पैसिंजर ट्रेन में बैठने भर की जगह थी। जाड़े के दिनों में मैं तजबीज कर इंजन की तरफ पीठ करके बैठता हूँ ताकि खराब हो चुकी खिड़कियों से होकर हवा का तेज़ झोंका मेरी सेहत न खराब कर दे।
युसुफपुर स्टेशन से मिर्जा चढ़ा और मेरे सामने आकर बैठ गया। मेरे बगल में उसने अपनी वृद्ध अम्मी को बिठाया जो कुछ देर बाद बैठे-बैठे, टेढ़ी-मेढ़ी हो कर सोने का उपक्रम करने लगीं। मोबाइल से फेसबुक चलाते-चलाते मैंने महसूस किया कि वह मुझसे कुछ कहना चाहता है। हिचकते हुए उसने कहा-'आप मेरी जगह बैठ जाते तो मैं अम्मी का सर गोदी में रखकर सुला देता।' उसका प्रस्ताव सुनते ही एक झटके से मैंने मना कर दिया-'नहीं-नहीं, मैं यहीं ठीक हूँ। वहाँ बैठा तो मुझे ठंडी लग जायेगी।' मिर्जा बोला-'ठीक है, कोई बात नहीं। अम्मी सो रहीं थीं इसलिए मैंने ....
नहीं, मैं मिर्जा को नहीं जानता। जो अजनबी मुझे प्यारा लगता है मैं उसके धर्म के अनुसार उसका नाम अपने दोस्तों, भाइयों के नाम से रख लेता हूँ और अपनी बात कहता हूँ।
मेरा ध्यान फेसबुक से भंग हो चूका था। मुझे लगा मैंने कुछ गलत बोल दिया। विचार किया तो लगा गलत नहीं, बहुत गलत बोल गया! मैं उस लड़के को ध्यान से देखने लगा। कितना प्यारा लड़का है! अपने मिर्जा भाई के लड़के जैसा। अम्मी से कितनी मोहब्बत करता है! मैं उठकर खड़ा हो गया-अम्मी को ठीक से सुला दो! माँ को सुला कर वह उनके पैर उठाकर बैठने लगा तो मैंने दुसरे यात्रियों से थोड़ी जगह बनाने का अनुरोध कर उसे भी अपने पास ही बिठा लिया। अम्मी को चैन से सोने दो, तुम यहीं बैठो।
रास्ते भर मिर्जा मुझे धन्यवाद देता रहा और मैं ईश्वर को जिसने समय रहते मेरा विवेक जगा दिया। मुझे महसूस हुआ कि इंसान को इंसान बनने से सबसे पहले उसका स्वार्थ रोकता है। विवेक ने साथ दिया तो आत्मा चीखने लगाती है और वह फिर हैवान से इंसान बन जाता है।
कल 09/नवंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
सच कहा आपने इंसान को इंसान बने रहने के लिए उसका अपना स्वार्थ ही रोकता है ....समय रहते विवेक जाग जाय तो कोई अच्छा काम कर लेने से जो आत्मीय सुकून मिलता है उससे बढ़कर कुछ नहीं ..यह सभी समझ ले तो फिर धरती स्वर्ग से बढ़कर बन जाए ..
ReplyDeleteप्रेरक प्रस्तुति
धन्यवाद आप दोनों को।
ReplyDeleteसच बात !
ReplyDeleteसच कहा है, विवेक जग जाये तो आत्मा की आवाज अनसुनी कैसे कर सकता है कोई...
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ReplyDeleteबहुत सशक्त सन्देश देता है यह संस्मरण स्व :में अटके आदम को।
काश हर किसी में इतनी समझदारी हो !
ReplyDeleteतो कोई प्रॉब्लम ही न हो !
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है !
धन्यवाद।
ReplyDeleteहम इस पोस्ट का फेसबुक पर पहले ही रस ले चुके हैं...
ReplyDeleteआप जैसे सहृदय ब्यक्ति सब होते तो ये संसार बहुत सुन्दर हो जाता.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteईश्वर/अंतरात्मा सही समय पर संकेत देते हैं, हम समझें न समझें ये हमारा प्रेरिगेटिव/संस्कार/विवेक।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर संस्मरण ...उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@आंधियाँ भी चले और दिया भी जले
व्यक्ति के मन में अचछे विचारों और बुरे विचारों का द्वंद सदैव चलता रहता है।इस द्वंद में अच्छे विचारों की ही जीत होती रहे,इसके लिए श्रीमद्भगवद्गीता ने अभ्यास का रास्ता सुझाया है।
ReplyDeleteप्यारा सस्मरण
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