3.3.18

लोहे का घर-39

उंगलियों में गुलाब पकड़े 
मीलों चले हैं 
पैदल-पैदल 
न झरी 
एक भी पंखुड़ी 
न भूले राह
मंजिल से पहले।

वेलेंटाइन के दिन भी पटरियों पर दौड़ रही हैं ट्रेनें। चउचक नियंत्रण है ऊपर वाले का। जब हरी झंडी दिखाए चलना है, जब लाल तो रुक जाना है। न आगे वाली माल को छू सकती है न पीछे वाली पैसिंजर को। दाएं बाएं से गलबहियां करना तो लाहौल बिला कूवत! क़यामत आ जाएगी। नारी भले स्वतंत्र हो जाए एक दिन, #ट्रेन नहीं हो सकती। इसकी किस्मत में चीखना, चिल्लाना और सेवा करना ही लिखा है। न छुट्टी न वेलेंटाइन।
आज शिवरात्रि है। काम के देवता कामदेव, प्रेम के देवता कृष्ण फिर शिव कौन? संहार के देवता?
प्रेम के लिए दृष्टि चाहिए। दूसरे बिदक गए शिव के गले में नाग देख कर लेकिन पार्वती ने शिव में सत्य देखा! शिवम् देखा! सुंदरम देखा। प्रेम किसी संत के उपदेश के बाद आया है क्या धरती पर? यह तो प्रत्येक प्राणी में जन्म के साथ मिलने वाला स्वभाव है। इसका कोई एक खास दिन कैसे निर्धारित हो सकता है? यह तो मौका मिलते ही हो जाने वाला प्राणियों का स्वभाव है।
बहुत से लोग बैठे हैं लोहे के घर में। बिना रुके चौबीस घंटे लोगों को अपनी मंजिल तक पहुंचाना भी तो प्रेम करना है। ट्रेन तो हर पल वेलेंटाइन मनाती है। समझने के लिए दृष्टि चाहिए।

संसार में दो तरह के लोग पाए जाते हैं एक आलोचक दूसरे प्रशंसक। आलोचक साहित्य से छिटक कर राजनीति में चले गए। प्रशंसक राजनीति से छिटक कर साहित्य में आ गए। देश में कोई घोटाला होता था तो सबसे पहले विपक्ष दुखी होता था। अब उल्टा हो गया है। घोटाले की खबर सुनते ही विपक्ष की लॉटरी खुल जाती है। उन्हें सत्ता पक्ष की आलोचना करने और अपनी राजनीति चमकाने का सुनहरा अवसर हाथ लगता है। घोटाले के बिना राजनीति बाबाजी के ठल्लू की तरह अधर में लटकती रहती है। घोटाले की खबर नियाग्रा की वह गोली है जिसके सुनने मात्र से राजनीति जवान हो जाती है।
साहित्य में रुचि रखने वाले आभासी दुनियां के रण बांकुरे छोटी छोटी पोस्ट डाल कर मोटी पुस्तक के लिए सामग्री जुटाते हैं। इस क्रम में वे दूसरों की पोस्ट भी पढ़ते हैं। अच्छे अच्छे आलोचकों को यहां प्रशंसा मोड में देखा जा सकता है। वे दूसरों की पोस्ट खूब ध्यान से मन लगाकर प्रशंसा करने की नेक नियति से पढ़ते हैं।
कुछ तो अच्छा लिखा मिल जाय जिसकी प्रशंसा की जा सके! एक लाइन ही सही। एक अच्छी लाइन मिल गई तो बढ़िया कमेंट तैयार। एक भी अच्छी लाइन न मिली तो वाह! और सुंदर जैसे शब्द न्योछावर कर आगे बढ़ जाते हैं। यूं समय बरबाद करके जो कमेंट बैक सुख मिलता है उससे उनकी लेखन क्षमता में हरास होता है या वृद्धि ये तो वही जाने लेकिन इस कमेंट कमेंट के खेल से लेखकों में व्याप्त नकारात्मकता दूर होती है और सकारात्मक सोच विकसित होती है। राजनेता भी अब इस गुण को भांप कर अपने कार्यकर्ताओं को आभासी दुनियां में सक्रीय रहने का उपदेश देते रहते हैं। यह भी संभव है कि राजनेताओं के देखा देखी चोर डाकू भी आभासी दुनियां में संत बने घूम रहे हों! अब यह खतरा तो उठाना ही पड़ेगा। अब इसी पोस्ट को लें। मुझे पक्का विश्वास है कि इसकी भी आलोचना नहीं होगी। प्रशंसा और लाइक ही मिलेगी भले कम मिले।

भोले की आरती ख़तम हो चुकी। भण्डारी स्टेशन पर पचीस मिनट पहले ही आ कर खड़ी है गोदिया। समय होगा तभी चलेगी। लेट आने पर लेट चलती है, बिफोर आती है तो समय से चलती है। आज लोहे के घर के कोपचे में बैठे हैं। ऊपर, मिडिल और नीचे एक एक बर्थ सामने दीवार। दाएं सामने की ओर दरवाजा, बाएं खिड़की। यह कोना तो लोहे के घर का कोपभवन लगता है! लेट कर देश की चिंता करते हैं।
लाख छेद बन्द करो घर में चूहे आ ही जाते हैं। लाख नल बन्द करो कहीं न कहीं पानी टपकता ही रहता है।मच्छरदानी चाहे जितना कस कर लगाओ, सुबह एक न एक खून पी कर मोटाया मच्छर दिख ही जाता है। यही हाल अतंकवादी का है, यही हाल घोटाले का है। हम यह ठान लें कि न खाऊंगा, न खाने दुंगा तो भी एकाध चूहे फुदकते दिख ही जाते हैं। हम भले न खाएं वे तो खाने के लिए ही धरती पर अवतरित हुए हैं। अन्न न मिला तो किताब के पन्ने, कपड़े.. जो मिला वही खाने लगते हैं। एकाध चूहों के खाने से, एकाध मच्छर के खून पीने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। घर की दिनचर्या रोज की तरह चलती रहती है। आफत तो तब आती है जब दीवारें दरकने लगती हैं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। दुर्घटना उस घर में अधिक घटती है जहां जनसंख्या अधिक और नियंत्रण करने वाला एक। संयुक्त परिवार के बड़े से घर में जहां सारा बोझ मुखिया के कन्धे पर होता था सभी सदस्य आंख बचा कर मौज उड़ाने की जुगत में रहता था और घर की चिंता का सारा बोझ घर का मुखिया ही उठाता था। ऐसे घर में चूहे भी आते, मच्छर भी होता, खटमल भी निकलते और नल की टोंटी भी खुली रह जाती।
राजशाही में राजा ही सब कुछ होता था। वह सर्वगुण सम्पन्न हुआ तो देश अच्छा चला, गुणहीन हुआ तो देश गुलाम हुआ। तानाशाह हुआ तो जनता हाहाकार करने लगी, दयालू हुआ तो जनता मौज करने लगी। राजशाही की इन्हीं कमियों ने लोकतंत्र को जन्म दिया। सत्ता के अधिकारों और दायित्वों का राज्यों, शहरों, कस्बों से लेकर गांवों तक समुचित वितरण और केंद्र का कड़ा नियंत्रण। जनता का, जनता के लिए जनता के द्वारा शासन। यह एक सुंदर और कल्याणकारी व्यवस्था है। यह व्यवस्था उस देश में अत्यधिक सफल रही जहां जनसंख्या कम और शिक्षा का प्रतिशत अधिक रहा। भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में जनसंख्या भी अधिक और शिक्षा का स्तर भी दयनीय। कोढ़ में खाज राजनेताओं/धर्मोपदेशकों की कृपा से धर्म और जाति के आधार पर बंटी जनता। अब ऐसे माहौल में आतंकवादी न आएं, घोटाले न हों तो यह स्वयं में एक बड़ा चमत्कार होगा। देश की मूल समस्या जनसंख्या नियंत्रण और शत प्रतिशत साक्षरता है। इंदिरा जी ने जनसंख्या नियंत्रण को समझा तो नौकरशाही ने ऐसा दरबारी तांडव किया कि उन्हें सत्ता से ही बेदखल होना पड़ा। उन्हें भी लगा होगा कि सत्ता में बने रहना है तो इस मुद्दे को ही भूल जाओ। फिर किसी ने हिम्मत नहीं करी। मूल समस्या पर किसी का ध्यान नहीं।
गोदिया समय से बनारस पहुंच गई। देश की चिंता फ़ुरसत से मिले बेकार से किसी दूसरे समय में। आप फ़ुरसत में हों और देश की चिंता को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो स्वागत है। आम आदमी फालतू समय में ही देश की चिंता कर सकता है।

ट्रेन पटरी से चिपक कर हवा से बातें कर रही है। जगे यात्री मोबाइल से चिपक कर मजे ले रहे हैं। रात का समय है, कोई देश की चिंता नहीं कर रहा। खबरों से भागने लगे हैं लोग। क्रिकेट, संगीत, वीडियो, आभासी दुनियां की छोटी छोटी पोस्ट या फिर फिलिम। खासकर कामकाजी, मजदूर या किसान..अपने मतलब की बातें जान लिए फिर दूसरी खबरों से ऐसे भागते हैं जैसे किसी सर्प को देख लिया! जैसे कोई पागल कुत्ता काटने ही वाला हो! ख़बरें उनके लिए जिनके पास कोई काम न हो। चैनल वाले चाहें तो रायशुमारी करा लें। जिन खबरों को वे बड़े चाव से दिखाकर बहस कराते हैं उन्हें कामकाजी लोग नहीं देखना चाहते। उनके पास फालतू समय नहीं है। #ट्रेन में बैठकर फालतू समय में भी अब लोग खबरों पर बहस करने से अच्छा आंखें बन्द कर ऊंघना चाहते हैं।

निर्धारित समय पर चल रही है अपनी #फोट्टी_नाइन। भारत में #ट्रेन का निर्धारित समय पर चलना इस बात का संदेश है कि ठंडी जा चुकी है, अच्छे दिन आ चुके हैं। इस रूट पर कई दिनों से पटरियों के दोहरीकरण का काम चल रहा था जिससे निरस्त कर दी गई थीं कई ट्रेनें। अब काम पूरा होने के बाद हवा से बातें करते हुए दुगुने उत्साह से चल रही है ट्रेन।
अपने देखे रास्तों में जौनपुर सिटी से सुल्तानपुर और बलिया से वाराणसी के बीच युद्ध स्तर पर पटरियों के दोहरी करण का काम चला। एक पूरा हो गया और दूसरा भी पूरे होने के कगार पर है। इन मार्गों पर चलते हुए कई बार यह प्रश्न उठता था कि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी हम सिंगल पटरी पर चलने के श्राप से अभिशक्त हैं! क्रासिंग शब्द सुनते-सुनते कान पक चुके। दोहरीकरण की योजनाएं पहले से बनी लेकिन काम अब जाकर पूरा हुआ। इसके लिए वर्तमान सरकार और #भारतीय_रेल की तारीफ की जानी चाहिए। ट्रेनें भले लेट चलीं लेकिन हाल के वर्षों में प्लेटफॉर्म और रेलवे ट्रैक पर खूब काम हुआ। पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह उपेक्षित भू भाग भी विकास के मार्ग पर अग्रसर है। अब उम्मीद है कि ट्रेनें निर्धारित समय पर चलेंगी और यात्रियों का कीमती समय बचेगा। लगता है ट्रेन यात्रियों के अच्छे दिन आने वाले हैं।

1 comment:

  1. ब्लॉग पर सिमटा कर दुनिया का भला किया आपने...आप नहीं जानते कि आप साधुवाद के पात्र हैं

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