हवा तेज़ है
झर रहे हैं
घर की छत पर
सागवान के सूखे पत्ते
कदंब, गुड़हल और बेला की डालियों से
पीले पत्ते।
चाहता हूँ
साफ कर दूँ
जल्दी-जल्दी
बारिश शुरू होने से पहले
नहीं कर पाया तो
पत्तों से
जाम हो जायेंगी छत की नालियाँ
भर जायेगा पानी ।
लो!
कर दिया साफ़
शुरू हो गई बूंदा-बांदी भी
अब चलता हूँ नीचे
अरे!
यह क्या ?
फिर झरे सागवान से
चार बड़े सूखे पत्ते!
वो आठ-दस,
कदंब की डालियों से!
वो छोटे-छोटे
बेला के दो….
उफ्फ!
अब तो थक गया
कब रूकेगी हवा?
कब होगी बारिश?
बेटे को आवाज लगाता हूँ
शायद मदद करे….
“क्या पापा!
अब यही फालतू काम करना बचा है?
मुझसे न होगा
बहुत पढ़ना है।“
हाँ,
समझ सकता हूँ
यह उससे न होगा
मैं भी कभी
अपने बाप के घर में रहता था।
चलो!
ठोकर मारता हूँ
इन झरे हुए पत्तों को
और बिखरा देता हूँ चारों ओर
लो!
फिर गिर रहा है एक पत्ता
कैच-कैच खेलता हूँ !
नाचता हूँ
हा हा हा…
अबे नालायक!
दो पल के लिए
आज़ाद नहीं हो सकता?
.............
Lovely..
ReplyDeletewe feel like we trapped in our own homes.
no matter how much you try to escape.. it just pulls you back.
आजादी मुबारक! बनी रहे।
ReplyDeleteआप आज़ाद हैं ...
ReplyDeleteबहुत खूब..
ReplyDeleteउफ़्फ़! ये हवा,ये पत्ते और ये सरसराहट
ReplyDeleteबारिश की बूँदें और उनकी चमचमाहट
गिरती हुई यादें और बेबस मन
जाने कब तेडे़गा ये बन्धन ....
तोड़ेगा*
ReplyDeleteबहुत बढ़िया :-)
ReplyDeleteअनु
बढ़िया प्रस्तुति है आदरणीय-
ReplyDeleteआभार आपका-
वाह!
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति,,,
ReplyDeleteRECENT POST : समझ में आया बापू .
मर्म को छूती है रचना जब आप ये लिखते हैं ... मैं भी कभी अपने बाप के घर रहता था ...
ReplyDeleteइतिहास दोहराता है सदियों से अपने आप को ... सबक तो कोई भी नहीं लेता ...
बेहद मर्मस्पर्शी लाइन ......"मैं भी कभि अपने बाप के घर रहता था".......हम सबकी लगभग येक-सी कहानी है.मुझे भी यैसा ही एहसास होता रहता है गाहे-बगाहे.
ReplyDeleteजहाँ तक आजादी का सवाल है, आप तो इसे चुराना जानते हैं.चाहे वो कुछ पलों के लिये ही क्यों न हो.
main bhi kabhi apne baap ke ghar rehta tha.....choo gayi ye line...
ReplyDeletebahut sundar
सुन्दर पंक्तियाँ।।
ReplyDeleteनये लेख : भारत से गायब हो रहे है ऐतिहासिक स्मारक और समाचार NEWS की पहली वर्षगाँठ।
"शिक्षक दिवस" पर विशेष : भारत रत्न डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के महत्वपूर्ण विचार और कथन
धन्यवाद।
ReplyDeleteजब जाम हो जाएँगी , तब देखेंगे -- अभी तो हम आज़ाद हैं.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteआजादी कितनी कब चाहिए बहुतों को नहीं पता
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति .... बाप के घर में रहता था ..... इस पंक्ति में नयी पीढ़ी की भावनाएं दर्ज़ हैं ।
ReplyDeleteहम्म..... यही खासियत है आपकी छोटी छोटी बातों में गहरी बात कह जाते हैं.... बहुत बढ़िया |
ReplyDeletecatch catch khelta hoon..........:)
ReplyDeleteबड़े बेचैन है आपके शब्द भी और गहरे भी
ReplyDeleteहर बेचैन को आज़ादी का हक बनता है ....?
बेचैन तो बेचैनी ही पायेगा। कैद हो तो आज़ादी, आज़ाद हो तो कैद। यह उसकी नियति है और अपनी दुआ कि हर बेचैन को चैन आ जाये।
Deleteतन पिंजर में कैद सही , भीतर मन आज़ाद है !
ReplyDeleteआज़ादी और ज़िम्मेदारी का संतुलन आसान कहाँ है
ReplyDeleteबहुत बढ़िया अभिव्यक्ति
ReplyDeletelatest post गुरु वन्दना (रुबाइयाँ)
वाह!
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