28.12.19

सू सू की समस्या

इस कड़ाके की ठंड में लगभग 3 किमी प्रातः भ्रमण के बाद मेरा मित्र अचानक से काफी परेशान दिखा! चलते-चलते दो बार कोने में गया फिर मायूस हो, लौट आया।  मैने पूछा.. क्या बात है? अभी तो ठीक-ठाक थे! उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया...क्या बताएं,  बड़ी तेज सू सू लगी है लेकिन....लोअर उल्टा पहन कर चले आये!😢

समस्या वाकई बड़ी जटिल थी। इस जाड़े में चढ्ढी उल्टी पहनी हो तो फिर भी किसी तरह काम चलाया जा सकता है लेकिन यदि किसी पुरुष ने लोअर उल्टा पहन लिया तो बिना औरत बने काम चलने वाला नहीं है। ☺️ 

मैने कहा...इस समस्या का दो ही समाधान है। धैर्य धारण करो या फिर कोई कोना देख कर बैठ जाओ। एक मिनट के लिए औरत बनने में हर्ज ही क्या है? पुरुषत्व तो रोज राह चलते दिखाते हो! आज नारी बनने में शर्म कैसा? समस्या का समाधान होना चाहिए। कृतिम वस्त्र उतार कर, प्रकृति के साथ एकात्म होने में ही कल्याण है। 

उसे मेरी नेक सलाह बुरी लगी। जमाने से यही होता आया है। मुसीबत के समय दूसरे की नेक सलाह भी बुरी लगती है।अपनी गलती के लिए खेद नहीं, सलाह को उपहास समझ कर चिढ़ जाना मनुष्य का स्वभाव है। किसी को नेक सलाह दो तो वह समझता है मेरा मजाक उड़ाया जा रहा है! लेकिन सलाह यदि वास्तव में सही हुई तो चिढ़ कर मानो या हँसते हुए, करना तो वही पड़ता है। 

मेरे दोस्त को भी मेरी सलाह माननी पड़ी। यह अलग बात है कि जब वह कोना थाम कर सू सू करने बैठा, एक आदमी लठ्ठ लेकर दौड़ता हुआ आ गया....वहाँ क्यों निपट रहे हो?  मैने उस आदमी को समझाया..अरे भाई! रुको-रुको, वह निपट नहीं रहा है, सू सू कर रहा है। लठ्ठ वाला आदमी खड़ा होकर मुझ पर ही घूरने और चिल्लाने लगा...दिखाई नहीं देता? वह आदमी है, औरत नहीं!

मैने कहा...यार! आदमी है तो क्या, बैठ कर सू सू नहीं कर सकता? याद करो! हम हिन्दुस्तानी हैं। हमारे पिताजी बैठ कर ही सू-सू किया करते थे। खड़े होकर करने पर बचपन में हमें मार पड़ती थी। आज यह जमाना आ गया कि कोई बैठ कर सू-सू कर रहा है और तुम लठ्ठ लेकर उसे मारने जा रहे हो!

मेरी बातों ने उस पर गहरा असर किया और वह रुक गया। तब तक मेरा मित्र भी फारिक होकर आ चुका था। वह कुछ बोलता इससे पहले ही लठ्ठ वाले पहलवान ने कहा..हाँ, हाँ, ठीक है। बैठ कर सू-सू करना चाहिए। अभी कल एक पागल यहीं निपट कर गया था। हमने समझा, तुम भी वही हो।

हम लोग हँसते हुए घर की ओर लौट चले लेकिन इस समस्या ने यह भी सोचने पर विवश कर दिया कि हम न हिंदुस्तानी रहे और न अंग्रेज ही बन पाए। अंग्रेजों की तरह खड़े होकर सू-सू करना तो सीख लिए मगर घरों में अलग से यूरिनल बनवाना भूल गए! सार्वजनिक स्थलों में भी आबादी के हिसाब से शौचालय/यूरिनल नहीं बने। पुरुषों के बेशर्म और महिलाओं के सहनशील होने में, सार्वजनिक शौचालयों का भी बड़ा हाथ लगता है।

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