अभी बड़े भाई आदरणीय सतीश जी के ब्लॉग पर यह पोस्ट पढ़ी। कमेंट लिखा तो लगा कविता बन गई ! मन हुआ पोस्ट कर दूँ । आपकी क्या राय है ?
दिल
अपेक्षा की दो बेटियाँ हैं
आशा और निराशा
तीनो जिस घर में रहती हैं उसका नाम दिल है
दिल कांच का नहीं पारे का बना है
टूटता है तो आवाज नहीं होती
जर्रा-जर्रा बिखर जाता है
जुटता है तो आवाज नहीं होती
हौले-हौले संवर जाता है
सब वक्त-वक्त की बात है
कभी हमारे तो कभी
तुम्हारे साथ है
किसी ने कहा भी है..
धैर्य हो तो रहो थिर
निकालेगा धुन
समय कोई।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteदिल कांच का नहीं पारे का बना है
ReplyDeleteटूटता है तो आवाज नहीं होती
जर्रा-जर्रा बिखर जाता है
जुटता है तो आवाज नहीं होती
हौले-हौले संवर जाता है
Kya gazab kee baat kah dee!
अगर अपने प्यारों से मर्म आहत हो जाए तो वाकई असहनीय पीड़ा का अहसास होता है इस कष्ट का वर्णन आसान नहीं देवेन्द्र भाई !
ReplyDeleteथोड़ी देर पहले ही चला बिहारी ...सलिल भाई ने मेरे ब्लॉग पर इसी पोस्ट के सन्दर्भ में एक शेर पोस्ट किया था वही आपकी नज़र है
"तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार नहीं,
जहाँ उम्मीद हो इसकी, वहाँ नहीं मिलता!"
शुभकामनायें आपको !!
सब वक्त-वक्त की बात है
ReplyDeleteकभी हमारे तो कभी
तुम्हारे साथ है
jai baba banaras----
सतीश जी के ब्लाग से होते हुए आपके ब्लाग तक पहुंची हूं ।
ReplyDeleteपहली बार ही आपको पढा । बहुत अच्छा लगा ।
सटिश जी के ब्लाग से पहले,बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteसतीश जी, पढा जाये
ReplyDelete@सब वक्त-वक्त की बात है
ReplyDeleteकभी हमारे तो कभी
तुम्हारे साथ है...
बहुत ऊँची बात कह दी है.
पाण्डे जी!
ReplyDeleteसिक्का गिरने की आवाज़ तो होती है, मगर उठाने की आवाज़ नहीं होती!(श्री के.पी. सक्सेनाः फ़िल्म जोधा अकबर)... हमारे सतीश जी उसी दिल के गिरने की आवाज़ से विचलित हैं, ये नहीं देखते कि हज़ारों प्रशंसक उनका दिल थामे बैठे हैं... भावुक हैं!
आपकी अभिव्यक्ति उनको बल प्रदान करेगी!!
@चाहता तो यही हूँ सलील जी मगर उनका कमेंट देखिए ! अभी भी गम में डूबे हैं।
ReplyDelete
ReplyDeleteआज तो यार दोस्त बड़े मेहरबान लग रहे हैं ..कमाल है !
हमने जब मौसमें बरसात से चाही तौबा !
बादल इस जोर से बरसा कि इलाही तौबा !
तौबा! तौबा!
ReplyDeleteकभी गम से तौबा कभी सनम से तौबा
मर हम गये जब किया मरहम से तौबा।
इसे कहते हैं, ब्लॉग के माध्यम से साहित्य संवर्धन।
ReplyDeleteजीना इसीका नाम है. सतीश जी के ब्लॉग पर जाकर देखती हूँ.
ReplyDelete@ देवेन्द्र भाई ,
ReplyDeleteअपेक्षा की एक बहन भी है , उपेक्षा , जो अपनी 'बहनजाई' निराशा का उतारा करती है ! सतीश जी कहिये कि दो बोल मुहब्बत के उसके साथ भी बोलें !
शर्तिया फायदा होगा :)
अली सर !
ReplyDeleteआप गुरुजन हैं, आपका सुझाव अनुसरणीय हैं ! शुभकामनायें आपको !
सब वक्त-वक्त की बात है.....wakai sunder abhivyakti,ek sampurn post................
ReplyDeleteधैर्य हो तो रहो थिर
ReplyDeleteनिकालेगा धुन
समय कोई।
kya kahne hain............!
दिल कांच का नहीं पारे का बना है
ReplyDeleteटूटता है तो आवाज नहीं होती
जर्रा-जर्रा बिखर जाता है
जुटता है तो आवाज नहीं होती
हौले-हौले संवर जाता है
बहुत खूब देवेन्द्रजी बड़ी खूबसूरती है इन पंक्तियों में ..
सुन्दर रचना...
ये तो बहुत बढिया रहा……………इसी बहाने एक नयी रचना बन गयी …………बहुत ही सुन्दर रचना और सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDeleteaaj aap ne bahut hi badhiya ,dil ki baat kaha di. very good.
ReplyDeleteटूटता है तो आवाज नहीं होती
ReplyDeleteजर्रा-जर्रा बिखर जाता है
जुटता है तो आवाज नहीं होती
हौले-हौले संवर जाता है
क्या बात कही है...बहुत ही बढ़िया...
अभी मैं सतीश जी को पढ़कर आई हूँ ..यहाँ भी वैसा ही मिला ..बहुत अच्छी रचना ..बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
ReplyDeleteबढिया रहा है पोस्ट सही टिप्पणी वार्तालाप.
ReplyDeleteरामराम.
दिल कांच का नहीं पारे का बना है
ReplyDeleteटूटता है तो आवाज नहीं होती
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
बड़े फ़ास्ट कवि हैं। जय हो। क्या कविता है! बधाई!
ReplyDeleteअपेक्षा की दो बेटियाँ हैं
आशा और निराशा
से याद आई कानपुर के कवि उपेन्द्र का यह गीत:
प्यार एक राजा है
जिसका बहुत बड़ा दरबार है
पीड़ी इसकी पटरानी है
आंसू राजकुमार है।
उन्हीं की पंक्तियां हैं:
माना जीवन में बहुत-बहुत तम है,
पर उससे ज्यादा तम का मातम है,
दुख हैं, तो दुख हरने वाले भी हैं,
चोटें हैं, तो चोटों का मरहम है,
मुक्तिबोध की कविता की ये पंक्ति भी याद आ गयी:
दुखों के दागों को तमगों सा पहना। :)
सब वक्त-वक्त की बात है
ReplyDeleteकभी हमारे तो कभी
तुम्हारे साथ है
बहुत सुन्दर बात कही। शुभकामनायें।
इससे हमें यह शिक्षा मिली कि - यदि आशा और निराशा के पचड़े में नहीं पड़ना चाहते तो अपेक्षा यानि उनकी माता से पंगा नहीं लेना चाहिये
ReplyDelete@अनूप...
ReplyDeleteमाना जीवन में बहुत-बहुत तम है,
पर उससे ज्यादा तम का मातम है
...वाह अनूप जी ! आपने तो कवि उपेन्द्र के माध्यम से जीवन का कटु सत्य ही बयान कर दिया! सच है। हम जीवन भर तम का मातम ही मनाते रह जाते हैं और खुशी के क्षणों को वक्त बीत जाने के बाद बड़ी मासूमियत से याद करते हैं कि आह! वो भी क्या दिन थे! ...इस पोस्ट से यूँ जुड़ने के लिए बहुत आभार आपका।
पक्की बात कही आपने......
ReplyDeleteचिंतन को खुराक देती,बहुत ही सुन्दर रचना रची आपने...
आभार..
इसी सिलसिले में निराला जी की कविता याद आती है:
ReplyDeleteदुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूं आज जो कही नहीं।
टूटता है तो आवाज नहीं होती
ReplyDeleteजर्रा-जर्रा बिखर जाता है
जुटता है तो आवाज नहीं होती
हौले-हौले संवर जाता है
सब वक्त-वक्त की बात है
Wah !
चिंतन के गलियारों से उपजे बडे-बडे अमूल्य सुझाव.
ReplyDeleteनैराश्य के दौर में सदा उपयोगी । आभार सहित...
अच्छा लगा कवि और कवि हृदयी जनों का यह जमावड़ा और कविता तो न्यारी प्यारी है ही
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