Nivedita Srivastava
पसन्दीदा किताबों की बात चल रही है ... और सच बोलूँ तो आजतक कोई किताब मुझे ऐसी मिली ही नहीं जिसको मैं एकदम ही नापसन्द कर सकी होऊं । हर किताब ,या कह लूँ कि हर अक्षर ही मुझे कुछ न कुछ सिखा गया है - कभी दुलरा कर तो कभी धमका कर 😊
जिन लेखकों को ज्यादा पढ़ा है वो हैं सर्व श्री अमृतलाल नागरजी ,बच्चनजी ,अमृताप्रीतम ,शिवानी ,शरतचन्द्र ,बंकिमचन्द्र ,रविन्द्र नाथ टैगोर ,नरेंद्र कोहली ,देवकीनंदन खत्री ,इस्मत चुगताई ,कमला दास ,शौकत थानवी ,मनोहर श्याम जोशी ,भगवतीचरण वर्मा ,राजकृष्ण मिश्र .....
सब को सिर्फ पढा ही नहीं ,मन में कुछ न कुछ गढ़ा भी है ... 🙏
स्त्री चरित्र का सबसे अच्छा निरूपण अमृतलाल नागर जी के उपन्यास "सुहाग के नूपुर" में मिला था । परन्तु वो चित्रण या विश्लेषण मानवीय अधिक लगा ,जो सहज भाव से बह निकला था ।
जब #भगवतीचरण #वर्मा जी का उपन्यास "रेखा" पढ़ा तब समझ मे आया कि किसी पात्र का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कैसे किया जाता है और दिल से उस लेखनी को नमन किया कि लेखन में सम्वेदनशीलता कैसे बरकरार रखी जा सकती है । रेखा अपने गुरु प्रभाशंकर , जिनके निर्देशन में थीसिस लिख रही होती है ,से विवाह कर लेती है । वय का ,परिपक्वता का ,परिवेश का अंतर वैवाहिक जीवन मे कितने विकार ला सकता है और इस विकार का अंत कितना पीड़ादायक हो सकता है , ये इसमें बेहद शालीन रूप से वर्णित है । रेखा की जिस सोच से एक पल को वितृष्णा होती है अगले ही पल वो उस की विवशता दिखा सहज कर जाती है । प्रभाशंकर के अपनी इतनी कम उम्र की शिष्या से विवाह जहाँ एक रोष जगाता है ,वहीं एक सामान्य मानवीय प्रकृति भी लगती है । मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से पढ़ें चाहे सिर्फ पढ़ने के लिये ही पढ़ें ,भगवतीचरण जी की लेखनी अपना लोहा मनवा ही लेती है ।
दूसरी किताब #राजकृष्ण #मिश्र जी की है "दारुलशफा" .... इस को पढ़ते हुए राजनीति के विविध दुरूह दाँव - पेच दिखते हैं । दलबदलू सदस्य हों या सदस्य विरोध न कर पाएं इसलिए उनको रास्ते से हटाना हो ,या अंतिम पल में सियासती लाभ के लिये बदलते चेहरे ... सब एकदम सजीव वर्णन लगता है । इन सभी घटनाओं की सहज स्वीकार्यता ही लेखक की सफलता है ।
दोनों ही किताबें एकदम अलग मूड की हैं ,पर पढ़ने के बाद ठगे गए कि अनुभूति नहीं होती ,अपितु ठगे रह गए लगता है !
आज के लिये मैं जिनको टैग करने जा रही हूँ ,जानती हूँ उनके पास समय का अभाव रहता है ,पर उनकी पसंद को पढ़ना जानना अपनेआप में किसी पुरस्कार से कम नहीं होगा ... इसलिए आज मैं उनको ही टैग करूँगी बेशक जब भी फुर्सत पाएं तब वो लिखें ... इतनी बातों से ये अंदाजा तो हो ही गया होगा कि इतने अधिकार से और धमका के मैं किसको बुलाऊंगी ... जी हाँ आइये सलिल वर्मा भइया 🙏
पसन्दीदा किताबों की बात चल रही है ... और सच बोलूँ तो आजतक कोई किताब मुझे ऐसी मिली ही नहीं जिसको मैं एकदम ही नापसन्द कर सकी होऊं । हर किताब ,या कह लूँ कि हर अक्षर ही मुझे कुछ न कुछ सिखा गया है - कभी दुलरा कर तो कभी धमका कर 😊
जिन लेखकों को ज्यादा पढ़ा है वो हैं सर्व श्री अमृतलाल नागरजी ,बच्चनजी ,अमृताप्रीतम ,शिवानी ,शरतचन्द्र ,बंकिमचन्द्र ,रविन्द्र नाथ टैगोर ,नरेंद्र कोहली ,देवकीनंदन खत्री ,इस्मत चुगताई ,कमला दास ,शौकत थानवी ,मनोहर श्याम जोशी ,भगवतीचरण वर्मा ,राजकृष्ण मिश्र .....
सब को सिर्फ पढा ही नहीं ,मन में कुछ न कुछ गढ़ा भी है ... 🙏
स्त्री चरित्र का सबसे अच्छा निरूपण अमृतलाल नागर जी के उपन्यास "सुहाग के नूपुर" में मिला था । परन्तु वो चित्रण या विश्लेषण मानवीय अधिक लगा ,जो सहज भाव से बह निकला था ।
जब #भगवतीचरण #वर्मा जी का उपन्यास "रेखा" पढ़ा तब समझ मे आया कि किसी पात्र का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कैसे किया जाता है और दिल से उस लेखनी को नमन किया कि लेखन में सम्वेदनशीलता कैसे बरकरार रखी जा सकती है । रेखा अपने गुरु प्रभाशंकर , जिनके निर्देशन में थीसिस लिख रही होती है ,से विवाह कर लेती है । वय का ,परिपक्वता का ,परिवेश का अंतर वैवाहिक जीवन मे कितने विकार ला सकता है और इस विकार का अंत कितना पीड़ादायक हो सकता है , ये इसमें बेहद शालीन रूप से वर्णित है । रेखा की जिस सोच से एक पल को वितृष्णा होती है अगले ही पल वो उस की विवशता दिखा सहज कर जाती है । प्रभाशंकर के अपनी इतनी कम उम्र की शिष्या से विवाह जहाँ एक रोष जगाता है ,वहीं एक सामान्य मानवीय प्रकृति भी लगती है । मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से पढ़ें चाहे सिर्फ पढ़ने के लिये ही पढ़ें ,भगवतीचरण जी की लेखनी अपना लोहा मनवा ही लेती है ।
दूसरी किताब #राजकृष्ण #मिश्र जी की है "दारुलशफा" .... इस को पढ़ते हुए राजनीति के विविध दुरूह दाँव - पेच दिखते हैं । दलबदलू सदस्य हों या सदस्य विरोध न कर पाएं इसलिए उनको रास्ते से हटाना हो ,या अंतिम पल में सियासती लाभ के लिये बदलते चेहरे ... सब एकदम सजीव वर्णन लगता है । इन सभी घटनाओं की सहज स्वीकार्यता ही लेखक की सफलता है ।
दोनों ही किताबें एकदम अलग मूड की हैं ,पर पढ़ने के बाद ठगे गए कि अनुभूति नहीं होती ,अपितु ठगे रह गए लगता है !
आज के लिये मैं जिनको टैग करने जा रही हूँ ,जानती हूँ उनके पास समय का अभाव रहता है ,पर उनकी पसंद को पढ़ना जानना अपनेआप में किसी पुरस्कार से कम नहीं होगा ... इसलिए आज मैं उनको ही टैग करूँगी बेशक जब भी फुर्सत पाएं तब वो लिखें ... इतनी बातों से ये अंदाजा तो हो ही गया होगा कि इतने अधिकार से और धमका के मैं किसको बुलाऊंगी ... जी हाँ आइये सलिल वर्मा भइया 🙏
बचपन से ही पुस्तकों से गहरा नाता रहा है। शुरुआत हुई चंदामामा, मधु मुस्कान, चम्पक, नंदन, पराग आदि से। बचपन के उपहार थे पंचतंत्र की कहानियाँ और नैतिक शिक्षा की कहानियाँ। ये पुस्तक पाकर बाल मन रमता गया इन किताबों की अनोखी दुनिया में। इसके बाद रामचरित मानस, श्रीमद्भगवद्गीता, सरिता, गृहशोभा, सहेली जैसी पुस्तकों ने जीवन को राह दी।
उसके बाद सिलसिला मुंशी प्रेमचंद, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र, बंकिमचंद्र,हजारी प्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती जैसे अपने समय के ख्यातिमान साहित्यकारों से उनकी कृतियों द्वारा पहचान हुई और अपनापन बढ़ता ही गया। यूँ कहूँ कि मेरे लिए एक सच्ची सखा हैं पुस्तकें।
पुस्तकों से पहचान और जानकारी की अनूठी श्रृंखला में जब @ वाणी जी, Sangita Asthanaसंगीता अस्थाना दी, वंदना अवस्थी दुबेवंदना दी, Sadhana Vaidसाधना दी ने मुझे आवाज़ दी तो याद आए मुंशी प्रेमचंद और उनका उपन्यास "गोदान,"
यूँ तो मुंशी प्रेमचंद की प्रत्येक रचना जन-जीवन का आईना है, परन्तु मुझे उनमे से सबसे अधिक प्रिय है ‘गोदान’.... गोदान हिंदी साहित्य की एक अमूल्य निधि है। वर्षों पुराना होने के बावजूद इस उपन्यास की मौजूदा समय में भी अपनी अद्भुत प्रासंगिकता के साथ महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसे पढ़ते हुए महसूस होता है मानो हमारी अपनी ही या हमारे आसपास घटित घटना हो।
गोदान को प्रेमचन्द का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास के साथ - साथ सर्वोत्तम कृति भी माना जाता है। इसका प्रकाशन १९३६ ई० में हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई द्वारा किया गया था।
भारतीय ग्राम्य समाज एवं परिवेश के सजीव चित्रण के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है। प्रेमचंद के लेखन में शहरी, कस्बाई और ठेठ देहाती जीवन के सजीव हो उठता है।
कहानी होरी और धनिया नामक एक कृषि दम्पति के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती हैं। किसी भी ग्रामीण की भाँति होरी की भी हार्दिक अभिलाषा है, कि उसके पास भी एक पालतू गाय हो और वह गौमाता की सेवा करे। इसके लिए किये गए होरी के प्रयासों से आरम्भ होकर यह कहानी कई सामजिक कुरीतियों पर कुठाराघात करती हुई आगे बढ़ती है। गोदान ज़मींदारों और स्थानीय साहूकारों के हाथों गरीब किसानो का शोषण और उनके अत्याचार की सजीव व्याख्या है। भारतीय जन-जीवन का खूबसूरत चित्रण, समाज के विभिन्न वर्गों की समस्याओं के प्रति लेखक का प्रगतिशील दृष्टिकोण एवं किसानों की दयनीय अवस्था का ऐसा मार्मिक वर्णन पढ़ना ही अपने आप में एक अनूठा अनुभव है । इसी के साथ ही शहरीकरण और नवीन शिक्षित वर्ग की एक कथा इस ग्रामीण कथा के साथ चलती है। कहानी में शहरी युवा नायकों के मनोभाव और अपने उत्तरदायित्वों के प्रति कर्तव्यबोध होने तक की उनकी यात्रा दर्शायी गयी है। कहानी का अंत दुखद है और पाठकों के मन में कई सवाल छोड़ जाता है।
गोदान ना सिर्फ एक उम्दा एवं संवेदनशील कहानी पढ़ने के शौक के रूप में पढ़ी जा सकती है अपितु दूसरी ओर इसमें विकसित की गयी विचारधाराएं, नीतियाँ एवं आदर्श भी स्वतः ही मन पर गहरी छाप छोड़ने में सक्षम है ।
किसानों की जो दशा उस ब्रिटिश काल में थी आज विकास के इतने वर्षों बाद भी हमारे कृषिप्रधान देश का अन्नदाता उन्ही समस्याओं से जूझ रहा है ......! आज भी महाराष्ट्र, बुंदेलखंड , आँध्रप्रदेश के किसानो के पास आत्महत्या ही अंतिम विकल्प क्यों है ......?
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पुस्तक श्रृंखला- तीसरा दिन।
आज चर्चा करूंगी बलवंत सिंह के उपन्यास "चक पीरां का जस्सा" और कृष्णचन्दर के "दादर पुल के बच्चे" की।
बलवंत सिंह हिंदी-उर्दू के महत्वपूर्ण कथाकारों में से एक हैं। चक पीरां का जस्सा 1977 में प्रकाशित हुआ, और बलवंत सिंह के श्रेष्ठ उपन्यासों में गिना गया। उपन्यास साढ़े चार सौ पृष्ठों का है इसमें बारह अध्याय हैं।उपन्यास का हर अध्याय पंजाब के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि वारिस शाह की हीर के उद्धरण से शुरू होता है।
’चक्का पीरां का जस्सा‘ उपन्यास में बलवंत सिंह की कथाशैली अपने सबसे प्रभावी रूप में व्यक्त हुई है। उपन्यास की कथा पंजाब की पृष्ठभूमि पर ही है– पंजाब के गांवों के धाकड़ व बलशाली जाटों का अपनी शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन, लेकिन बलवंत सिंह साधारण लगने वाली कथा को भी अपनी कथाशैली द्वारा चमत्कारिक रूप से आकर्षक बना कर प्रस्तुत करते हैं, जो इस उपन्यास में भी हुआ है।
उपन्यास में चाचे -भतीजे के परस्पर प्रेम व घृणा तथा भतीजे जस्से की अपनी प्रेमकथा को बयान किया गया हैं।
’चक्क पीरां का जस्सा‘ की कथा में गज़ब प्रवाह हैं। पूरे उपन्यास में शहर का कोई चित्र नहीं, सिर्फ़ ज़िक्र है। उपन्यास में ग्रामीण परिवेश का ही चित्रण है। 80-85 साल पहले गांवों में विधवा विवाह करवाना एक बड़े सामाजिक मूल्य को स्थापित करना है, जो उन सामंतवादी मूल्यों को चकनाचूर करता है, जो स्त्री को केवल चारदीवारी में बंद देखना चाहते है।
कुल मिलाकर ’चक्क पीरां का जस्सा‘ उपन्यास में बलवंत सिंह अपनी रोमांटिक उपन्यासों की परंपरा का श्रेष्ठ रूप व्यक्त करने में सफल हुए हैं।
दूसरा उपन्यास है, कृष्णचन्दर का दादर पुल के बच्चे। छोटा सा उपन्यास है, लेकिन बहुत बड़ा ज़िक्र है। इस उपन्यास में दादर पुल पर भीख मांगने वाले बच्चों की कथा है। उपन्यास में मुम्बई में भिखारियों के गिरोह का वर्णन है । वे किस तरह बच्चों को पकड़ते हैं और उनसे भीख मंगवाते हैं । उपन्यास में फंतासी है कि भगवान खुद एक बच्चा बन कर मुम्बई आते हैं और लेखक जो कि एक बच्चा है उसके दोस्त बन जाते हैं । फिर दोनो मिलकर बच्चों से भीख माँगने का धन्धा करवाने वाले गिरोह का पता लगाते हैं लेकिन दोनो ही पकड़े जाते हैं और जब उन्हे पता चलता है कि एक को लंगड़ा और दूसरे को अन्धा बनाकर भीख माँगने के लिये तैयार किया जा रहा है , वे वहाँ से निकलते हैं । बच्चा तो भाग निकलता है लेकिन भगवान पकड़े जाते हैं । उपन्यास का अंत लेखक के इस वाक्य से होता है.. “ एक दिन मैने देखा कि भगवान अन्धे बच्चे के रूप में दादर पुल पर भीख माँग रहे हैं । इतना शानदार अंत बहुत कम पढ़ा-देखा।
दोनों उपन्यास हिंदी साहित्य में अपना ऊंचा स्थान रखते हैं, कहीं मिलें, तो ज़रूर पढ़ें। कड़ी को आगे बढाने के लिए मैं RN Sharma और Sandhya Sharma को नामांकित करती हूँ।
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