27.7.20

अँधेरा

लाइट चली गई है। मैं अँधरे में हूँ। ऐसा लगता है जैसे मैं ही अँधेरे में हूँ और सबके पास रोशनी है! पूरा शहर रोशनी से जगमगा रहा होगा! केवल मैं ही अँधेरे में हूँ! फिर सोचता हूँ... जब मैंअँधरे में हूँ तो पूरा शहर भला कैसे उजाले में होगा? जब मैं अँधेरे में हूँ तो शहर भी अँधरे में होगा, देश भी अँधेरे में होगा। लाइट का क्या है, आ जाएगी लेकिन यह जो अँधेरा है, बढ़ता जा रहा है। 

कल तक मौत अजनबी लगती थी क्योंकि अजनबियों के मरने की खबरें आ रही थीं। अब लगता है, जानी पहचानी है, क्योंकि अपनो के मरने की खबरें आ रही हैं। बढ़ती जा रही है, कोरोना से संक्रमित हुए लोगों की संख्या। पहले शहर अछूता था अब मोहल्ले भी अछूते नहीं रहे। यह कौन जानता था कि यम भैंस पर नहीं, अपनों के कंधे पर बैठकर आएगा!

वे, जिहोने खरीद लिए हैं रोशनी के चराग, उन्होंने ही, हाँ, उन्होंने ही कैद कर लिया है खुद को एक सुरक्षा चक्र में। खरीद लिए हैं डॉक्टर। खरीद लिए हैं अस्पताल। वैसे ही जैसे खरीद ली हैं.. खबरें। हम जिंदा हैं तो सिर्फ इसलिए कि व्यस्त हैं यमदूत। जिन्हें उठाना था, उठा नहीं पाते। जिनकी बारी नहीं थी, उन्हें लादे चले जा रहे हैं। हम खुश किस्मत हैं कि कहीं, कोई हमसे ज्यादा बदनसीब है। व्यस्त हैं यमराज शायद इसीलिए जीवित हैं हम भी। थक जाएं या हो जाए उनका कोटा पूरा तो शायद बच जांय हम भी, रोशनी वालों की तरह।  अभी तो मैं अँधेरे में हूँ। ऐसा लगता है जैसे मैं ही अँधेरे में हूँ और सबके पास रोशनी है!

5 comments:

  1. कुछ ऐसा जैसा भी सुना था कुछ लोग अंधेरे बाँट रहे हैं। अँधेरे अच्छे हैं टाईप। सुन्दर :)

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  2. सामयिक और सुन्दर प्रस्तुति

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  3. "कल तक मौत अज़नबी थी अब जानी - पहचानी लगती है" कितनी भयावह स्थिति है !

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  4. मदारी मुक्त बन्दर। बहुत सुन्दर लेखन। टिप्पणी बटन नहीं नजर आया वहां तो यहां कह लिये।

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