26.6.17

लोहे का घर-27


गेंहूँ की कटाई जोरों पर है. जहाँ देखो वहीं खड़ी फसल से ज्यादा कटे ढेर दिख रहे हैं. कहीँ-कहीं दवाई भी चल रही है, कहीं पूरे साफ हैं खेत. धरती पुत्र सरसों की चादर के बाद अब गेहूं की चादर भी उतार रहे हैं. रोज नये नजारे दिखाती हैं लोहे के घर की खिड़कियाँ जारी है धूप-छाँव का खेल. पटरी पर भाग रही है अपनी #ट्रेन
.......................................

किसान में बड़ी भीड़ है। अयोध्या से राम नवमी का उत्सव मना कर लौट रहे हैं लोग। ज्यादातर यात्री बिहार के हैं। बमुश्किल बैठने की जगह मिल पाई। एक लेटे हुए सज्जन बैठ गए, एक महिला उकड़ूँ लेटी हैं। कष्ट सहकर भी बिठा लिया उन्होंने हम तीन रोज के यात्रियों को। दोनो साथी बैंक से हैं। बिहारी जैसे आप के रिजर्व सीट पर बैठ जाते हैं, वैसे प्रेम से बिठाना भी जानते हैं। इतनी सहृदयता और अधिकार आप और किसी मे कम ही पाएंगे।

बाबा जी किस्सा सुना रहे हैं। अयोध्या से लौटे हैं। काली खोह, विंध्याचल का संस्मरण सुना रहे हैं। कुछ महिलाएं, बच्चे जिनका रिजर्वेशन नहीं है, जमीन पर बैठे हैं। बाबा जी लटपटी जुबान में किस्सा सुना रहे हैं। किस्से का सार यह है कि पैसा गायब हो गया था, दर्शन करने गए थे विंदध्याचल, गमछा पहिने चंदन लगाए, कहीं कोई दिक्कत नहीं हुई। आराम से दर्शन करके घर पहुँच गये। भक्त को कोई तकलीफ नहीं होती।

बोलने वाले बाबा जी अब चुप हैं। ऊपर बर्थ पर अधलेटे बाबा अपने सुफेद मूछों और दाढ़ी को सँवारकर ध्यानमग्न हैं। मूँगफली वाले की आवाज पर चौंक कर बैठे , घूरकर उसे देखे फिर ध्यानमग्न हो गये। बैंक वाले साथी लगातार आपस मे बातें कर रहे हैं। मोबाइल भी देख रहे हैं। जुटे हैं अपने-अपने काम धंदे की बातों में। मंगोजूस, पानी बेचने वाले इसी भीड़ में रास्ता बनाते आ/जा रहे हैं। #ट्रेन जलाल पुल को थर्रा कर प्लेटफॉर्म पर रुकने के लिये धीमी हो रही है। बाहर अंधेरे में दिख रहे हैं मकानों में जलते बल्ब।

जलालपुर में रुकी है ट्रेन। बगल में बैठे हुए सहृदय यात्री ने खैनी खाई। बर्थ पर लेटे बाबा ने अपनी आंखें दो मिनट के लिए खोलीं, गेरुए धोती में लिपटे एक टाँग को सीधा कर अपने बैग पर चढ़ा दिया, दूसरी टाँग मोड़कर खड़ी कर ली और एक हाथ ललाट पर रख फिर से ध्यानमग्न हो गये। बैंक वाले फोन पर पासबुक लेने की हिदायत दे रहे हैं किसी को।

पटरियों पर भागती ट्रेन हवा से बातें कर रही है। कुछ हवाओं के शरारती छोरे खिड़की से भीतर घुस कर मुझसे लिपट-लिपट भीड़ में गुम हुए जा रहे हैं। अजैब सी मुरदैनी छाई है लोहे के घर मे। जो जहाँ है, वहीं ऊँघ रहा है। एक महिला अपने बच्चे का चप्पल ढूँढ रही है। उसकी साड़ी इधर-उधर हो रही है। कोई सोया नहीं है, कोई जगा हुआ दिख भी नहीं रहा, जिस्म ढला-ढला सा लुढ़का/पसरा है लेकिन सभी के कान खरगोश और आंखें गिद्ध हैं! बाबा जी झटके से बोले-ओने होई तोहार चप्प्ल। महिला चली गई। मुर्दे जिस्मों की सनसनाहट फिर ठण्डी पड़ गई।
........................................

आज #फिफ्टी मिली। बहुत दिनों से हमारा मिलना हो नहीं रहा था। कभी वो लेट तो कभी हम अपने काम मे व्यस्त। आज मिल ही गई। बड़े चाहने वाले हैं इसके। बड़ी भीड़ है। हम भी चढ़ कर एक बोगी में बैठ ही गये। मेरे बगल वाले को थोड़ी तकलीफ हुई। पहले पलेठी मार कर ऐसे बैठा था जैसे पूड़ी आने वाली हो। अब पैर लटका कर, मुँह फेर कर बैठा है। बहुत से रोज के यात्री चढ़े हैं मगर सब इधर-जहाँ जगह मिली बैठ गए। भीड़ में भाई का ध्यान नहीं रहता, सफर की मित्रता कहाँ साथ चल पाती!

गोधुली बेला है। गाँव का सौंदर्य दिख रहा है लोहे के घर की खिड़कियों से। खेतों में दौड़ रहे हैं बच्चे। महिलाएँ गोल बनाकर बतिया रही हैं आपस मे। दिनभर की थकान दूर कर रही होंगी। चौपाये लौट रहे हैं घरों में। पंक्ति बद्ध करीने से रखे हैं गेहूँ के गठ्ठर। ग़ज़ब का ज्यामितीय अनुपात दिखता है इन गट्ठरों के रखने में भी। दूर से देख कर बता दें कि कितने ढेर हैं। शायद गेहूँ का भी सटीक अनुमान लगा लेते होंगे किसान।

पल-पल बदल रहे हैं दृश्य। मन बच्चा हो तो आनन्द की कोई सीमा नहीं, मन बूढ़ा हो तो क्या रक्खा है इसमें! यह तो रोज-रोज की बात है। जल चुके हैं लोहे के घर के बल्ब। बाहर अभी धुंधला उजाला है। गेहूँ काटने के बाद सूखी झाड़ियों में आग भी लगाते दिख रहे हैं लोग। एक ठेले में बोझ लादे जा रहा है पूरा परिवार। पीछे-पीछे दौड़ते, छोटे-छोटे बच्चों में दिख रहा है उल्लास। अब कंकरीट के घरों में भी जलते दिख रहे हैं बल्ब। तेज हवा का झोंका भीतर आ रहा है खिड़की से। आँधी नहीँ है पर क्या जाने! ऐसे ही मौके पर आती है आँधी, झरते हैं टिकोरे.

आस-पास, उदास-उदास बैठे हैं यात्री। इन्हें बस एक ही चिंता है..बनारस कब आएगा? मंजिल के चक्कर मे सफ़र का आनन्द लेना तो दूर, मन मे घबराहट का बोझ लिए चलते हैं लोग! कुछ तो 15 किमी पहले से ही समान उठा कर गेट के पास खड़े हो रहे हैं। मंजिल के करीब पहुँचते ही अजीब सी बेचैनी छा जाती है शायद। अपन तो जान ही नहीं पाये कि मंजिल कहाँ है! सही दिशा में चल रहे हैं, यह भी नहीं पता। बस इतना जानते हैं कि सुबह होती है, शाम होती है और हम खुद को सफर में पाते हैं।
........................................

कैंट प्लेटफॉर्म नंबर 9 पर, पीने के पानी के सामने रखी हैं मिट्टी की सुराहियाँ। सुराहियाँ के बगल में सुराहीदार गरदन वाली एक महिला यात्री अपने सामान के साथ बैठी हैं। गले में सोने की चेन, मंगलसूत्र। सर का घूँघट थोड़ा सरकता है तो दिखता है पीला सिंदूर। उसका पति मोबाइल में किसी से बात कर रहा है। मिट्टी की सुराहियों की तस्वीर खींचने का मन है लेकिन कहीं वो महिला ये न समझे कि ये आदमी मेरी फोटू खींच रहा है! बुरा मान जाये!!! जरा सा हट जाती तो मेऱा काम बन जाता। हाय! चल दी अपनी #फोट्टीनाइन न महिला हटी न तस्वीर हाथ आया।कैंट प्लेटफॉर्म नंबर 9 पर, पीने के पानी के सामने रखी हैं मिट्टी की सुराहियाँ। सुराहियाँ के बगल में सुराहीदार गरदन वाली एक महिला यात्री अपने सामान के साथ बैठी हैं। गले में सोने की चेन, मंगलसूत्र। सर का घूँघट थोड़ा सरकता है तो दिखता है पीला सिंदूर। उसका पति मोबाइल में किसी से बात कर रहा है। मिट्टी की सुराहियों की तस्वीर खींचने का मन है लेकिन कहीं वो महिला ये न समझे कि ये आदमी मेरी फोटू खींच रहा है! बुरा मान जाये!!! जरा सा हट जाती तो मेऱा काम बन जाता। हाय! चल दी अपनी #फोट्टीनाइन न महिला हटी न तस्वीर हाथ आया।
...............................

शाम को ट्रेन में बैठते ही एहसास हुआ, दिन भर धूप में तपा है लोहे का घर। आपको घर पहुंचने पर एहसास होता होगा कि घर मे कोई तपा-तपाया बैठा है, यहाँ तो पूरा घर ही गरम मिलता है। ए.सी. के डब्बे रोज के यात्रियों के लिए नहीं बने हैं। रोज के यात्री तो तलाश करते हैं कहाँ बैठने भर की जगह मिल जाएगी। हर #ट्रेन में बैठने के अलग-अलग नीयम-कानून हैं। किस ट्रेन में पीछे बैठने पर जगह मिलेगी, किस में आगे की बर्थ खाली होगी यह रोज के यात्री बखूबी जानते हैं। यह #फरक्का है, ईश्वर की कृपा से लगभग 5 घंटे लेट। भगवान भरोसे ही चलती है अपनी गाड़ी।

बच्चे, बूढ़े प्यास से परेशान हैं। युवाओं की बैटरी चार्ज हो तो उन्हें भूख प्यास नहीं लगती। मोबाइल में सब सुख है। फेसबुक के मित्र तरह-तरह के व्यंजन परोस ही देते हैं। भोजन की तस्वीरें देख कर फिलिम या वाट्सएप वीडियो देख सकते हैं। बच्चे प्यासे हैं। वेंडरों की चांदी है। 15 का बोतल 20 में बिक रहा है। किसी के बुरे दिन, किसी के अच्छे हो ही जाते हैं। यही प्रकृति का नीयम है।

अब बाहर अंधेरा हो चुका है। भाग रही है अपनी #ट्रेन। अंधेरे में डूबे खेतों से आ रहे हैं ठण्डी हवा के झोंके। उतरे हैं तारे जमीन पर या कंकरीट के घरों में जल रहे हैं बल्ब! तारों की तरह टिमटिमाने लगे हैं कंकरीट के घरों में जलते हुए बल्ब। गेंहूँ कटने से खाली हो चुके खेत को लड़कों ने क्रिकेट का मैदान बना लिया है। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय लड़के क्रिकेट खेलते दिख ही जाते हैं। अंधेरे से पहले खूब हलचल थी खेतों में, अभी कोई नहीं दिख रहा।

अब ठंडा हो चुका है लोहे का घर। खिड़कियों से आ रहे हैं ठण्डी हवा के झोंके। ट्रेन का पँखा भी चल रहा है। एक पँखे के ऊपर किसी बच्चे का सू-सू किया हुआ पैजामा सूख रहा है। किसी पँखे के ऊपर जूता नहीं दिख रहा। इससे पता चल रहा है कि भले लेट हो लेकिन यह पैसिंजर नहीं, एक्सप्रेस ट्रेन की रिजर्व बोगी है। एक बंगाली बाबू अल्यूमूनियम के छोटे भगोने में भूजा खा रहे हैं। उनके सामने बैठा बच्चा मिरिंडा की खाली बोतल से खेल रहा है। आम आदमी के छोटे बच्चे मिरिंडा की खाली बोतल से भी कितना प्यार करते हैं!

अपनी एक्सप्रेस ट्रेन न रुकने वाले स्टेटशन पर भी रुक-रुक कर चल रही है। यात्री बेचैनी में पूछ रहे हैं-बनारस कब आएगा? मैंने एक को ढाँढस बंधाया-बनारसी दिख गये तो समझो बनारस है। ट्रेन कब पहुँचेगी यह तो ट्रेन चलाने या चलवाने वाला भी नहीं जानता।
...............................

जेठ की धूप से चौंधिया जा रही हैं लोहे के घर की आँखें। फसल काटने के बाद खेत अब हरे-भरे नहीं रहे। घने वृक्ष की छाँव तले मिमियाती बकरियों, रस्से से बंधी भैंसों और खटिया पर बैठे दद्दू को देख एक पल के लिए मन जुड़ता है फिर वही धूप का लंबा कोहराम। नहर में पानी नहीं है। छोटी नदियाँ नाले जैसी दिखती हैं। ले दे कर बचे हैं वृक्ष जिनके सहारे कट रहा है ग्रामीण जीवन। वृक्षों के बीच उग रहे कंकरीट के जंगलों को देख मन काँप जाता है। कहाँ जाएंगे यहाँ से भाग कर पँछी?

पहला दिन है। अभी हवा में जेठ वाली तपन नहीं है। छाँव में उमस नहीं है। लोहे के घर मे बैठे लोग भी ऊँघ रहे हैं। पटरी पर भाग रही है #ट्रेनजेठ की धूप से चौंधिया जा रही हैं लोहे के घर की आँखें। फसल कटने के बाद खेत अब हरे-भरे नहीं रहे। घने वृक्ष की छाँव तले मिमियाती बकरियों, रस्से से बंधी भैंसों और खटिया पर बैठे दद्दू को देख एक पल के लिए मन जुड़ता है फिर वही धूप का लंबा कोहराम। नहर में पानी नहीं है। छोटी नदियाँ नाले जैसी दिखती हैं। ले दे कर बचे हैं वृक्ष जिनके सहारे कट रहा है ग्रामीण जीवन। वृक्षों के बीच उग रहे कंकरीट के जंगलों को देख मन काँप जाता है। कहाँ जाएंगे यहाँ से भाग कर पँछी?

लोहे के घर में गाना बज रहा है...छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नयना मिलाय के...। खिड़की के बाहर नील गगन में निकल रहा है पूनम का चाँद। शोर मचाती बाजू से गुजर गई दूसरी #ट्रेन। चाँद अब पूरी तरह खिल कर मुस्कुरा रहा है। इधर शुरू हो चुका है दूसरा गीत...चोरी-चोरी कोई आये!
आने वाला है कोई टेसन। दिख रहे हैं दो पायों के अनगिन घोसले। एक सड़क गई है दूर से दूर तलक। भाग रहे हैं पहिये। थोड़ा और ऊपर आ कर ठहर सा गया है चाँद। गीत हैं कि रुकने का नाम नहीं ले रहे, सफर है कि खत्म नहीं हो रहा और ट्रेन है कि हवा से बातें कर रही है निरन्तर।
...............

सूरज की आग में दिन भर तपा है लोहे का घर। बैठो तो पीठ और तशरीफ़ दोनो गरम। हवा के लिए थोड़ी खुली हैं पश्चिम की खिड़कियाँ मगर जबरी घुसी जा रही है धूप। पूरब वाले मजे में हैं। देख रहे हैं लम्बी होती परछाइयाँ।
आज लोहे के घर से सूरज को डूबते हुए देखने का सौभाग्य मिला है। जाते-जाते भी बूढ़े शेर की तरह तरेर रहा है आंखें। अभी एक पल के लिए नहीं ठहरती नज़र, अभी कान्हा के गेंद सा छुपता फिरेगा घने वृक्षों के पीछे। जो उगता है, ढलता जरूर है। जवानी में भले आग उगले, ढलान पर असहाय हो ही जाता है।
अभी कुछ देर पहले एक #ट्रेन गई है आगे। इसलिए भीड़ नही है इसमें। टांगें फैलाकर लेट रहे हैं लोग। तपन से रिश्ता जोड़ो तो शीतलता गाल चूम लेती है। अब नहीं हो रहा गर्मी का एहसास। सूरज कुछ और ढला है, जिस्म कुछ और सधा है। हवा से सूख रहे हैं स्वेद कण। हमे देख ताली पीटते हुए, मुँह बनाते हुए गुजरा है हिजड़ों का दल। कहते हैं.. स्टाफ से कोई कुछ ले नहीं पाता! :}
ढलने के एहसास से क्रोध में लाल है या किसी कोयल की कूक से शर्मिंदा, नहीं जानता। बस देख रहा हूँ कि लाल होकर ढला जा रहा है सूरज। आगे-आगे पटरी पर दौड़ रही है ट्रेन, पीछे-पीछे भाग रहे हैं खेत, साथ-साथ गोल-गोल घूम रहे हैं घने वृक्ष और दूर क्षितिज में ढल रहा है सूरज। कभी इस वृक्ष के पीछे, कभी उस वृक्ष के पीछे और कभी खुले मैदान में ढलते हुए भी गुर्राने वाला..अभी डूबा नहीं हूँ!
पंछियों के पीछे चहचहाते हुए गुजरा, एक नदी मिली उसमें नहाते हुए गुजरा और देखते ही देखते दूर बादलों में कहीं ओझल हो गया! सूरज आज भी मेरी नजरों के सामने डूबते-डूबते कहीं गुम हो गया!
.......................................

बहुत दिनों के बाद समय से आई है किसान। चहक रहे हैं रोज के यात्री। सुना रहे हैं 3-4 दिनों की बस यात्रा का अनुभव। लोहे के घर की तुलना में बस एक लोहे का पिंजड़ा है। एक ऐसा पिजड़ा जिसमें ठूँस कर भर दिए गए हों कई प्रकार के परिंदे। बैठे, खड़े, गर्मी से बेहाल तड़फते हुए। लोहे के घर में सुकून है, शांति है। आमने-सामने बैठ कर आदमी की तरह बतिया रहे हैं लोग।
सूरज डूब चुका है। बीत चुकी है गोधुली बेला। अंधेरा नहीं हुआ, दिख रहे हैं खेत मगर दूर कंकरीट के जंगल मे जलने लगे हैं बल्ब। जफराबाद स्टेशन आ गया। एक पैसिंजर खड़ी है इतमिनान से। यात्री बाहर निकल कर प्लेटफॉर्म में टहलते हुए सिगनल की प्रतीक्षा कर रहे हैं। चल दी अपनी किसान।
लोहे के घर मे, मेरी तरह अपने-अपने मोबाइल में डूबे हुए हैं लोग। रोज के यात्रियों के लिए वीडियो देखने, फेसबुक अपडेट करने, वाट्स एप चलाने का यही सुनहरा समय होता है। ऑफिस में दिन भर काम करने के बाद घर पहुंचने से पहले की अंतिम ड्यूटी, बची-खुची ऊर्जा के इस्तेमाल कर लेने का गोल्डन चांस!
एक #ट्रेन गुजरी है बगल वाली पटरी से। एक शोर उठा और शांत हो गया। एक पुल से गुजरी है ट्रेन। फिर एक शोर उठा और शांत हो गया। पटरी पर चल रही गाड़ी की नियति में है शोर और हर शोर के बाद झन्नाटेदार सन्नाटा! कभी शोर से घबड़ाता है दिल, कभी सन्नाटे में डूबता है दिल। पटरी पर चलती रहती है ट्रेन। पड़ाव से पहले कोई उतरता नहीं, मंजिल से पहले खत्म नहीं होती कोई यात्रा। यात्रा खत्म हुई तो समझो उसकी मंजिल आ गई। यहीं तक चलना था उसे। यही थी उसकी मंजिल।
ट्रेन की रफ्तार से भी तेज प्रतीत हो रही है विपरीत दिसा से आ रही हवा। खिड़की में बैठे हैं तो लग रहा है जैसे साथ-साथ चल रहा है तूफान। हवा में ठंड नहीं है। कहीं बारिश हुई होती तो नमी होती हवाओं में। खालिसपुर स्टेशन में रुक गई ट्रेन। यहॉं इसका ठहराव नहीं है लेकिन रुक गई। शायद सिगनल नहीं मिला। बगल की पटरी में एक दूसरी ट्रेन आ कर एक मिनट के लिए रुकी फिर रेंगते हुए चल गई। उसके भीतर बैठे यात्री भी अपने घर के यात्रियों जैसे मायूस दिखे। कुछ बेचैनियाँ दे कर चल दी अपनी भी ट्रेन। जब गाड़ी पटरी पर भाग रही हो तब एक पल का भी ठहराव बेचैन कर देता है लोगों को।
अंधेरे में दूर पंक्ति बद्ध जलते हुए बल्ब को देख कर एहसास होता है कि कितनी तेजी से उग रहे हैं खेतों में कंकरीट के जंगल! एक दिन यह भी आएगा कि लोहे के घर की खिड़की पर बैठ कर मीलों बाद कहीं-कहीं सौभाग्य से ही दिखेंगे....खेत, अमराई, बांस की झाड़ियाँ।
सफर तो सफर है चलता रहेगा तब भी, आज की तरह। हम न होंगे लेकिन चलते रहेंगे रोज के यात्री, भागती रहेगी ट्रेन। 
.............
सूरज डूब गया मगर धरती अभी उसके ताप से गर्म है। बदमिजाज अधिकारी के जाने के बाद भी छाये खौप की तरह सहमे-सहमे से हैं परिंदे। खिड़की से आ रही है गर्म हवा। धीरे-धीरे ठंडा हो रहा है लोहे का घर। धीरे-धीरे उतरता है किसी के ताप का खौप।
यह #डाउन की #ट्रेन है। #अप वाली एक पटरी साथ-साथ है। हम डाउन में आगे-आगे, वो अप में पीछे-पीछे। एक पटरी हमेशा साथ चलती है। हम रुकते हैं तो पटरी भी रुक जाती है, हम चलते हैं तो पटरी भी पीछे छूटती सी प्रतीत होती है। एक ट्रेन गुजरी है अभी। धूम-धडाक, हों-हां, पों-पा के बाद एक झन्नाटेदार सन्नाटा और फिर वही लोहे के घर की संतुलित खटर-पटर। फिर वही एक पटरी का साथ-साथ चलना। पास का सब पीछे छूटता हुआ, दूर का सब साथ चलता हुआ। अजीब गोलमाल है! लोहे के घर की खिड़की से बाहर ध्यान से देखो तो गोलमाल खुलता है। एहसास सा होता है कि धरती गोल है।
इन दिनों चकाचक है ठंडे पानी का कारोबार। लोहे के घर में पानी लेकर घूम रहे हैं वेंडर। स्टेशन के बाहर भुजा बेचना छोड़, भुजे वाले ने आम का पाना, नीम्बू पानी, बेल का शरबत बेचना शुरू कर दिया है।
मौसम जीवन मे सातों रंग बारी-बारी से घोलता चला जाता है। कभी जाड़ा, कभी बरसात और कभी तेज गर्मी। हम सौभाग्यशाली हैं कि ये मौसम हमें हर रंग के दर्शन कराता है। लोहे के घर की खिड़की से धरती कभी धानी, कभी सरसों, कभी हरी-भरी और कभी बंजर नज़र आती है।
चाय वाला आया है..चइया! हरा मटर वाला थोड़ी दूर है। सूईं.. भन्न से टेक ऑफ करते हुए बाबतपुर के झलर-मल्लर हवाई अड्डे से ऊपर, नील गगन में उड़कर ओझल हुआ है एक हवाई जहाज। लोहे के घर की खिड़कियाँ बच्चों की तरह अचंभित हो, चहक रही हैं।
...................
#आउटर किसी भी #रेलवेस्टेशन का वह बाहरी हिस्सा होता है जहाँ स्टेशन पर पहुँचने से पहले ट्रेनें रोक दी जाती हैं. बड़े स्टेशन पर तो #ट्रेन के आवागमन का इतना दबाव होता है कि शायद ही कोई ट्रेन बिना रुके प्लेटफ़ॉर्म तक पहुँच पाये. दूसरे स्टेशन की बात तो अधिक नहीं जानता लेकिन बनारस कैंट स्टेशन के आउटर का तो इतना बुरा हाल है कि वे यात्री जिनके पास अधिक सामान न हो, ज्यों ही ट्रेन आउटर पर रुकती है, पैदल ही प्लेटफोर्म के लिए चल पड़ते हैं. आउटर से प्लेटफोर्म के बीच की दूरी दस मिनट की होती है. कोई निश्चित नहीं होता कि आउटर पर ट्रेन कितनी देर रुकी रहेगी! पैदल चलने में समय बचता है इसलिए उबड़-खाबड़, गिट्टी-पत्थर वाले अँधेरेे रास्ते पर चलकर भी सही, लोग पैदल ही निकल पड़ते हैं. आउटर पर खड़ी ट्रेनें लम्बे वॉक से लौटे बुजर्गों की तरह ठहर कर ग्रीन सिगनल का ध्यान करती हुई सी लगती हैं कब सिगनल मिले, कब आउटर पार हो!
कितना अच्छा हो कि आउटर से प्लेफोर्म के बीच का रास्ता सुगम और रोशनी वाला बना दिया जाय जिससे पैदल चलने वाले आराम से उतर कर प्लेटफॉर्म तक पहुँच सकें. भले प्लेफोर्म खाली हों, आउटर पर ट्रेन न रोकना या जल्दी से प्लेटफोर्म तक पहुँचाना तो संभव ही नहीं दिखता.
 ................
लू चल रही है सुबह-सबेरे। लोहे के घर की खिड़की से आ रही है गर्म हवा। तप रही है धरती। पंछियों का नामोनिशान नहीं। सड़कों पर चल रही हैं इक्की दुक्की मोटर साइकिल। आम की घनी छाँव में जुगाली कर रही हैं भैस। बाबतपुर हवाई अड्डे की जल रही हैं बत्तियाँ। हवा से बातें कर रही है #फोटटी। पिण्डरा हॉल्ट पर एक मिनट के लिए रुकती है #ट्रेन। दिखती भुजे वाले की सूनी झोपड़ी। शाम को भूजता होगा भुजा। कहीं-कहीं दिख रहे हैं भिंडी और नेनुआ के फूल। अँधरे में जैसे जुगनू चमकते हैं, धूप में वैसे ही चमकते हैं सब्जियों के फूल! कहीं-कहीं लहलहा रहे हैं बड़े-बड़े सूरजमुखी।
रेंग रही है ट्रेन। आने वाला है खालिसपुर स्टेटशन। प्लेटफॉर्म पर नजर डालो तो धूप से चौंधिया जा रही हैं आँखे। इस प्लेटफॉर्म पर ओवरब्रिज का काम हो रहा है। प्रभु जी के राज में ट्रेने भले लेट चलें, हर प्लेटफॉर्म पर कुछ न कुछ काम होते दिख ही जाता है। ठीक भी है, ट्रेन का लेट होना किसे याद रहेगा! जनता की याददास्त कमजोर होती है। चुनाव के समय तो काम बोलता है।
लू के थपेड़े अब और तेज हो रहे हैं। सन्नाटा पसरा है खेतों में। कभी कभार दिख जाते हैं चौपाये। जितनी तेज चलती है ट्रेन, उतने तेज लगते हैं लू के थपेड़े। बारिश होगी तो मजा आएगा, अभी तो तप रहा है #लोहेकाघर
...............

6 comments:

  1. रोजनामचा , लोहे के चलते फिरते घर में आपकी यात्रा में लोगों से हुई मुलाकात और उनकी बातचीत को आप जितनी सहजता से उकेरते हैं ,बहुत रोचक लगता है पढ़ना,साथ ही जो प्रकृति के सौंदर्य को आप गूंथते चलते हैं वो अद्भुत है ..

    ReplyDelete
  2. यह लोहे का घर न जाने कितने लोगों से मिलाता है, हर पल की एक अलग कहानी। रोचक वर्णन

    ReplyDelete
  3. "लोहे का घर ", आनेवाली समय की ये किताब , खूब भायेगी सबके मन को | आपको पढना हमेशा से ही मुझे अच्छा लगता है और तसवीरें देख कर तो मन भर आता है और गाँव भाग जाने को जी करने लगता है

    ReplyDelete
  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (29-06-2017) को
    "अनंत का अंत" (चर्चा अंक-2651)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

    ReplyDelete