12.2.22

प्रेम


अँधेरी राह में

घने वृक्षों के तले

अक्षर दिखे

गुच्छ के गुच्छ!


जुगनुओं की तरह

आपस में टकराते,

बिखर जाते।


तेजी से

बन/बिगड़ रहे थे

शब्द

हो रहा था

चमत्कार!


कठिन तपस्या के बाद

बस एक शब्द समझ पाया..

प्रेम!


मुग्ध हो

खोया रहा 

रात भर

हाय!

मुँह से

बोल ही नहीं फूटे।


चाहता था, चीखना...

देखो!

प्रेम मरा नहीं है,

अँधेरे में

जुगनुओं की तरह

आज भी

टिमटिमा रहा है।

....................

19 comments:

  1. वाह , टिमटिमाता रहना चाहिए प्रेम ।
    लाजवाब रचना ।।

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  2. अंधेरे में टिमटिमाहट जीवन का स्पंदन है।
    अत्यंत प्रभावशाली अभिव्यक्ति सर।
    सादर।

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  3. जुगुनूओं की तरह जगमगाता और प्रेम सा खूबसूरत सृजन

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  4. प्रेम मरा नहीं है, आज भी जुगनुओं की तरह टिमटिमा रहा है। बहुत सुंदर सृजन!साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ

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  5. वाह! जुगनू ही सही अँधेरे का आशा स्तंभ है ।
    बहुत सुंदर सकारात्मक सोच, सुंदर सृजन।

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  6. प्रेम मरा नहीं है,

    अँधेरे में

    जुगनुओं की तरह

    आज भी

    टिमटिमा रहा है।
    वाह!!!
    प्रेम नहीं मरा वह शाश्वत है
    लाजवाब सृजन।

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  7. बहुत बढिया देवेन्द्र जी | प्रेम का अस्तित्व सदैव रहता है | वह यत्र - तत्र - सर्वत्र व्याप्त है

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  8. कठिन तपस्या के बाद

    बस एक शब्द समझ पाया..

    प्रेम!

    कठिन तपस्या के बाद ही प्रेम को समझा भी जा सकता है... प्रेम जो कभी मरता नहीं अंधेर में बस छुपा होता है... लाजवाब अभिव्यक्ति, सादर नमन आपको 🙏

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