3.12.18

ओ दिसम्बर!-3

लोहे के घर की शाम 
ठंडी हो चली है
अच्छी नहीं लगती
खिड़कियों से आती
सुरसुरी हवा
पाँच बजते ही
ढलने लगता है सूरज
छोटी हो चली है
गोधूलि बेला।

हवा में तैर रही है
कोहरे की
एक लंबी रेखा,
पगडण्डी-पगडण्डी
सर पर बोझा लादे
चली जा रही 
एक घसियारिन,
खेत-खेत
भागा जा रहा 
लँगड़ा कुत्ता,
धुएँ से लिपटी
छोटी सी 
इक लपट दिखी थी,
किसी कामगार का
चूल्हा जला होगा।

थरथराई है
पूरी ट्रेन
काँप गया होगा
सई नदी का पुल
प्यार या दर्द
इक तरफा नहीं होता
हम जिस तरफ होते हैं
महसूस
वही होता है।

ओ दिसम्बर!
तेरे आते ही
छाने लगे हैं कोहरे
अंधियारे में
एक अंगीठी 
सुलग रही है
मेरे मन में
नए वर्ष की
नई जनवरी
उतर रही है।
............

3 comments:

  1. मौसम की करवट है यह तो - नई जनवरी की उत्कंठा जगानेवाली !

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  2. बहुत सुंदर...नये वर्ष की भनक देती

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