मैने मांगा,
जाड़े की धूप
उसने दिया,
घना कोहरा!
मैने पूछा,
"ठंडी कब जाएगी?"
उसने कहा,
"थोड़ी बर्फवारी होने दो।"
मैने पूछा,
"बसंत कहाँ है?"
उसने कहा,
"रुको! एक ग्लेशियर टूट जाने दो!"
मैने कहा,
"जाओ!
तुमसे बात नहीं करते।"
उसने कहा,
"मित्र!
तुमसे ही सीखी है यह
शत्रुता!"
.........
मैने पूछा,
ReplyDelete"बसंत कहाँ है?"
उसने कहा,
"रुको! एक ग्लेशियर टूट जाने दो!"
यथार्थ पर गहरा कटाक्ष करती कविता...
आभार।
Deleteवाह सटीक
ReplyDeleteआभार।
Deleteवाह।
ReplyDeleteमार्मिक
ReplyDeleteसटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteसंवाद के रूप में कटु सत्य को उजागर किया है । बहुत गहन विचार इस रचना में
ReplyDeleteआभार।
Delete...सचमुच तबाहियाँ हमने ही सिरजी हैं . सरल सी गहरी कविता
ReplyDeleteआभार।
Deleteप्रकृति के साथ ताल-मेल रखना इन्सान ने सीखा ही कहाँ - प्रतिक्रिया होगी ही.
ReplyDeleteजी, आभार।
Delete?
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