दो दिन पहले, वर्षों पहले खरीदी गई हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक 'पुनर्नवा' पर दृष्टि गई, प्लास्टिक कवर हटा कर पढ़ना शुरू किया तो वाक्यों की सुंदरता ने मंत्र मुग्ध कर दिया, शब्द-शब्द मन में उतरने लगे। कहानी रोचक तो है ही, अपनी हिन्दी पर गर्व भी हुआ। वाह! हिन्दी कितनी खूबसूरत है!!! क्षोभ भी हुआ, लिखते-लिखते हम कहाँ से कहाँ आ गए!
प्रातः भ्रमण के लिए बहुत देर हो चुकी थी। कहाँ भोर में 5 बजे साइकिल लेकर घर से निकल पड़ता, कहाँ उठने में ही 6 बज चुके थे। देर हुआ तो क्या हुआ, कौन ऑफिस जाना है, सोच कर तैयार हुआ तो मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। ध्यान गया, कल रात 12 बजे के बाद पुस्तक समाप्त हुई थी, उठने में देर तो होना ही था। बाहर जोरदार वर्षात हो रही, हम फिर पुस्तक की याद में खो गए।
शताब्दियों पहले के कई ऐतिहासिक पात्रों से जुड़ी कहानियों को आपस में गूंथ कर किस तिलस्मी अंदाज से एक उपन्यास बना दिया है द्विवेदी जी ने! हिन्दी का आनंद लेने के लिए फिर से पढ़नी पड़ेगी पुस्तक।
अब बारिश रुक चुकी है लेकिन सूर्यदेव फिर अपने पुराने तेवर में चमक रहे हैं। हरी पत्तियों पर बिखरी बूँदों को तेजी से सोख रही है, चटक धूप।
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत अच्छी पुस्तक है सचमुच।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ३० जुलाई २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
पुस्तक हो तो कोई भी बहाना चलता है..फिर बारिश तो बहुत ही बड़ा बहाना है ।
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