19.9.13

मन बैचैन

अब तुम बड़े हो चुके हो। तुम जैसे हो, तुम्हारा स्वभाव जैसा है, जैसे संस्कार, जैसी संगति तुमने पाई है तुम्हारा मन भी वैसे ही ढल चुका है। मन को पुस्तक पढ़कर नियंत्रित करने के चक्कर में मत पड़ो। नहीं होगा तुमसे अब यह नियंत्रित। एक काम कर सकते हो मन को कभी अकेला मत छोड़ो। किसी कार्य पर लगा दो। किसी दिशा में दौड़ा दो। घर में बैठे हो या भाग रहो हो सुपरफॉस्ट ट्रेन में बैठकर मन तो अपनी रफ्तार में ही चलेगा। सोचते रहोगे तो सोचते ही रह जाओगे। सोचना बंद कर दो। करना शुरू कर दो।

मन उस जिन्न के समान है जो बार-बार सामने आता है और पूछता है..क्या आज्ञा है सरकार ? जल्दी काम बताओ नहीं तो मैं तुम्हे खा जाऊँगा!” तुमने काम बताया नहीं कि वो फिर आकर सर पर सवार..क्या आज्ञा है सरकार?” तुम बुद्धिमान हो तो कहोगे-“जाओ! उस बांस पर चढ़ो-उतरो। जब मुझे तुम्हारी जरूरत होगी बुला लुँगा। मन को भी जितनी जल्दी हो काम पर लगा दो। नहीं तो यह भी तुम्हे जिन्न की तरह खा जायेगा।

पता नहीं तुमने महसूस किया है या नहीं मैने तो किया है। मेरी नींद प्रातः अपने समय पर ही खुलती है। कभी आलस किया, नहीं निकला प्रातः भ्रमण पर तो शरीर सोया रहता है बिस्तर पर, मन संसार के चक्कर लगा आता है। निष्क्रीय जिस्म में जागा हुआ मन कभी उस रास्ते पर नहीं जाता जहाँ फूलों की वादियाँ हैं, जहाँ रंग बिरंगी तितलियाँ बार-बार पंख फैलाती-बंद करती,  उड़-उड़कर फूलों से मकरंद चूसती रहती हैं। जागा हुआ मन गंगा किनारे भी नहीं जाता जहाँ उगते सूरज की स्वर्ण रश्मियाँ कभी लहरों को, कभी घाटों को अलंकृत कर रही होती हैं। जागा मन सोये शरीर को छोड़कर जब अकेला भागता है तो कभी कुएँ में, कभी किसी गहरी खाई में बार-बार गिरता है। सदा सर्वदा अनिष्ट का ही वरण करता है। स्वर्ग की कामना करते-करते नर्क के द्वार खटखटाने लगता है। मनुष्य का मन स्वर्ग तो ख्वाब में ही पहुँच पाता है। ख्वाब जागा इंसान नहीं देखा करता। निष्क्रीय जिस्म के भीतर जागे हुए मन के नसीब में ख्वाब देखना नहीं है। ऐसा जिस्म सिर्फ आशंकाएं ही पालता है।

इससे मुक्ति का एक ही मार्ग है। मन को काम पर लगा दो। कोई शौक पाल लो। बस इतना ध्यान रखो कि तुम्हारे शौक से खुद तुमको या किसी को कोई कष्ट न पहुँचे। शौक पालो उसी में डूबे रहो। मन अब तुमसे नियंत्रित न होगा। गीता का ज्ञान रहने दो। यह तुम्हारे वश का नहीं। गीता पढ़ने तक भी निंयत्रित न होगा। हाँ, इसे मोड़ सकते हो। जैसे मोड़े हुए हो अभी और पढ़ रहे हो मेरी बातें।

एक मूढ़ व्यक्ति भी रमता है ईश्वर की आराधना में और अपने इसी रमे रहने के कारण आनंद की प्राप्ति करता है। लाख तुम कहते रहो उसे मूढ़ लेकिन वह तुमसे सुखी है। तुम कह सकते हो धर्म अफीम का नशा है लेकिन नहीं, यह अफीम के नशा जैसा नहीं है। यह किसी को दुःख नहीं देता। मन की यह दौड़ धार्मिक व्यक्ति को आनंद के सागर के बहुत पास तक ले जाती है। तुम कहते रहो यह आनंद नहीं, आनंद का असली ज्ञान तो इसे हुआ ही नहीं। यह तो मूढ़ है। अंधविश्वासी है। पत्थर को भगवान समझकर पूजता रहता है। मगर तुम्हारे गहरे ज्ञान से उस मूढ़ का ज्ञान अधिक सुकून पहुँचाने वाला है। अधिक आनंद पहुँचाने वाला है। वह सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे भवंतु निरामया... का जाप करते-करते आनंद मे डूबा रहता है।  वैसे ही ढाल दो मन को किसी दूसरे कार्य में। तुम्हारे लिए यह आवश्यक है।


तुम्हारे पास वक्त ही वक्त है। तुम काम के बाद इतना वक्त बचा लेते हो कि मन के भटकने की पूरी संभावना रहती है। तुम्हारे पास उस गरीब का मन नहीं है जिसके पास मन बहलाने के लिए समय ही नहीं है। वे तो छोटी-छोटी चीजों में ही ढेर सारी खुशियाँ ढूँढ लेते हैं। सब्जी में एक टमाटर डालने का सौभाग्य मिला तो खुशी के मारे नाचने लगता हैं। कभी दूरदर्शन में सिनेमा देख लिया तो फिर पूछना ही क्या! वह दिन तो पूरे परिवार के लिए जन्नत मिलने के समान है। तुम्हारे लिए खुश रहना इतना आसान नहीं। तुम्हारे पास वक्त ही वक्त है। तुम बुद्धिमान हो। न बुद्ध को न बुद्धू को, मन को नियंत्रित करने की आवश्यकता बुद्धिमान को ही पड़ती है। श्रमजीवी का मन तो हमेशा थका मादा रहता है। यह बुद्धिजीवी का ही मन है जो हमेशा दौड़-भाग करता रहता है। बुद्धिजीवी मन को कभी नियंत्रित नहीं रख सकता। मन या तो बुद्धू का नियंत्रित रहता है या बुद्ध का। मन को नियंत्रित करने का विचार ही त्याग दो। मन को जल्दी से किसी काम में लगा दो। थोड़े से अभ्यास के बाद चाहो तो तुम यह कर सकते हो। मन श्रमजीवी से बहुत घबड़ाता है। बुद्धिजीवी के सर पर हमेशा मृदंग बजाता रहता है। 
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20 comments:

  1. सार्थक पोस्ट...मन क्रियाशील बना रहे यह जरूरी है|

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  2. बहुत ही बढ़िया संस्करण है।
    अपने माहौल में रम जाना है। मन रूपी जिन्न पर मस्तिस्क रूपी सरदार का साया बना रहना बहूत ही जरुरी है। बुद्धिजीवी लोग अपने मन के घोड़े को खुला दौड़ने को छोड़ देते है और उसे नियंत्रित करने के लिए मस्तिस्क का ही इस्तेमाल करते है। कभी - कभी मन को जिन्न की तरह और कभी घोड़े की तरह भी दौड़ाते रहना चाहिए।
    गीता का ज्ञान अत्यधिक आनंद पहुँचाने वाला है। इस ज्ञान का आनंद तभी आता है जब इसकी दौड़ के साथ साथ आपके मन का घोडा भी शब्दों के संग दौड़ रहा हो।

    संयम अतिआव्स्यक है। पौरुष इसी से प्राप्त होता है।

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  3. कितनी सुन्दर विवेचना है...!
    वाह!

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  4. कर्म प्रबल .....कर्म प्रधान ....सार्थक पोस्ट ....!!
    शुभकामनायें ।

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  5. इस मन को साधने के लिए ही तो सारे जतन है, लेकिन क्‍या करें पूरं पड़ते ही नहीं।

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  6. सुन्दर प्रस्तुति-
    बेबाक विश्लेषण-
    आभार आदरणीय-

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  7. वाह ! बड़े काम की बातें !

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    1. यह जानकर खुशी हुई कि अब मेरी पोस्ट आपके डैशबोर्ड तक पहुँचती रहेगी।...आभार आपका।

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  8. मन के प्रति दुश्मनी रखने की क्या जरूरत आन पडी ? मन भटकता रहता है,यही उसका स्वभाव है.आदमी को चाहिये कि वो मन के स्वभाव को जाने,समझे-बूझे.अपने को तटस्थ रखते हुये मन के स्वभाव को देखते रहना चाहीये.मन जहां ले जाये वहीं चल पडने की जरूरत नहीं है.

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  9. मन की नियंत्रित करने की बजाए उसे लगा दो किसी दिशा में ... किसी सृजन में ... किसी शौंक में जिससे की उसको साध सको ...
    शायद इसको ही मेडिटेशन भी कहते हैं ...
    बहुत ही गहरा अध्यन ...

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  10. मन मस्त हुआ तब क्यूँ बोले ...

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  11. मन को कार्य मिलता रहे

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  12. ये आपने लिखा है ऐसा लगा जैसे कोई गुरु अपने शिष्य को संबोधित कर रहा है……गहन और सार्थक |

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    1. यह मन ही तो है। कभी-कभी गुरूआई करने का मन होता है भाई। लाख समझाता हूँ...

      मूरख क्यों करता गुरूआई?
      एक गुरू सब चेरा पगले।

      ..मगर नहीं मानता। कभी-कभी बहक जाता है।

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