25.3.18

मेरे राम

गंगा किनारे फैले बनारस की गलियों में जिसे पक्का महाल कहते हैं, प्रायः घर घर में मन्दिर है। मेरे घर में भी मन्दिर था, मेरे मित्र के घर में भी। मेरे राम काले थे। मेरे मित्र के गोरे। मेरे काले संगमरमर से बने, मित्र के सफेद संगमरमर वाले। बचपन में जब हम दोनों में झगड़ा होता तो मित्र कहता..तेरे राम काले कलूटे! हम कहते.. तेरे राम के शरीर में तो खून ही नहीं है, इसीलिए सफेद हैं। बड़े होने पर अपने झगड़े को याद कर हम खूब हंसते।

कुछ और समझ आईं तो लगा यह झगड़ा तो बड़ा व्यापक है! कबीर के राम और तुलसी के राम में भी भेद है!!! हालांकि दोनों राम को लेकर हमारी तरह आपस में झगड़े नहीं, अपने अपने ढंग से अपने अपने राम को पूजते हुए स्वर्ग सिधार गए मगर दोनों के भक्तों में झगड़ा आज भी है। दोनो के अपने अपने राम हैं! कबीर कहते.. निर्गुण राम भजहूं रेे भाई और तुलसी कहते हैं.. भए प्रकट कृपाला, दीन दयाला..। कहें चाहे जो और जैसे कहें मगर दोनों के राम हैं कृपालु। सभी पर कृपा करने वाले हैं। दोनो के भक्त अपने अपने राम से प्रेम भी खूब करते हैं।  

कुछ दुष्ट भी हैं जो राम को नहीं, रावण को अपना भगवान मानते हैं।  रावण को भगवान मानने वाले, दक्खिन में हैं और धीरे धीरे पूरी तरह दक्खिन में मिल जाएंगे। दख्खिन में मिलने से पहले कृपालु राम उनको बुद्धि दे दें तो उनका भी भला हो जाय। 

बचपन के झगड़े मासूम होते हैं। मासूम झगड़े समझ आने पर खूब हंसाते हैं और आनन्द भी देते हैं। लेकिन समझदारों के झगड़े बड़े खतरनाक होते हैं। राजनीति से प्रेरित होते हैं। यहां प्रेम नहीं, अहंकार टकराता है। मजे की बात यह कि राम इस झगड़े में हस्तक्षेप भी नहीं करते। जैसी करनी तैसी भरनी वाले मूड में चुप हो बैठे रहते हैं।

मेरे पास दोनो राम हैं। काले भी, गोरे भी। तुलसी के भी, कबीर के भी। कबीर के राम मेरे मस्तिष्क में और तुलसी के राम मेरे हृदय में बसे हैं। आज मेरे दिल में बसे राम का जन्मदिन है। 

घर में राम मन्दिर था तो जाहिर है राम नवमी हमारे घर का वर्ष का सबसे बड़ा त्योहार होता था। पिताजी भारतीय जीवन बीमा निगम में मामूली क्लर्क की नौकरी करते थे मगर राम नवमी का उत्सव धूम धाम से मनाते। बनारस की गलियों में स्थित तीन मंजिला पुराना जरजर मकान था जिसकी गली वाली दीवाल मेरे होश संभालने के समय से ही गली की तरफ इतनी झुकी हुई थी कि बरसात के दिनों में लोग इस गली से जल्दी निकल भागना चाहते थे कि कहीं मकान भरभरा के गिर न पड़े और उसी में दब कर मर जाएं! यह अलग बात है कि राम की कृपा से पिताजी गुजर गए लेकिन मकान कभी नहीं गिरा। 

राम नवमी आने से पहले घर में हर वर्ष काम लग जाता। हमारे कंचे खेलने से छत पर बने गढ्ढे हों या बगल के मकान से सटी दीवार के छिद्र सब भर जाते। पूरे घर में नील डाल कर चूने की पोताई होती। मन्दिर के सीलन भरे दीवार चमकने लगते। भगवान राम का पूरा परिवार नए वस्त्र पहन कर सुंदर दिखता। हम बच्चों को नए कपड़े तो नहीं मिलते पर राम, लक्ष्मण, जानकी और माता दुर्गा की प्रतिमा के लिए नए कपड़े जरूर बनते। बजरंगबली केसरिया पोतकर अलग दमकते रहते। सांवरे राम को सजाने के लिए अशोक के पत्ते, फूल मालाएं और बड़ी बड़ी नई आंखें लाई जातीं। जिस मन्दिर में रोज जीरो वॉट का प्रकाश रहता उस मन्दिर में सौ वॉट के बल्ब और झालरें दम दम चम चम दमकते/चमकते रहते। ऊपर प्रसाद बनता नीचे दुर्गा सप्तशती पाठ के बाद भगवान राम की पूजा होती। इधर घड़ी की सूइयां १२ बजाती, उधर भए प्रकट कृपाला दीन दयाला...शुरू। 

हमेशा बन्द रहने वाले घर के दरवाजे भक्तों के दर्शन के लिए खोल दिए जाते। दिन भर भजन कीर्तन चलता रहता। हारमोनियम, तबला, बैंजो और बांसुरी पर हर उम्र के लड़के हाथ आजमाते। देर रात तक भजन कीर्तन चलता। मजे की बात यह कि यह कहानी केवल हमारे घर की हो ऐसा नहीं है। बनारस के पक्के महाल की गलियों में कई राम मन्दिर हैं। अपने घर का प्रसाद मिलने के बाद हम बच्चे गोल बनाकर गली के सभी मंदिरों में प्रसाद पाने के लालच में घूम घूम कर दर्शन करते। दर्शन के बाद मन्दिर के पुजारी के आगे बढ़े हुए दाहिने हाथ की अंजुरी को नीचे से बाएं हाथ की अंजुरी सहारा देती। अंजुरी में एक चम्मच चरणामृत गिरता और गप्प से मुंह के अंदर। सचमुच अमृत की तरह मीठा होता था चरणामृत का स्वाद! 

मेरा भगवान राम से प्रथम मिलन कब हुआ यह मैं नहीं बता सकता। जैसे कोई बच्चा कैसे बताएगा कि उसने अपने पिताजी को कब देखा? मां को कब देखा? बड़े भाई या बड़ी बहन को कब देखा? वैसे ही मैं यह नहीं बता सकता कि भगवान राम से पहली बार कब मिला! मेरे घर ही राम मन्दिर था और राम मेरे घर के ही सदस्य थे। बिना राम को नहलाए, कपड़े पहनाए, भोजन कराए कोई घर में भोजन कर ही नहीं सकता था। अब कैसे कहें कि मन्दिर की मूर्तियां निर्जीव थीं! घर के किसी सदस्य का कोई सुख ऐसा नहीं होगा जिसमें सबसे पहले राम को भोग न लगा हो। कोई दुःख ऐसा न होगा जो राम को पता न चला हो। आंसू की बूंदें छलकी होंगी तो सबसे पहले प्रभु राम के चरणों में। माता पिता से जो बात न कह सके वो राम से कह दिया। कभी कोई गलत काम का विचार भी मन में आया तो मन में भय लगा रहा कि कोई देखे या न देखे राम तो देख ही लेंगे! उनको पता चल गया तब? कहने का मतलब यह कि मेरे राम तो मेरे जन्म से ही मुझसे जुड़े रहे। बचपन में भले हम सुंदर काण्ड से ज्यादा राम चरित्र मानस न पढ़े हों लेकिन मेरे राम तुलसी के राम से तनिक भी उन्नीस न थे। 

जैसा कि मध्यम वर्गीय परिवार में होता है कि जब परिवार बड़ा और कमाने वाला एक हो, मासिक आय निर्धारित हो तो मुखिया इतना मितव्ययी हो जाता है कि घर के सभी सदस्य उसे कंजूस समझने लगते हैं। जब तक अपने सर पर ओले नहीं पड़े पिताजी को भी सभी कंजूस ही समझते थे। मेरे घर के राम मंदिर में भी जीरो वॉट का एक ही बल्ब जलता था। सुबह की बात तो और थी। बगल में गंगाजी थीं तो गंगा स्नान करना, गंगाजल लाना, नहलाना आनन्द दायक काम था लेकिन शाम को मन्दिर में अगरबत्ती जलाने, नैवेद्य चढ़ाने और घंटा बजाने के लिए घर की सीढ़ियां उतरना बच्चे के लिए टेढ़ी खीर होती थी। मेरे राम काले संगमरमर के सांवले राम थे। अंधेरे में चमकतीं बड़ी-बड़ी आंखों को दूर से देखकर ही भय लगता था। यूं तो बड़े भाई लोग ही शाम की पूजा में जाते मगर यदि भैया कभी पढ़ रहे हों तो वे मुझे ही जाने का आदेश दे देते। यह तब की बात है जब मैंने स्कूल जाना शुरू भी नहीं किया था।

अंधेरे में घर की सीढ़ियां उतरना, राम जी के सामने खड़े होकर अगरबत्तियां जलाना, नैवेद्य चढ़ाना और घंटी बजाना बड़े साहस का कार्य हुआ करता था। बिना गए कह भी नहीं सकते थे की अगरबत्ती जला दिए! घर में जो जहां हो, घंटी की आवाज़ जरूर सुन रहा होता। घंटी की आवाज़ मतलब भोजन मिलने की सूचना। सीढ़ियां उतरते समय हर कदम उनको गरियाता और सीढ़ियां चढ़ते समय हर कदम उनको धमकाता कि आने दो पिताजी को...। मेरी राम से यारी बाद में हुई पहले तो मुझे उनसे बहुत भय लगता था।

जय राम जी की।

9 comments:

  1. अप्रतिम आ0 पांडेय जी

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-03-2017) को "सरस सुमन भी सूख चले" (चर्चा अंक-2922) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत रोचक और मनोहारी संस्मरण..तुलसीदास भी तो ऐसा ही कुछ कह गये हैं, भय बिन होत न प्रीति.. बचपन का भय ही बाद में प्रेम में बदल गया, आपकी राम भक्ति को प्रणाम !

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  4. बहुत रोचक संस्‍मरण

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