22.12.18

ओ दिसम्बर! (5)

जानता हूँ
जाते-जाते
अनगिन जादू दिखलाएगा
हिम शिखरों से
झौआ भर-भर
बादल, कोहरा
ले आएगा

अभी तो मफलर जैकेट से ही
काम चल रहा अपना
दिन में खिलती धूप गुनगुनी
समय कट रहा अपना
कल जब बादल घिर आएँगे
लकड़ी जलवाएगा।

जानता हूँ
जाते-जाते
अनगिन जादू दिखलाएगा।

अभी तो जाड़ा मस्त गुलाबी
मन चाहा बाजार
सुबह मलइयो, दिन अमरूदी,
शाम मूँगफली यार!
बर्फीली बारिश में क्या
मदिरा मिलवाएगा?

जानता हूँ
जाते-जाते
अनगिन जादू दिखलाएगा।

ओ दिसम्बर!
बहुत बड़ा जादूगर लेकिन
तू भी है लाचार
नई हवा की लटक रही है
तुझ पर भी तलवार
क्या गोरी से फिर छत पर
स्वेटर बुनवाएगा?
क्या अचार के मर्तबान को
धूप दिखा पाएगा?
या नई हवा में, पीट के माथा
भक्काटा हो जाएगा?

ओ दिसम्बर!
जानता हूँ
जाते-जाते
अनगिन जादू दिखलाएगा।
.......

4 comments:

  1. बहुत बढ़िया

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  3. नए एहसास से लबरेज़ पोस्ट... बढ़िया...

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