15.3.20

लोहे का घर 58

04-03-2020

आज नॉन स्टॉप ताप्ती मिल गई जफराबाद में। हिजड़ों के एक दल ने ताली पीटकर रोकवा दिया, वरवा यहाँ, जफराबाद में, इसका स्टॉपेज नहीं है। रेलवे कर्मचारी हरा झण्डा दिखा रहा है, सिग्नल ग्रीन बता रहा है मगर आय-हाय, ट्रेन रुक गई।  सही समय से होती तो निकल जाती 4 से पहले, लेट थी तो मिल गई 5 के बाद भी। बहुत शुभ होता है हिजड़ों को देखना। ये दिख गईं तो समझो ट्रेन मिल गई। 

ट्रेन लेट होने से दुखी यात्रियों के बीच हमने हँसते हुए एक डिब्बे में प्रवेश किया। हमारा इरादा किसी के जख्मों पर नमक छिड़कने का नहीं था लेकिन अनजाने में छिड़का गया होगा। ऐसा होता है। किसी की किस्मत फूटती है तो किसी का भाग्योदय होता है। धरती के सभी जीव कभी एक साथ खुश हो ही नहीं सकते। कोई खुश होगा तो कोई दुखी हो रहा होगा। यहाँ दिन ढल रहा है, कहीं दिन निकल रहा होगा। 

लोहे के इस घर में जहाँ मैं बैठा हूँ, एक खुशहाल परिवार है। तीन महिलाएँ हैं, एक पुरुष और एक गोदी का बच्चा। यही बच्चा खुशी का कारण है। कभी किसी की गोदी में, कभी किसी की गोदी में, लगातार किसी न किसी की गोदी में खेल रहा है। एक संभालता है तो बाकी उसका नाम ले ले पुकारते हैं.... पीहू..पीहू। इस परिवार के ऊपर खुशियों की बारिश हो रही है। कभी कोई हँस रहा है, कभी कोई। अपनी खुशी खुद महसूस नहीं होती। ये भी नहीं जान पा रहे होंगे कि ये कितने खुश हैं! 

आगे, इसी बोगी में, कुछ अभागे आपस में झगड़ रहे हैं। जोर शोर से बहस कर रहे हैं। बहस करते-करते मारा मारी न कर लें! नहीं, हिन्दू/मुसलमान नहीं हैं। आपके दिमाग में तो बस्स...। सभी एक ही धर्म के हैं। अहंकार और लालच किसी में, कभी भी सवार हो सकता है।

जनार्दन प्रसाद जी भी आ गए। बहुत बुजुर्ग हैं। जौनपुर के रहने वाले हैं। घूम-घूम कर लोहे के घर में पुरानी किताबें बेचते हैं। अभी भी आपकी ये किताबें बिक जाती हैं? पूछने पर मुस्कुरा कर, आत्मविश्वास से कहते हैं.. इतनी बिक जाती है कि पेट भर जाता है। ईमानदारी से मेहनत किया जाय तो कुछ भी करो, भगवान खाने भर को दे देता है। किसी से कुछ मांगना नहीं पड़ता।
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14-02-2020

लोहे के घर में गोधूली की बेला है। खिड़कियों के रास्ते ट्रेन की बोगियाँ में घुस कर, नृत्य कर रही हैं, डूबते  सूर्य की किरणें। पल-पल डूब रहा है सूरज, पल-पल स्थान बदल रही हैं किरणें।

मेरे सामने के मिडिल बर्थ में लेट कर अनवरत फोन में किसी से बात कर रहा है एक युवा। नीचे मेरे सामने वाली लोअर बर्थ पर लेटी हैं एक महिला, शायद लड़के की माँ हैं।। साइड अपर बर्थ में अपने पापा के साथ खेल रहा है, एक बच्चा। 

मेरे दाहिनी ओर बैठी हैं एक साध्वी महिला, बायीं ओर एक साधू वेश में है आदमी! मैने साध्वी महिला को छोड़ किसी से कोई बात नहीं की है इसलिए इनके बारे में कुछ नहीं जानता। साध्वी से पूछा..अयोध्या से आ रही हैं? उन्होंने 'हाँ' कहा। कहाँ जा रही हैं? उन्होंने बताया..मुगलसराय। कोई और साथ मे है? इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी को ऊपर हवा में दिखाते हुए प्रश्न से ही दिया...उसके अलावा कौन साथी है? मैने समझदार मनुष्य की तरह मुंडी हिलाकर उनकी बात का समर्थन किया...कोई नहीं।

बगल के साइड लोअर बर्थ में दो महिलाएं और एक युवा बैठे हैं जो निरन्तर खिड़की से बाहर झाँक कर खेतों का नजारा ले रहे हैं। ये ऊपर बैठे पिता पुत्र के साथ हैं। 

सूरज अब डूब चुका है। बनारस आने ही वाला है। यात्रियों में हलचल है। जिन्हें बनारस उतरना है, वे समान सहित दरवाजे पर जा कर जमने लगे हैं। 

धड़ धड़ाम छन की आवाज के साथ ऊपर से एक झोला गिरा फर्श पर। एक बोतल टूट गया। बोतल से निकल कर घी फर्श में फैलने लगा। घी की सुगंध मुझ तक भी आने लगी। वाह! गाँव का देसी घी है! 

हाय! अरे! कैसे गिर गया? की आवाजों के साथ एक लड़का उठकर संभालने लगा बोतल। ऊपर-ऊपर का उठाकर रखने लगा दूसरे बर्तन में, अधिकांश बरबाद हो गया। हाथों से फर्श पर गिरा घी, काछ-काछ कर साफ करने लगी एक महिला। किसी ने कहा..फर्श का मत उठाओ। उसने कहा...उठा के फेंक दें, कोई फिसल कर गिर गया तो? गाँव के आम आदमी। कितने सरल! कितने समझदार! 

बनारस प्लेटफॉर्म पर रेंगने लगी ट्रेन। चलते हैं, आज इतना ही।
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13-02-2020

ट्रेन की बर्थ पर लेटा आलसी, चलती ट्रेन को देख खुश होता है... मैं भाग रहा हूँ! मोबाइल में स्पीड चेक करता है...100, 102, 103...। मन ही मन सोचता है... मैं कितने स्पीड से भाग रहा हूँ! 

ट्रेन रुक जाती है। रुकी रहती है। देर तक नहीं चलती! वह बेचैनी से कछुए की तरह सर निकाल कर,इधर-उधर देखता है... बहुत से लोग हैं! मन ही मन बड़बड़ाता है... जो गति सबकी, वो गति अपनी! मैं कर ही क्या सकता हूँ? इंजन तो नहीं बन जाऊंगा न?

ट्रेन चल रही है। आलसी के तानों से अनजान, टेसन-टेसन सिगनल देखती, पटरी-पटरी दौड़ रही है। ट्रेन चल रही है। ट्रेन में आलसी के अलावा भी बहुत से लोग हैं। कुछ विद्यार्थी हैं जो कहीं से परीक्षा देकर लौटे हैं। आपस मे एक एक प्रश्न पर डिसकस कर रहे हैं।कुछ कर्मचारी हैं जो काम से लौटकर घर जा रहे हैं। कुछ परिवार के साथ हैं, कुछ दोस्तों के साथ और कुछ अभागे अकेले भी चल रहे हैं। ट्रेन चल रही है।

मेरे सामने एक युवा परिवार है जिनके पास बहुत से सामान  हैं।  बगल में कुछ लोग देश की चिंता कर रहे हैं। देश चल रहा है। ट्रेन में लेटा आलसी कहता है... मैं भाग रहा हूँ!  ट्रेन अपनी रफ्तार से चल रही है। तब भी चलती थी जब हम और आप नहीं थे। तब भी चलेगी जब हम और आप नहीं होंगे। #ट्रेन पटरी पर चल रही है।
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06-02-2020

किसान आज लेट आई। जफराबाद में इसका 6.37P.M. समय है, 7.10 में आई। खाली-खाली है बोगियाँ। साइड लोअर बर्थ में मस्त लेट कर सामने का नजारा ले रहा हूँ। सामने एक अकेला परिवार है। और कोई दूसरे यात्री नहीं हैं। एक जोड़ा और दो छोटे बच्चे। एक गोदी का बच्चा दूसरी हंसती-खेलती 4 या 5 साल की चंचला। बच्ची हँसती हुई पास आई...

क्या नाम है तुम्हारा? 
उसने बड़ी अदा से बताया..ईरम नाज़! 
उसने नाम न बताया होता तो पता ही नहीं चलता कि यह मुस्लिम परिवार है। न अम्मू के चेहरे पर बुर्का न अब्बू की लंबी दाड़ी! बिलकुल वैसे ही जैसे कोई दूबे जी का परिवार!!! 
तुम्हारे भाई का क्या नाम है? 
अल्बी हसन! 
उससे बात नहीं करती? 
सो रहा है।

मोबाइल से खेल रही है ईरम। अम्मू की गोदी में सोया हुआ है अल्बी हसन। अब्बू जमा रहे हैं लोअर बर्थ में अपना बिस्तर। शाम के 8 बजा चाहते हैं। लोहे के घर में शाम ढलने के बाद करने को कुछ रह भी नहीं जाता। जो अपने पास खाने-पीने का सामान है उसे खाओ और लेटे रहो।

युवा अब्बू ने जमा दिया है बर्थ। मोहतरमा लेट गईं छोटे नवाब को रजाई में लेकर। अब बचे अब्बू और शरारती ईरम। यह अभी कर रही है कूद-फांद। अब्बू दूसरे लोअर बर्थ में भी जमा रहे हैं चादर। लोई ओढ़ा कर लिटा दिए हैं बिटिया को। लोई के भीतर मोबाइल चला रही है ईरम। अच्छे पति और अच्छे पिता की तरह सबको लेटा कर खाली बची बर्थ पर खामोशी से बैठे हैं अब्बू।

मर्द कितना त्याग करता है! भरी जवानी में बंजारों सा जीवन जीता है!!! अकेले जाग कर सफर करता है और अपने परिवार को चैन की नींद सुलाता है। किसी दुष्ट ने तीन तलाक दिया तो लोग उसी को दृष्टांत बनाते हैं! जमाने भर के मर्दों का त्याग उनको दिखाई नहीं देता।

ईरम ने फेंक दिया है चादर! उठकर बैठ गई है। अब्बू से बतिया रही है। अब्बू मोबाइल में कोई वीडियो देख रहे हैं, वह भी मोबाइल में झाँक रही है। नानी के घर से दादा के घर में जा रही है। बहुत खुश है ईरम। हे ईश्वर! इसकी खुशी बनाए रखना। इन्हें समाचार चैनलों, शाहीन बाग और दूसरे सभी राजनैतिक षड्यंत्रों से दूर रखना। 
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05-02-2020

फिफ्टी अपनी पूरी रफ्तार में भाग रही है। जलालगंज का पुल इसकी रफ्तार से थरथरा कर पीछे छूट चुका है। मेरे सामने साइड लोअर की खिड़की के पास बैठी महिला पॉकेट बुक की तरह मोबाइल खोल कर कुछ देखने मे डूबी है। एक सफाई कर्मी फर्श पर गिरे मूंगफली के छिलकों को देख झुंझलाता हुआ बड़बड़ा रहा है.. मूंगफली खाइए, खाने को मना नहीं है लेकिन इस तरह छिलके मत छींटीए! खामोश हैं चिकने घड़े। सफाई कर्मी फर्श साफ कर जा चुका है।

सुरुज नरायण अब डूबना ही चाहते हैं। बाहर खेतों में बिखरे पड़े हैं खिले सरसों के टुकड़े। हर दो मिनट बाद दिख ही जाते हैं सरसों के फूल। खालिसपुर में 5 मिनट पहले ही आकर खड़ी हो गई है फिफ्टी। स्टेशन के बाहर गाजर बेच रहा है ठेले वाला। हरे मटर, मसालेदार चने बेच रहे हैं वेंडर। यह ट्रेन सबको सहारा देती है। हर छोटे स्टेशनों पर रुकती है। यात्री भी बड़े फुरसत में रहते हैं। कोई मोबाइल में जोर-जोर से बजा कर समाचार सुन भी रहा है, सुना भी रहा है। वही शाहीन बाग, वही हिन्दू/मुस्लिम। किसी को सुनने में कोई रुचि नहीं। वही पागल अकेले सुन रहा है और सुना रहा है। पागल को कौन कहे कि कान में ईयर फोन लगा कर सुनो? 

ट्रेन अब फिर चलने लगी। खुली खिड़कियों से आने लगी ठंडी हवा। आजकल दिनभर धूप और सुबह-शाम खूब चलती है ठंडी हवा। अभी अंधेरा नहीं हुआ है। बन्द होने लगे खिड़कियों के शीशे। सामने बैठा एक किशोर धीमी आवाज में, मोबाइल में गाने बजा कर सुन रहा है। आगे के लोअर बर्थ में दो महिलाएं अखबार में लाई फैलाकर खाने में मस्त हैं। 

अपर बर्थ में ऊपर एक जोड़ा एक लोई ओढ़े आपस में गड्डमड्ड एक दूसरे को निहार रहा है। धीरे-धीरे बतिया रहा है। रह-रह दांत दिखा रहा है। उनकी बातें सुनाई नहीं पड़ रहीं। अनुमान लगा सकते हैं कि दोनो के बीच रोचक बातें चल रही होंगी। मेरे बगल में बैठा एक लड़का बोतल निकाल कर पानी लेने गया था, नहीं मिला। उसका मोबाइल भी डिस्चार्ज हो चुका है, खिसिया रहा है। सफर में मोबाइल डिस्चार्ज हो जाय तो बड़ी खीस पड़ती है। लखनऊ से एग्जाम देकर लौटे हैं बिहारी लड़के। भोजपुरी में यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और जाने क्या-क्या बड़बड़ा रहे हैं। 

अब बाबतपुर में रुकी है ट्रेन। इसको 7 बजे पहुंचना है बनारस। अभी इसके पास बहुत समय है। इस स्टेशन में हवाई अड्डे के दूसरे छोर पर ठंडी बियर और अंग्रेजी शराब की दुकानें हैं। दुकानों के आसपास अंडों के ठेले लगे हैं। दुकानों के बल्ब जल चुके हैं। अपनी ट्रेन यहाँ से भी आगे बढ़ चुकी है। 

अब बाहर अँधेरा हो चुका है। लोहे के घर में जल चुकी हैं लाइटें। नीचे बैठे किशोर आपस मे नेवी के एग्जाम में आए पेपर के प्रश्न डिसकस कर रहे हैं। गूगल सर्च कर रहे हैं। सही उत्तर ढूँढ कर एक दूसरे को पागल कह रहे हैं। सही हल करने वाला खुश है। गलत हल करने वाला बड़बड़ा रहा है.. नामे ना सुनले रहलीं, का मतलब बा? ऊपर बैठा जोड़ा, चार आंखों से एक मोबाइल में घुसा पड़ा है। अब पूरे स्पीड से भाग रही है फिफ्टी डाउन।
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24-01-2020

आज बहुत दिनों के बाद सुबह सबेरे धूप ने खिड़कियों से झाँका है लोहे के घर में।  कई दिनों से यह हो रहा था कि अँधेरे-अँधेरे निकलते, कोहरा-कोहरा चलते और उजाला होते-होते पहुँच जाते थे काम पर। 

इधर हम दफ्तर पहुँच कर अपने दड़बे में घुसे, उधर खबर आई कि बाहर निकली है जाड़े की धूप। 

हाय! पहले प्यार की तरह प्यारी होती है जाड़े की धूप। हम हाथ सेंक भी नहीं पाते कि गुम हो जाती है। 

जाड़े की धूप से लव होता है, मैरिज नहीं होती। मैरिज तो गर्मी की धूप से कुबूल करना पड़ता है। 

जाड़े की धूप पड़ोसी की बीबी-सी, सोन चिरैया! कभी हाथ नहीं आती।
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08-01-2020

बाहर मौसम सर्द है, लोहे के घर में भीड़ है। भीड़ में गर्मी का एहसास होता है। गर्मी चढ़ जाय तो प्यादा भी आऊँ-बाऊँ बकने लगता है लेकिन यहाँ की भीड़ का नजारा अलग है। यह दिल्ली में जमा भीड़ नहीं है। यह एक नाव में सफर करने वाले यात्रियों सरीखी भीड़ है, जहाँ सभी को मजबूरी में संतुलन बनाए रखना है। जरा सा संतुलन बिगड़ा कि गई भैंस पानी में। थोड़े से ना नुकुर के बाद सभी खड़े यात्री एडजस्ट हो चुके हैं। कोई ऊपर चढ़ कर, सामानों के बीच, बैठ चुका है, कोई जरा सा तशरीफ़ टिकाए, बैठे-बैठे झूल रहा है। एक बुजुर्ग जोड़े को हम पर भी दया आ गई और उन्होंने सहृदयता दिखाते हुए हमें भी पास बिठा लिया है। इतनी जगह मिल गई कि बैठ कर आराम से लिखा जा सकता है।

बुजुर्ग दम्पत्ती जौनपुर से ही चढ़े हैं। यहीं के निवासी हैं। अवधी बोल रहे हैं। बुजुर्ग इतने हैं कि इनको यात्रा करते देख आश्चर्य हो रहा है। हावड़ा तक जाएंगे। कोई और साथी है? पूछने पर बताया..नहीं और कोई नहीं है। मुझे और आश्चर्य हुआ...हावड़ा तक अकेले! लड़के के पास जा रहे हैं क्या? नहीं... गंगा सागर जा रहे हैं। कार्तिक पूर्णिमा को गङ्गा सागर में स्नान करना है! यह और भी चौंकाने वाली बात थी। अधिक पूछने पर बताया कि कलकत्ता में लड़का रहता है, वह आ जाएगा। गङ्गा सागर करा कर ट्रेन में बिठा देगा। यह मेरे लिए राहत देने वाली बात थी। यह संभव है। फिर भी इस जाड़े में, ट्रेन के स्लीपर बोगी में इतनी लंबी यात्रा, इन बुजुर्ग दम्पत्ती के लिए साहसिक यात्रा है। धार्मिक व्यक्ति साहसी होता है, इसमें कोई शक नहीं। 

आज का मौसम खराब है। वर्षा हो रही है और ठंडी हवा भी चल रही है। यह अपनी फिफ्टी डाउन है। जौनपुर से बनारस 56 किमी की दूरी के बीच 5 स्टॉपेज है। हर स्टेशन पर लोकल ट्रेन की तरह यात्री चढ़ते/उतरते रहते हैं।   वेंडर भी माहौल को खुशनुमा/जीवंत बनाए रखते हैं। अभी पानी वाला गया ...पानी-पानी कहते हुए तो अभी चाय वाला चीख रहा है... चाय-चाय। गुटखा बेचने वाले भी चढ़ जाते हैं और हरा मटर बेचने वाले भी। जाड़े का समय है। स्लीपर बोगी में समान से ज्यादा, कम्बल/चादर ओढ़े यात्री हैं। मफलर/टोपी पहने, कम्बल ओढ़े अपने में गड्डमड्ड हैं यात्री। बुजर्ग ने पानी खरीदा और चाय भी मांगने लगे। वेंडर के पास एक ही कप चाय थी। चाय पकड़ा कर बुजुर्ग से बोला..ला, पी ला, एक्के कप अहै, चा खतम होई गए, पैसा जिन दिया! पी ला। यह उदारता कम ही देखने को मिलती है। 

बुजुर्ग धोती-कुर्ता पहने हैं और शाल ओढ़े हैं। सामने बैठी महिला ने कहा...मोजा पहिन ला। बुढ़ऊ बोले..हमें ठंडी ना लगी। हम माटी में नङ्गे पाँव घूमे वाला मनई हई। हमार चिंता जिन करा। दूसरी महिला ने कहा...नीचे इनर पहने होंगे। तब तक बूढ़ा बोलीं..ना, खाली धोती पहिने हैन। बुढ़ऊ मुस्कुरा दिए। 

ट्रेन वीरापट्टी में रुकी है। यहाँ इसका स्टेशन नहीं है। जहाँ स्टेशन नहीं है, वहाँ भी रुक सकती है। गाड़ी जब तक चलती रहती है, लोग निश्चिंत रहते हैं। रुकती है तो बेचैन हो जाते हैं। कोई उतर कर सिगनल देखने लगता है, कोई बड़बड़ाने लगता है..अभी यहाँ क्यों रुकी है? जब तक पटरी पर चलती रहती है गाड़ी, घर के सभी सदस्य निश्चिंत रहते हैं। रुकी नहीं कि इंजन को कोसने लगते हैं! उसकी भी कोई मजबूरी होगी, नहीं समझते। अधिक देर रुकी तो निर्ममता की हदें भी पार कर देते हैं। घर हो या लोहे का घर हो, सदस्यों का व्यवहार एक जैसा होता है।

दो यात्री लूडो खेल रहे थे। एक हिजड़ा आकर एक से चपक गया..हाय!हाय! दे दो,  आज जाऊँगी नहीं। जब असली छक्का आ गया तो क्या पासा फेंक कर छक्का मांग रहे हो?

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03-01-2020

ताप्ती आज लेट क्या हुई, रोज के यात्रियों की बाँछें खिल गईं। शाम पाँच बजे ऑफिस से छूटे सवा पाँच तक आ गई। किसी की फूटी किस्मत, किसी का चमका भाग्य। थोड़ी दूर  धीमी रफ्तार से चलने के बाद अब इसकी रफ्तार तेज हुई है। आगे-आगे फिफ्टी चल रही है। रोज के यात्रियों में कौतूहल है कि फिफ्टी को पीटेगी या पीछे-पीछे चलेगी। खालिसपुर में देर से खड़ी है। उसका बनारस पहुंचने का समय 6.55 है। वो आज बिफोर चल रही है। ताप्ती का समय 5.30 है। ताप्ती आज लेट चल रही है। जौनपुर से बनारस के बीच में ताप्ती का कोई ठहराव नहीं है, फिफ्टी 4 स्थान पर रुकती है।

खालिसपुर आ गया। फिफ्टी खड़ी रह गई। ताप्ती आगे बढ़ गई। ताप्ती में बैठे रोज के यात्रियों में खुशी की लहर दौड़ गई। फिफ्टी के यात्री मायूस हुए होंगे...बेकार जल्दीबाजी किए, ताप्ती पकड़े होते तो अच्छा होता। 

इन्ही छोटी-छोटी बातों में कभी खुश, कभी दुखी होकर कटता है रोज के यात्रियों का सफर। 

आमने-सामने चार लड़कियाँ बैठी हैं। चारों बनारस जा रही हैं परीक्षा देने। चिड़ियों की तरह चहक रही हैं। छोटे-छोटे कस्बेनुमा शहरों से बड़े शहर की यात्रा आराम से तय कर रही हैं। इन्होंने पढ़ना ही नहीं सीखा, परीक्षा देना और सफल होना भी सीख लिया है। लड़कों की तरह बाजार पर मोहताज नहीं हैं। खाना बनाना भी जानती हैं, टिफिन भी रखती हैं और चाव से मिल बाँट कर खाना भी जानती हैं। बड़े-बड़े विषयों पर आराम-आराम से बतिया भी रही हैं। महानगरी में मेट्रो/बस से सफर करने वाली लड़कियों से जरा हट के है छोटे-छोटे कस्बों से निकल बड़े शहरों में परीक्षा देने जाती लड़कियाँ। लोहे के घर में सफर करो तो पता चलता है.. मेरा देश बदल रहा है।

बनारस के आउटर पर देर से खड़ी है ताप्ती। रोज के यात्री ट्रेन को छोड़कर, पैदल ही स्टेशन की ओर जा रहे हैं। यह वैसा ही है जैसे जिस्म को कोमा में छोड़, मंजिल की ओर, उड़ जाती हैं आत्माएँ।
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01-01-2020

फिफ्टी डाउन आज लेट चल रही है। अभी बनारस पहुँच जाना था, जौनपुर से चली है। ट्रेन में काम भर की भीड़ है। अधिकतर पंजाब से चले, हावड़ा तक जाने वाले, बंगाली यात्री हैं। ट्रेन भी इनके धैर्य की परीक्षा ले रहा है। 

रोज की अपेक्षा आज ठंड कम है लेकिन बन्द हैं खिड़कियों के शीशे। हम लोअर बर्थ में बैठे हैं, बायीं ओर की छहों बर्थ पर एक परिवार का साम्राज्य है। चार महिलाएँ और दो किशोर हैं। नमकीन का बड़ा थैला खुला और एक महिला सबको नमकीन बांट रही हैं। आमी खाबो ना, आमी खाबो ना के बाद भी महिला सबको जबरी नमकीन परोस रही है। एक किशोर बड़े से पाव (ब्रेड) को टुकड़े-टुकड़े तोड़ कर प्रेम से खा रहा है। उसकी गोद मे सर रख कर एक महिला लेटी है। वह लेटे-लेटे नमकीन का फांका लगा रही है। ऊपर बर्थ पर लेटी महिलाएं भी उठ कर बैठ गई हैं और हाथ नीचे बढ़ा कर नमकीन ले रही हैं। एक गमछा टँगा है ऊपरी बर्थ के सिक्कड़ से, नीचे खूब सामान फैला है। नीचे बर्थ में एक बच्चा भी लेटा है, जो गहरी नींद सो रहा है। अब नमकीन खतम हो चुकी है और सभी हाथ नचा-नचा कर बोल रहे हैं। इतनी जल्दी-जल्दी बोल रहे हैं कि उनकी हँसी के अलावा कुछ समझ में नहीं आ रहा। सभी खुश हैं, लोहे के घर में।

मेरे बगल में बैठा एक जोड़ा बीच में ही खालिसपुर उतरेगा। पंजाब में मोटर लाइन में काम करता है। पत्नी को बच्चा होने वाला है। इसीलिए घर जा रहा है। मैने पूछा..घर छोड़, पंजाब में क्यों रहते हैं, कमाई अच्छी होती है क्या? बोला..काम भर हो जाता है। हम लोग चार भाई हैं न, दूर रहते हैं तो आपस मे प्रेम बना रहता है। आज हम आ रहे हैं तो गाड़ी लेकर हमे लेने, स्टेशन में आया है। कब तक रहेंगे पूछने पर बोला..अब बच्चा हो जाएगा तभी जाएंगे। 

खालिसपुर आ गया। उतर गया जोड़ा। ट्रेन 2 मिनट रुक कर चल दी। बर्थ और खाली हो गया।  रोज के यात्री बगल में आ कर बैठ गए। 

दाहिनी तरफ भी सामने एक भरा पूरा बंगाली परिवार है। उनकी एक लोअर बर्थ, इधर मेरे सामने भी खाली पड़ी है। मेरे सामने की मिडिल बर्थ खोलकर एक युवक लेटा हुआ है। उस परिवार में कन्टोपा पहने एक बुजुर्ग उधर बैठे हैं। कोई इधर के खाली बर्थ में लेटना चाहता है तो कटहे सुग्गे की तरह चीखते हैं.. "मेरी बर्थ है, अभी हम लेटेंगे!" जौनपर से बोल रहे हैं 'अभी हम लेटेंगे' लेकिन लेट नहीं रहे हैं। सहयात्री ने कहा..हमें बनारस ही जाना है लेकिन वो बोल रहे हैं... अभी हम लेटेंगे! अब बनारस करीब आ रहा है, वे वहीं बैठे अपने नाती से बतिया रहे हैं। शायद सोच रहे हों कि यह सोए तो हम सोएं।  बर्थ का भी मोह है, नाती से बतियाने का भी मोह है। मोह छूटे नहीं छूटता, यही जिंदगी है। बर्थ जौनपुर से ही उनकी प्रतीक्षा में, खाली-खाली चल रही है।

बाएं वाले परिवार से जोर का ठहाका उठा है। महिलाओं ने कोई बढ़िया मजाक किया होगा! दाएं वाला परिवार बच्चे की तोतली जुबान पर मस्त है। हम बीच में सबको देख रहे हैं। हमारी ट्रेन बाबतपुर में खड़ी है। रोज के यात्रियों की बेचैनी बढ़ रही है। रात हो गई अभी यहीं अटके हैं। दूर के यात्री जानते हैं कि पूरी रात इसी ट्रेन में गुजारनी है, इसलिए चैन से हैं। बेचैनी मंजिल पास आने पर अधिक बढ़ती है। मंजिल दूर हो तो सफर का मजा आता है।
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6 comments:

  1. सुन्दर प्रस्तुति

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  2. बढ़िया संसमरण।
    कभी तो दूसरों के ब्लॉग पर भी अपनी टिप्पणी दिया करो।

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  3. रोचक संस्मरण रहे। ईरम वाला मासूमियत से भरा और लूडो छक्के वाले ने बरबस ही चेहरे पर मुस्कान ला दी।सच में यात्राएं काफी कुछ सिखा देती हैं। रोज कुछ न कुछ नया मिल जाता है।

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  4. बहुत चला हूं जौनपुर बनारस, वो समय याद आ गया।बढ़िया रोचक और मजेदार कहानी।

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