूं गंभीर मुद्रा में आते
तो हम भी बिना पढ़े
सुबह सुबह घूमने चले जाते
दिसम्बर के आखिरी महीने में जहां गर्मी रहती है वहां सपरिवार घूमने आना चाहता हूं
लो जी
ReplyDeleteव्यंग्य की टिप्पणी पर भी मॉडरेशन
ब्लॉग की टिप्पणियों का कर रहे हैं
नेशनलाइजेशन
अब जो जब घूमकर आएंगे आप
तभी तो इन टिप्पणियों को
रिलीज कर पाएंगे आप
अविनाश मूर्ख है
बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteअपने कई मित्रों से मार्निंग वाक पर जाने के लिए सैद्धांतिक रूप से कई बार सहमत हुआ पर वे मुझसे प्रैक्टिकल नहीं करा सके कभी :)
अच्छा लगा व्यंग.... मोर्निंग वॉक का रोचक विवरण .....
ReplyDeleteबहुत अच्छे देवेन्द्र जी.....संस्मरण बढ़िया लगा :-)
ReplyDeleteबहुत बढ़िया व्यंग!
ReplyDeleteबहुत अच्छा व्यंग लिखा है आपने
ReplyDeletedilchasp walk subah kee
ReplyDeleteहा हा हा हा...हंसा कर मार डाला आपने...
ReplyDeleteसचमुच लाजवाब रहा आपका भी मोर्निंग वाक्..
आपका लेखन बेमिसाल है...
मैंने तो न जाने कितनी सुबह की सैर की किन्तु आप सा मॉर्निंग वॉक एक बार भी नहीं किया.मजा आ गया.
ReplyDeleteघुघूती बासूती
शर्मा जी मेरी तरफ ऐसे देखने लगे जैसे कोई नकल मार कर परीक्षा उत्तीर्ण करने वाला विद्यार्थी, फेल विद्यार्थी को हिकारत की निगाहों से देखता है। जैसे कोई रो-धो कर मिलेट्री की ट्रेनिंग ले चुका जवान नए रंगरूट को पहली बार आते देखता है।
ReplyDeleteक्या बात है .....कवितायेँ तो माशाल्लाह थीं ही .... अब गद्य में भी कलम तोड़ने लगे ....?
बहुत खूब .....!!
rochak prasang lekhan shailee to masha allah .......kya kahne.....?
ReplyDeleteचिड़ियों की चहचहाहट, अरूणोदय की लालिमा, हवा की सरसराहट ने न जाने मुझ पर कैसा जादू किया कि मैं भी उन्हीं लोगों की तरह गोल-गोल दौड़ने लगा” !!!यह वास्तव में उर्जात्म्क सौन्दर्य है ,पर हमारी जीवन पद्धति ने इसे मुश्किल कर रखा है ! तो फिर क्या सोचा आपने ? चलिए फिर लिखियेगा !
ReplyDeleteमार्निंग वाक !
ReplyDeleteमज़ा आ गया भाई !!
मैं भी बस एक दिन BHU में मार्निग वाक् के लिए गया हूँ मगर वह आज तक याद है !
ReplyDeleteसुन्दर व्यंग्य !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
मार्निंग वाक का अच्छा व्यंग्यात्मक चित्रण । पढ़कर खूब आनंद लिया ।...मन में आया कि मैं भी मार्निंग वाक के लिए निकला करूं लेकिन लेख की अंतिम प्रक्तियां पढ़कर सारा जोश ठंडा पड़ गया।
ReplyDeleteकर ली मार्निंग वाक् .... :-))
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें !
मजेदार मार्निंग वाक। मजमेदार च! फ़िर घूम के आइये और एक बार फ़िर लिखिये।
ReplyDeleteपाण्डेय जी,
ReplyDeleteऐसा संस्मरण तो इससे दुगुना लंबा भी होता तो कम लगता। सच में अब तक हंस रहा हूँ, कप्तान नं. दो के टार्च जलाने पर आपके जीभ निकालने वाली बात पर।
मजा आ गया।
कविता वगैरह के बीच कभी कभार ऐसी पोस्ट भी डालिये, बहुत शानदार लगी।
पोस्ट 2010 में लिखी गयी है और मैं 2012 में पढ़ रही हूँ।
ReplyDeleteआपके शर्मा जी को हमारा भी शुक्रिया जिनकी वजह से आपको सुबह उठने की आदत पड़ गयी और हमें आपकी सुबह सुबह खिंची गयी ,इतनी ख़ूबसूरत तस्वीरें देखने को मिलने लगी हैं।
जारी रखिए अच्छी आदत है ,यह
सुनो पंडित जी ,
ReplyDeleteसानदार जबरजस्त जिंदाबाद !!
व्यंग्य पर लिखना शुरू करें , आपमे प्रतिभा की कोई कमी नहीं ! इसे गंभीर सलाह समझें
पढ़ा था पहले भी, आज पढ़ते हुए मैं लगातार हंसे जा रही थी, ... वाक के नाम से मुझे बड़ी घबराहट होती है, वो भी मॉर्निंग वॉक
ReplyDeleteटी वी की जगह ब्लागिंग ने ले ली है तभी तो अनवरत इतना रोचक और उत्कृष्ट लिख पाते हैं. आनन्द आ गया.
ReplyDeleteआभार।
Deleteआभार।
ReplyDeleteवाह! रोचक व्यंग्य
ReplyDeleteसुंदर व रोचक रचना
ReplyDeleteआपकी मॉर्निंग वॉक ने बहुत सी यादें ताजा कर दी।
ReplyDeleteरोचक संस्मरण ।
लाजवाब लेख है…हंसी रोके नहीं रुक रही थी, क्या लच्छेदार भाषा…बहुत बढ़िया 👍
ReplyDeleteइस लेख को पढ़कर जो खिलखिलाकर ना हँसे, उसे सुबह चार बजे मॉर्निंग वाक पर भेजा जाए।
ReplyDelete( मुझे नहीं, मैं तो हँस हँसकर लोटपोट हो गई)😀
हा हा हा... हँसी रोकना मुश्किल हो गया
ReplyDeleteकमाल का संस्मरण !!!
भगवान करे शर्मा जी रोज चार बजे आपका दरवाजा पीटें और हम आपके लेखन से ऐसे ही लोटपोट होते रहें।🤣🤣