सुबह-सुबह घने नीम के वृक्षों से धमेख स्तूप तक अनवरत उड़ते रहने वाले तोते सन्डे नहीं मनाते। कोई ऑफिस नहीं, कोई छुट्टी नहीं। ये जब स्तूप से उड़कर वापस नीम की शाखों पर बैठते हैं तो कुछ कौए काँव-काँव करने लगते हैं। ऐसा लगता है जैसे नास्तिक पितृपक्ष में ब्राह्मणों के भोजन का उपहास उड़ा रहे हों! तोते भी टांय-टांय कर प्रतिरोध करते हैं।
धूप तेज हो चली है। घने नीम से अनवरत एक-एक कर पीले पत्ते झर रहे हैं। कोयल के साथ पेड़की ने खूब समा बांधा है। ये क्या कहते हैं, कुछ समझ में नहीं आता। गिलहरियों का फुदकना बदस्तूर जारी है। लॉन में कई प्रकार के पौधे हैं मगर कोई आपस में नहीं झगड़ते। कोमल लताएँ सूखे वृक्ष के सहारे ऊपर तक चढ़ जाती हैं। कोई किसी की टांग नहीं खींचता।
झाडू लगाने वाला आ चुका है। उसने झाड़ू से पत्तों को एक स्थान पर इकट्ठा कर लिया है, जिस पर सूर्य की स्वर्णिम किरणें पड़ रही हैं। ऐसा लगता है जैसे झाड़ू वाले ने झाड़ू लगाकर कुछ सोना इकठ्ठा कर लिया है! अब चलना चाहिए। आज की सुबह रोज की तरह आनंद दायक रही।
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