वह बड़ा आदमी है
सबसे ऊँची मढ़ी पर बैठ
नदी में फेंकता है
पत्थर!
कई लहरें उठती हैं
गिनता है
एक, दो...सात, आठ, नौ दस...बस्स!
पुनः प्रयास करता है,
बड़ा पत्थर फेंका जाय
और लहरें उठेंगी!!!
छोटा आदमी
छोटी मढ़ी पर बैठ
फेंकता है पत्थर
गिनता है लहरें
वह भी संतुष्ट नहीं होता
तलाशता है
और बड़ा पत्थर!
नदी किनारे
नीचे घाट पर बैठे बच्चे भी
देखते-देखते सीख जाते हैं
नदी में कंकड़ फेंकना!
पैतरे से
हाथ नचा कर
नदी में ऐसे कंकड़ चलाते हैं
कि एक कंकड़
कई-कई बार
डूबता/उछलता है!
कंकड़ के
मुकम्मल डूबने से पहले
बीच धार तक
बार-बार
बनती ही चली जाती हैं लहरें!!!
न बड़े थकते हैं
न बच्चे रुकते हैं
बनती/बिगड़ती रहती हैं लहरें!
पीढ़ी दर पीढ़ी
खेल चलता रहता है
बस नदी
थोड़ी मैली,
थोड़ी और मैली
होती चली जाती है।
........@देवेन्द्र पाण्डेय।
वाह,लाज़वाब विश्लेषण
ReplyDeleteविचारणीय रचना।
सादर।
----
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ मई २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
धन्यवाद।
Deleteअपने मनोरंजन के आगे इन्सान कुछ समझना नहीं चाहता .
ReplyDeleteपत्थरों का बिम्ब ले कर बात दिया है कि नदियों के गंदे होने का कारण क्या है ? बच्चे बड़ों से ही सीखते है ।
ReplyDeleteअति सराहनीय, सांकेतिक और संदेशपरक रचना .. समझने-समझाने के लिए काफ़ी है कि उन तथाकथित बुद्धिजीवी मानव समाज के लिए, जो अच्छे या बुरे परिणाम की विवेचना किये बिना ही तमाम अंधपरम्पराओं को सभ्यता-संस्कृति के नाम पर, तीज-त्योहारों के नाम पर दुहराते जाते हैं, चाहे वो किसी भी धर्म-मज़हब के हों .. बस यूँ ही ...
ReplyDeleteआखिर नदी भी कब तक सहे ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर विचारणीय सृजन
वाह!!!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete