18.6.19

लोहे का घर-52

गरमी के तांडव से घबराकर घुस गए ए. सी. बोगी में। दम साधकर बैठे हैं लोअर बर्थ पर। बाहर प्रचण्ड गर्मी, यहाँ इतनी ठंडी कि यात्री चादर ओढ़े लेटे हैं बर्थ पर! ए. सी.बोगी में गरमी तांडव नहीं कर पाती, गेट के बाहर चौकीदार की तरह खड़ी हो, झुनझुना बजाती है। पैसा वह द्वारपाल है जो हर मौसम को अपने ठेंगे पर रखता है।

भीतर दो यात्री बैठने के प्रश्न पर तांडव मचा रहे हैं। लोअर बर्थ वाला बैठना चाहता है, मिडिल बर्थ वाला लेटना चाहता है। मिडिल बर्थ वाला कहता है.. मेरी बर्थ है, मैं क्यों गिराऊँ? मुझे नहीं बैठना, लेटना है। लोअर बर्थ वाला नियम बता रहा है..सुबह छः बजे से शाम दस बजे तक आप सो नहीं सकते। आपको बर्थ गिराना होगा। मन कर रहा है, जाकर नियम की जानकारी दूँ। बुद्धि कहती है.. चुपचाप बैठो रहो, झगड़े में पड़े और किसी ने पूछ लिया..आपकी कौन सी बर्थ है तो? जो खुद गलत हो उसे दूसरे को सही/गलत का उपदेश नहीं देना चाहिए। कछुए की तरह मुंडी घुसाकर हरि कीर्तन करना चाहिए। खैर कुछ सही लोग भी थे अगल-बगल जिन्होंने मामला सुलझाया और झगड़ा आगे नहीं बढ़ा।
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शाम के 6 बज चुके हैं लेकिन लोहे के घर की खिड़कियों से घुसी चली आ रही हैं सूर्य की किरणें। ढलते-ढलते भी, दहक/चमक रहे हैं, सुरुज नरायण! भीड़ है लोहे के घर में। एक स्लीपर बोगी के लोअर बर्थ में एक महिला लेटी हुई थीं। न वो उठने को तैयार हुईं न किसी की दाल गली। मैने कहा..आप आराम से लेटिए, मुझे बस, मिडिल बर्थ उठाने दीजिए। वो तैयार हो गईं। अब मैं भी लेटा हूँ मिडिल बर्थ में, वो भी सो रही हैं आराम से। जो महिला को उठाने का प्रयास कर रहे थे, मुँह बनाकर आगे बढ़ चुके। थोड़ा दिमाग चलाओ, प्रेम से बोलो तो बिगड़े काम भी बन सकते हैं। झगड़ने या कानून बताने से आसान काम भी कठिन हो जाता है।

गरमी का हाल यह है कि किसी टेसन में जब गाड़ी रुकती है तो प्यासे यात्री, खाली बोतल लेकर, पानी की तलाश में, प्लेटफॉर्म पर दौड़ते/भागते नजर आते हैं। इनमें मिडिल क्लास के मध्यमवर्गीय हैं, जनरल बोगी के गरीब हैं। इनमें सबके वश में नहीं होता, ए. सी. क्लास की तरह मिनिरल वाटर खरीदना। हैंडपम्प के इर्द-गिर्द गोल-गोल भीड़ की शक्ल में जुटे सभी यात्रियों में एक समानता है, सभी आम मनुष्य हैं। पलटकर बार-बार देखते रहते हैं ट्रेन। कहीं चल तो नहीं दी! कान खरगोश की तरह इंजन के हॉर्न पर, निगाहें अर्जुन के तीर की तरह बूँद-बूँद गिर रहे पानी पर। जिसकी बोतल भर जाती है, जरा उसकी विजयी मुद्रा तो देखिए! आह! जनम का प्यासा लगता है। खड़े-खड़े घुसेड़ देना चाहता है पूरी बोतल, अपने ही मुँह में! गट गट, गट गट।

ट्रेन का हारन बजा, रेंगने लगी प्लेटफॉर्म पर। भीड़ काई की तरह छंट गई। जो खाली बोतल लिए लौटे उनके चेहरे ऐसे लटके हुए थे जैसे धर्मराज जूएँ में हस्तिनापुर हार गए हों! जो बोतल भर कर लौटे वे ऑस्ट्रेलिया को विश्वकप में हराने वाली क्रिकेट टीम की तरह उछल रहे थे! गरमी का और आनन्द लेना हो तो जनरल बोगी में चढ़ना पड़ेगा। जब पड़ती है मौसम की मार तब पता चलता है कि आदमियों के कई प्रकार होते हैं। एक लोहे के घर में कई प्रकार की बोगियाँ होती हैं। स्वर्ग भी यहीं है, नर्क भी यहीं है। 

भगवान का नहीं, उत्तर रेलवे के नियंत्रक का शुक्र है कि ट्रेन हवा से बातें कर रही है। हवा भी ट्रेन से बातें करते-करते, खिड़कियों के रास्ते मुझे छू कर निकल रही है। गर्म है तो क्या! हवा तो हवा है। नियंत्रक सो जाय या किसी काम में डूबा सिगनल देना भूल जाए तो ट्रेन रुक सकती है। ट्रेन के रुकते ही हवा भी रुक सकती है। सूरज के साथ नियंत्रक ने भी तांडव दिखाया तो आम आदमी हवा के लिए भी मोहताज हो जाएंगे। अब चीजें मुफ्त नहीं मिलतीं। धूप, हवा और पानी मुफ्त लुटाने वाले भगवान को भी नहीं पता कि उनके बाद धरती पर नियंत्रक और भी हैं। 
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सुबह 9 बजे का समय है। वाराणसी कैंट से आगे बढ़ चुकी है, हावड़ा-अमृतसर। बहुत ही शानदार दृश्य है। पाँच पंजाबी महिलाएं मिस्सी रोटी और आम का अचार खा रही हैं और खाते-खाते आपस में खूब बतिया रही हैं। आप कहेंगे इसमें शानदार क्या है?
शानदार यह है कि तीन महिलाएं, सामने के तीन बर्थ पर, एक के ऊपर एक क्रम से बैठी हैं और दो, साइड लोअर/साइड अपर बर्थ पर, एक के ऊपर एक। मैं तस्वीर खींचने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा। सभी बहुत हट्टी-कट्टी हैं। 
बगल की बोगी से एक और आ गयीं..ओए! कित्थे बैठी है? अब छवों महिलाएं, भंयकर अंदाज में, रहस्यमयी बातें कर रही हैं! अपने इलाके की महिलाएं भी जब रहस्यमयी अंदाज में आपस में, बतियाती हैं तो कोई बात अपने पल्ले नहीं पड़ती, यह तो पंजाबन हैं। इनके हाथ नचाने के ढंग, आँखें फाड़ कर चौंकने का अंदाज और किसी को कोसने जैसा हावभाव देख कर लगता है कि छठी महिला ने जरूर कोई नई खबर शेयर करी है, जिससे ये अपनी मिस्सी रोटी हाथों में धरे-धरे बतियाने में मशगूल हो गई हैं।
छठी महिला अपना काम कर के जा चुकी हैं। अब पाँचों फिर से चटखारे ले कर मिस्सी रोटी खा रही हैं और नई जानकारी पर बहस कर रही हैं। एक चाय वाला आया और सभी चाय-चाय चीखते हुए, चाय लेकर पीने लगीं। चाय पी कर लेट गईं और अब लेटे-लेटे बतिया रही हैं। इनको फोन से बात न हो पाने और नेटवर्क न मिलने का काफी मलाल है। सभी अपनी- अपनी कम्पनी को कोस रही हैं। हाय रब्बा! कोई नई मिलदा नेटवर्क!!! सही बात है, आपस में कितना बतियाया जाय? नेटवर्क मिलता तो कुछ दारजी से भी बातें हो जातीं।

2 comments:

  1. वाह ! रोचक यात्रा वृतान्त..

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