नज़र अंदाज़ कर देते हैं हम
छेड़छाड़
दहलते हैं दरिंदगी पर
शुक्र है...
अभी हमें गुस्सा भी आता है!
देख लेते हैं
आइटम साँग
बच्चों के साथ बैठकर
नहीं देख पाते
ब्लू फिल्म
शुक्र है...
अभी हमें शर्म भी आती है!
करते हैं भ्रूण हत्या
बेटे की चाहत में
अच्छी लगती है
दहेज की रकम
बहू को
मानते हैं लक्ष्मी
बेटियों का करते हैं
कंगाल होकर भी दान
शुक्र है....
चिंतित भी होते हैं
लिंग के बिगड़ते अनुपात पर!
गंगा को
मानते हैं माँ
प्यार भी करते हैं
चिंतित रहते हैं हरदम
नाले में बदलते देखकर
शुक्र है...
मूतते वक्त
घुमा लेते हैं पीठ
नहीं दिखा पाते अपना चेहरा!
यूँ तो
संसद में करते ही रहते हैं
अपने हित की राजनीति
लेकिन शुक्र है...
दुःख से दहल जाता है जब
समूचा राष्ट्र
एक स्वर से करते हैं
घटना की निंदा!
शुक्र है...
अभी खौलता है हमारा खून
किसी की पशुता पर
चसकती है
किसी की चीख
अभी खत्म नहीं हुई
इंसानियत पूरी तरह
मानते ही नहीं अपराध
तय नहीं कर पाते अपनी सजा
शुक्र है...
जानते हैं अधिकार
मांगते हैं
बलात्कारी के लिए
फाँसी!
छोड़ नहीं पाये
दोगलई
लेकिन शुक्र है...
अभी नहीं हुये हम
पूरी तरह से
राक्षस।
................
सच्चाई से कही गयी बात अच्छी लगी
ReplyDeleteKya kahun?
ReplyDeleteहाँ शुक्र है कि सांस ले रहे हैं हम अब भी. ज़िंदा हैं.:(
ReplyDeleteशुक्र है अभी
ReplyDeleteकच्चा नहीं चबाते हम
मसलते हैं मांसल देह
खरोंचते हैं नाखूनों से
चबाते नहीं हड्डियाँ
पीते नहीं रक्त
भागकर छुप जाते हैं,
इस पहचान से
मनुष्य हैं अभी !
पशुता धीरे धीरे ही पाली जाती है और अंत यह होता है।
ReplyDeleteबेहतर लेखनी !!!
ReplyDeleteशुक्र है नहीं अभी हैवानियत सभी में,
ReplyDeleteइंसानियत भी जग जाती कभी कभी.
शुक्र है... कि अभी भी हम दो पैर पर चलते हैं और अपने दोनों हाथ आज़ाद रखते हैं.. ताकि इन हाथों से लूट सकें आबरू.. नोच, खसोट और चीर सकें बदन, बहा सकें खून.. शुक्र है कि इतना होने पर भी हम कह पाते है कि जज साहब हमने ये गंदा काम किया है, हमें फाँसी दे दो! हाथ हैं न दो दो.. जोडकर माफी माँग लेते हैं.. अभी जानवर नहीं हुए हैं भाई साहब, ध्यान से देखिये, हम सभ्य हैं और अभी भी दो पैरों पर खड़े होकर चलते हैं और दो हाथों से काम करते हैं.. चौपाये कहाँ हैं हम!!
ReplyDeleteशुक्र है.......
ReplyDeleteवाकई.
अनु
शुक्र है अभी मानवता साँस ले रही है
ReplyDeleteशुक्र है कि अभिव्यक्ति में इतनी चुभन तो है ।
ReplyDeleteमानवीय मूल्यों के अवमूल्यन को समय के ठहराव के बिम्ब पर प्रवाहित यह कविता मन को बहुत झकझोड़ती है।
ReplyDeleteखून खौलता है शुक्र है , यह उबाल कितने समय रहता है , देखना यह है !
ReplyDeleteशुक्र है अभी कुछ तो शर्म और संस्कार बची है...
ReplyDeleteगहन.........कड़वा सच........शुक्र है कि मुँह में जबान और हाथ में कलम है अभी........खुद से शुरुआत करनी होगी.........हैट्स ऑफ इसके लिए।
ReplyDeleteशुक्र है कि शुक्र है।
ReplyDeleteमर्म है,वेदना है।
शुक्र है !
ReplyDeleteभाई पाण्डेय जी बहुत ही धारदार कविता |
ReplyDeleteसिर्फ खून एक बार खौलने की नहीं उसका उबाल बनाए रखने की जरूरत है
ReplyDeleteशुक्र है कि
ReplyDeleteबची है शर्म ....
झकझोर देने वाली रचना ।
अपने समाज, अपने धर्म
ReplyDeleteकी रक्षा के लिए
रोज ही मांगते हैं दान
लेकिन ऐसी बर्बरता पर
ये ठेकेदार, मौन हो जाते हैं
हमे भी केवल दान देने की ही आदत है
नहीं पूछते इनसे भी कोई सवाल।
शुक्र है अभी हम पूरी तरह राक्षस नहीं हुए हैं...गहरा कटाक्ष।।।
ReplyDeleteसुंदर रचना।।
शुक्र है अभी हममें कुछ संवेदना बची है!
ReplyDeleteवाह ! कमाल कर दिया ,बहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteमगर हम यैसे ही रहेंगे,समाज भी यैसा ही रहेगा न जाने कब तक !
शायद तबतक ,जबतक सारे लोग ओशो द्वारा बताया हुआ डाइनेमिक ध्यान करना शुरू नहीं करेंगे.
शायद पशुता और भी बढ़गी.क्योंकि आदमी भी येक पशु ही है.मगर वो इन्शान भी बन सकता है,उसमे वो छ्यमता भी छुपी है.
इश्वेर पूरा राक्षस ना होने दे.
ReplyDeleteदेर ही क्या बची है अब राक्षस होने में ... नहीं हुवे कर कभी कभी जाग जाता है वो राक्षस हमारे अंदर ....
ReplyDeleteआक्रोश जायज है ...
शानदार लेखन, बधाई !!!
ReplyDeleteविचित्र लीला है लीलाधर की। हम पूरी तरह इंसान भी नहीं बन सके ...राक्षस भी नहीं बन सके। बन सके तो केवल अवसरवादी ...परफ़ेक्ट अवसरवादी। किंतु हमारे अन्दर जो कुछ भी ...जितना भी अधूरापन है वही प्रकाश की किरणों को आमंत्रित करने के लिये पर्याप्त है .........और इसी उम्मीद में हम जिये जा रहे हैं। बड़ी संवेदनशील रचना है पांडे जी! गंगा जी के किनारे जाना छोड़ दिया .......क्योंकि बहुत गुस्सा आता है। अब जाऊँगा कभी तो सीधे गोमुख ही .......
ReplyDeleteका हो मर्दे ! टिप्पनियों पर पहरेदारी लगा दिहल?
ReplyDeleteढेर क बिलाब बन गयल बा त समझे मे न आवला कि केहमे का कही के निकस गयल..रहींली त हटा देइला ना रहीला त..
Deleteशुक्र तो वस्तुतः नहीं ही है ..लेकिन अब क्या कीजियेगा !!!!
ReplyDeletebahut khoob !
ReplyDeleteshukr hai aaj kee peedee doglai hargiz nahee hai .
mujhe poora vishvas hai desh ka bhavishty inke hatho surkshit rahega....
young nation kee category me hum hai hee......
sarthak lekhan
Aabhar
दुखद है , हम से अच्छा तो वो जानवर है जो कम से कम अपनी हरकतों से ये साफ़ साफ़ बता तो देता है कि 'भैया हम से बच के रहना , हम जानवर हैं |'
ReplyDeleteहमारा तो कोई भरोसा ही नहीं , कब जानवर बन जाएँ , कब इंसान |
सादर