18.6.19

पिता जी



        गंगा की लहरें, नाव, बाबूजी और तीन बच्चे। इन तीन बच्चों में मैं नहीं हूँ। तब मेरा जन्म ही नहीं हुआ था।

पिताजी के साथ अपनी बहुत कम यादें जुड़ी हैं लेकिन जो भी हैं, अनमोल हैं। सबसे छोटा होने के कारण मैं उनका दुलरुआ था। इतना प्यारा कि शायद ही कोई मेरा बड़ा भाई हो जिसने मेरे कारण पिटाई न खाई हो। साइकिल चलाना, गंगाजी में तैरना सिखाना, यहाँ तक कि सरकारी प्राइमरी स्कूल में दाखिला दिलाने भी पिताजी नहीं गए। मेरी टांग टूटे या खोपड़ी फूटे, बुखार आए या पेट झरे, सब जगह बड़े भाई ही दौड़ते। वे सिर्फ डांटते और पैसा देते। उनका मानना था कि सारी मुसीबतें मेरी ही बुलाई हुई हैं। मैं यह समझता हूँ कि पिताजी के पैसे पेड़ में उगते हैं जिन्हें खर्च कराना ही मेरा एकमात्र उद्देश्य है!  प्रत्यक्ष पिताजी कुछ नहीं करते थे लेकिन उनका होना ही मेरे लिए सब कुछ था।

जब तक वे थे मैं आस्तिक था, जब वे नहीं रहे, नास्तिक हो गया। जवानी में कदम रखने से पहले ही वे भगवान के घर चले गए। पिताजी क्या गए मैने उनके सभी भगवानो की छोटी मूर्तियों को, पॉलिथीन में रखा और बक्से में बंद कर दिया। जब पिताजी को नहीं बचा सकते तो भगवान का क्या काम?

एक बार, पिताजी के कंधे पर बैठ, नाटी ईमली का भरत मिलाप देखने गया था। नाटी इमली का भरत मिलाप मतलब बनारस का लख्खा मेला। लाखों की भीड़ में घंटों कंधे पर बिठा कर घुमाने वाला पिताजी के अलावा दूसरा कौन हो सकता था! वे पिता जी ही थे।

जब गणित के किसी सवाल में अटकता, पूछने पर, पिताजी बता देते। वे अधिक नहीं पढ़े थे लेकिन उनके पास मेरे सभी प्रश्नों का हल होता था।

जब हाई स्कूल का रिजल्ट आया, गणित में सौ में 92 नम्बर देख बहुत खुश थे। खुश होकर बोले..मैं तुम्हें ईनाम दूँगा। शाम को मेरे लिए एक टेबल लैम्प ले कर आए! पहले ईनाम में पिज्जा/बर्गर खिलाने या मोबाइल दिलाने का चलन नहीं था।

पिताजी शतरंज के दुश्मन और ब्रिज के खिलाड़ी थे। ब्रिज के खेल में चार खिलाड़ी होते हैं। जब वे तीन होते तो मुझे बुलाकर अपना पार्टनर बना लेते। मैं केवल पत्ते पकड़ता और कलर की  बोली बोलता। बोली फाइनल होते ही मेरे पत्ते या तो बिछ जाते या पिता जी के हाथों चले जाते।

पिताजी एक नम्बर के धोबी और तमोली थे। सुबह उठकर पान के छोटे-छोटे टुकड़े काटते, पान के बीड़े बनाते और उन्हें एक छोटे से लाल कपड़े में लपेट कर, स्टील के पनडब्बे में सहेजते। झक्क सुफेद धोती, कुर्ता पहन कर ऑफिस जाने से पहले घर भर के कपड़े धोना, नील और टीनोपाल से चमकाना उनकी आदत थी। वे भयंकर परिश्रमी थे। उनकी कंजूसी से उनके ईमानदारी का पता चलता था। दस पैसा बचाने के लिए एक दो कि.मी. पैदल चलना आम बात थी।

बाबू जी के मित्र थे स्व0 अमृत राय जी। शायद अपनी साहित्यिक गतिविधियों से पीछा छुड़ाकर यदा-कदा बाबूजी से मिलने ब्रह्माघाट आते। शाम को नैया खुलती और लालटेन की रोशनी में देर शाम तक जाने क्या बातें होती!

तब मैं छोटा बच्चा था। मेरी समझ में कुछ न आता। अमृत राय से बाबूजी की कैसी मित्रता! बाबूजी को धर्मयुग, हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी पढ़ने के अतिरिक्त अन्य किसी साहित्यिक गतिविधी में हिस्सा लेते नहीं देखा। मैं भी अमृत राय के बारे में कुछ जानता न था। उन्हें कभी भाव नहीं देता। वे परिहास करते-कभी तुम्हारे बाबूजी से मेरी कुश्ती हो तो कौन जीतेगा? मैं ध्यान से दोनों को देखता। अमृत राय, बाबूजी से खूब लम्बे, मोटे-तगड़े थे। मैं उनकी बातें सुन हंसकर भाग जाता। कई बार ऐसा हुआ तो एक दिन मुझसे भी रहा न गया। झटके से बोल ही दिया-बाबा आपको उठाकर पटक देंगे!

बाबूजी मेरा उत्तर सुन अचंभित हो मुझे डांटने लगे-तुमको पता भी है किससे बात कर रहे हो? ये मुंशी प्रेम चन्द्र जी के पुत्र हैं। जिनकी कहानियाँ तुम्हारे कोर्स की किताब में पढ़ाई जाती है। चलो! माफी मागो। मैं कुछ कहता इससे पहले अमृत राय जी ने मुझे गोदी में उठा लिया और हंसकर बोले-अरे! बिलकुल ठीक उत्तर दिया लड़के ने। यही उत्तर मैं इसके मुँह से सुनना चाहता था।

पिताजी की मृत्यु 8 जून 1980 के बाद अमृत राय जी का एक अन्तरदेसीय शोक सन्देश आया था और कुछ याद नहीं।

वे कहा करते..रिटायर होते ही हम भी चले जाएंगे। हम सोचते..पता नहीं कहाँ जाएंगे! भारतीय जीवन बीमा निगम से रिटायर होते ही एक दिन वे बीमार पड़े और फिर नहीं उठे। पन्द्रह दिनों की बीमारी के बाद हमे ही उन्हें उठाना पड़ा। उनके शरीर मे कितने रोग थे यह उनके बीमार पड़ने पर डॉक्टरों से ही पता चल पाया। जब तक जीवित थे, मेरे शक्तिमान थे।

7 comments:

  1. पढ़ते पढ़ते मन सीला हो गया ... आँखें नम हो आईं ...
    पिता की यादें लिखना आसान नहीं होता ... उनके गर्व और चुप से रोब को ... कठोर किन्तु कोमल ह्रदय को कहना आसान नहीं रहा होगा लिखना पर लगता है आपने उनको पर्त दर पर्त जिया है ...
    नमन है उन्हें मेरा ...

    ReplyDelete
  2. मेरी भावनाओं से जुड़ने के लिए आभार।

    ReplyDelete
  3. मार्मिक संस्मरण ! सचमुच पिता का होना ही काफी होता है, उनकी उपस्थिति सन्तान के हृदय में एक अलग ही भावदशा को जन्म देती है

    ReplyDelete
  4. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वीरांगना रानी झाँसी को नमन : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

    ReplyDelete
  5. बहुत सुंदर यादें। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
    iwillrocknow.com

    ReplyDelete