23.2.11

सतीश सक्सेना के ब्लॉग से लौटकर


अभी बड़े भाई आदरणीय सतीश जी के ब्लॉग पर यह पोस्ट पढ़ी। कमेंट लिखा तो लगा कविता बन गई ! मन हुआ पोस्ट कर दूँ । आपकी क्या राय है ?

दिल

अपेक्षा की दो बेटियाँ हैं

आशा और निराशा

तीनो जिस घर में रहती हैं उसका नाम दिल है

दिल कांच का नहीं पारे का बना है

टूटता है तो आवाज नहीं होती

जर्रा-जर्रा बिखर जाता है

जुटता है तो आवाज नहीं होती

हौले-हौले संवर जाता है

सब वक्त-वक्त की बात है

कभी हमारे तो कभी

तुम्हारे साथ है

किसी ने कहा भी है..

धैर्य हो तो रहो थिर

निकालेगा धुन

समय कोई।
 

35 comments:

  1. दिल कांच का नहीं पारे का बना है

    टूटता है तो आवाज नहीं होती

    जर्रा-जर्रा बिखर जाता है

    जुटता है तो आवाज नहीं होती

    हौले-हौले संवर जाता है
    Kya gazab kee baat kah dee!

    ReplyDelete
  2. अगर अपने प्यारों से मर्म आहत हो जाए तो वाकई असहनीय पीड़ा का अहसास होता है इस कष्ट का वर्णन आसान नहीं देवेन्द्र भाई !

    थोड़ी देर पहले ही चला बिहारी ...सलिल भाई ने मेरे ब्लॉग पर इसी पोस्ट के सन्दर्भ में एक शेर पोस्ट किया था वही आपकी नज़र है
    "तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार नहीं,
    जहाँ उम्मीद हो इसकी, वहाँ नहीं मिलता!"

    शुभकामनायें आपको !!

    ReplyDelete
  3. सब वक्त-वक्त की बात है

    कभी हमारे तो कभी

    तुम्हारे साथ है
    jai baba banaras----

    ReplyDelete
  4. सतीश जी के ब्लाग से होते हुए आपके ब्लाग तक पहुंची हूं ।
    पहली बार ही आपको पढा । बहुत अच्छा लगा ।

    ReplyDelete
  5. सटिश जी के ब्लाग से पहले,बहुत अच्छी प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  6. @सब वक्त-वक्त की बात है
    कभी हमारे तो कभी
    तुम्हारे साथ है...
    बहुत ऊँची बात कह दी है.

    ReplyDelete
  7. पाण्डे जी!
    सिक्का गिरने की आवाज़ तो होती है, मगर उठाने की आवाज़ नहीं होती!(श्री के.पी. सक्सेनाः फ़िल्म जोधा अकबर)... हमारे सतीश जी उसी दिल के गिरने की आवाज़ से विचलित हैं, ये नहीं देखते कि हज़ारों प्रशंसक उनका दिल थामे बैठे हैं... भावुक हैं!
    आपकी अभिव्यक्ति उनको बल प्रदान करेगी!!

    ReplyDelete
  8. @चाहता तो यही हूँ सलील जी मगर उनका कमेंट देखिए ! अभी भी गम में डूबे हैं।

    ReplyDelete

  9. आज तो यार दोस्त बड़े मेहरबान लग रहे हैं ..कमाल है !

    हमने जब मौसमें बरसात से चाही तौबा !
    बादल इस जोर से बरसा कि इलाही तौबा !

    ReplyDelete
  10. तौबा! तौबा!

    कभी गम से तौबा कभी सनम से तौबा
    मर हम गये जब किया मरहम से तौबा।

    ReplyDelete
  11. इसे कहते हैं, ब्लॉग के माध्यम से साहित्य संवर्धन।

    ReplyDelete
  12. जीना इसीका नाम है. सतीश जी के ब्लॉग पर जाकर देखती हूँ.

    ReplyDelete
  13. @ देवेन्द्र भाई ,
    अपेक्षा की एक बहन भी है , उपेक्षा , जो अपनी 'बहनजाई' निराशा का उतारा करती है ! सतीश जी कहिये कि दो बोल मुहब्बत के उसके साथ भी बोलें !

    शर्तिया फायदा होगा :)

    ReplyDelete
  14. अली सर !
    आप गुरुजन हैं, आपका सुझाव अनुसरणीय हैं ! शुभकामनायें आपको !

    ReplyDelete
  15. सब वक्त-वक्त की बात है.....wakai sunder abhivyakti,ek sampurn post................

    ReplyDelete
  16. धैर्य हो तो रहो थिर

    निकालेगा धुन

    समय कोई।

    kya kahne hain............!

    ReplyDelete
  17. दिल कांच का नहीं पारे का बना है

    टूटता है तो आवाज नहीं होती

    जर्रा-जर्रा बिखर जाता है

    जुटता है तो आवाज नहीं होती

    हौले-हौले संवर जाता है
    बहुत खूब देवेन्द्रजी बड़ी खूबसूरती है इन पंक्तियों में ..
    सुन्दर रचना...

    ReplyDelete
  18. ये तो बहुत बढिया रहा……………इसी बहाने एक नयी रचना बन गयी …………बहुत ही सुन्दर रचना और सार्थक प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  19. aaj aap ne bahut hi badhiya ,dil ki baat kaha di. very good.

    ReplyDelete
  20. टूटता है तो आवाज नहीं होती
    जर्रा-जर्रा बिखर जाता है
    जुटता है तो आवाज नहीं होती
    हौले-हौले संवर जाता है

    क्या बात कही है...बहुत ही बढ़िया...

    ReplyDelete
  21. अभी मैं सतीश जी को पढ़कर आई हूँ ..यहाँ भी वैसा ही मिला ..बहुत अच्छी रचना ..बधाई

    ReplyDelete
  22. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|

    ReplyDelete
  23. बढिया रहा है पोस्ट सही टिप्पणी वार्तालाप.

    रामराम.

    ReplyDelete
  24. दिल कांच का नहीं पारे का बना है
    टूटता है तो आवाज नहीं होती
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  25. बड़े फ़ास्ट कवि हैं। जय हो। क्या कविता है! बधाई!
    अपेक्षा की दो बेटियाँ हैं
    आशा और निराशा

    से याद आई कानपुर के कवि उपेन्द्र का यह गीत:

    प्यार एक राजा है
    जिसका बहुत बड़ा दरबार है
    पीड़ी इसकी पटरानी है
    आंसू राजकुमार है।


    उन्हीं की पंक्तियां हैं:
    माना जीवन में बहुत-बहुत तम है,
    पर उससे ज्यादा तम का मातम है,
    दुख हैं, तो दुख हरने वाले भी हैं,
    चोटें हैं, तो चोटों का मरहम है,


    मुक्तिबोध की कविता की ये पंक्ति भी याद आ गयी:

    दुखों के दागों को तमगों सा पहना। :)

    ReplyDelete
  26. सब वक्त-वक्त की बात है

    कभी हमारे तो कभी

    तुम्हारे साथ है
    बहुत सुन्दर बात कही। शुभकामनायें।

    ReplyDelete
  27. इससे हमें यह शि‍क्षा मि‍ली कि‍ - यदि‍ आशा और नि‍राशा के पचड़े में नहीं पड़ना चाहते तो अपेक्षा यानि‍ उनकी माता से पंगा नहीं लेना चाहि‍ये

    ReplyDelete
  28. @अनूप...
    माना जीवन में बहुत-बहुत तम है,
    पर उससे ज्यादा तम का मातम है
    ...वाह अनूप जी ! आपने तो कवि उपेन्द्र के माध्यम से जीवन का कटु सत्य ही बयान कर दिया! सच है। हम जीवन भर तम का मातम ही मनाते रह जाते हैं और खुशी के क्षणों को वक्त बीत जाने के बाद बड़ी मासूमियत से याद करते हैं कि आह! वो भी क्या दिन थे! ...इस पोस्ट से यूँ जुड़ने के लिए बहुत आभार आपका।

    ReplyDelete
  29. पक्की बात कही आपने......

    चिंतन को खुराक देती,बहुत ही सुन्दर रचना रची आपने...

    आभार..

    ReplyDelete
  30. इसी सिलसिले में निराला जी की कविता याद आती है:

    दुख ही जीवन की कथा रही
    क्या कहूं आज जो कही नहीं।

    ReplyDelete
  31. टूटता है तो आवाज नहीं होती

    जर्रा-जर्रा बिखर जाता है

    जुटता है तो आवाज नहीं होती

    हौले-हौले संवर जाता है

    सब वक्त-वक्त की बात है

    Wah !

    ReplyDelete
  32. चिंतन के गलियारों से उपजे बडे-बडे अमूल्य सुझाव.
    नैराश्य के दौर में सदा उपयोगी । आभार सहित...

    ReplyDelete
  33. अच्छा लगा कवि और कवि हृदयी जनों का यह जमावड़ा और कविता तो न्यारी प्यारी है ही

    ReplyDelete