बाग में छा गए तब छिछोरे बहुत
पेंड़ को प्यार का मिल रहा है सिला
मारते पत्थरों से निगोड़े बहुत
धूप में क्या खिली एक नाजुक कली
सबने पीटे शहर में ढिंढोरे बहुत
एक दिन वे भी तोड़े-निचोड़े गए
जिसने थैले शहद के बटोरे बहुत
वक्त पर काम आए खच्चर मेरे
हमने रक्खे थे काबुल के घोड़े बहुत
फूल खिलने लगे फिर उसी शाख में
आंधियों ने जिन्हें कल हिलोरे बहुत
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteवक्त पर काम आए खच्चर मेरे
ReplyDeleteहमने रक्खे थे काबुल के घोड़े बहुत
फूल खिलने लगे फिर उसी शाख में
आंधियों ने जिन्हें कल हिलोरे बहुत
यथार्थ।
बहुत सुन्दर लिखा है देवेन्द्र जी ।
संवेदनशीलता ,अभिव्यक्ति की सहजता और आम फहम जीवन से उठाये गए चिर परिचित बिम्बों के जरिये जीवन के मार्मिक यथार्थों /श्लेष की प्रस्तुति तो कोई आपसे सीखे ....
ReplyDelete@टिकोरों की इस बार की फसल अच्छी आयी है ....और उतनी ही शामत ..:)
ReplyDeleteहमने रक्खे थे काबुल के घोड़े बहुत ...
ReplyDelete------------- mat kahiye .. osama paisaa maangne lagega ...
sundar kavita ..
lok-lay se sajee - bajee hui .. aabhaar !
वाह क्या अभिव्यक्ति दी है,आभार.
ReplyDeleteखूबसूरत रचना - खूबसूरत भाव।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
धूप में क्या खिली एक नाजुक कली
ReplyDeleteसबने पीटे शहर में ढिंढोरे बहुत
Bahut sahaj saral abhivyakti! Wah!
कहने को बेचैन हो कह गये तुम,
ReplyDeleteसुनने में लग आये, प्यारे बहुत ।
वक्त पर काम आए खच्चर मेरे
ReplyDeleteहमने रक्खे थे काबुल के घोड़े बहुत
एक संवेदनशील भावाभिव्यक्ति,
बहुते लाजवाब.
ReplyDeleteरामराम.
वक्त पर काम आए खच्चर मेरे
ReplyDeleteहमने रक्खे थे काबुल के घोड़े बहुत ...
देवेन्द्र जी ... ग़ज़ब के शेर कहे हैं .. ताज़ा तरीन ... आप ग़ज़ल ली कला में भी माहिर हैं ....
फूल खिलने लगे फिर उसी शाख में
ReplyDeleteआंधियों ने जिन्हें कल हिलोरे बहुत.....ye jivan ka satya hai
aapkee abhivykti to bemisaal
ReplyDeleteise par hum ho rahe nihaal |
waise to har sher gehrayi se bharpoor hai aur ye sher to bahut acchha laga.
ReplyDeleteधूप में क्या खिली एक नाजुक कली
सबने पीटे शहर में ढिंढोरे बहुत
badhayi.
क्या गज़ब के ख्याल उकेरे हैं भाई ...सुन्दर कविता !
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी, बहुत बढ़िया रचना है आपकी।
ReplyDeleteहमें तो एक पंजाबी गाने की याद आ गई "केड़ा जाऊ खेड गुलाली, आ गये जदों बाग विच माली" यानि बागों के रखवाले आ जायें तो फ़िर कौन गुलेलों से बदमाशी करेगा? बात आपकी भावनाओं से शायद संबद्ध न हो, पर टिकोरे बचाने के लिये भी सजग रहना जरूरी है, यह हमें समझना चाहिये। बाकी, आपकी रचना की हर पंक्ति जानदार रही।
आभार।
टिकोरे का मतलब खूब समझ नही आया..मगर आपकी ग़ज़ल पढ़ी तो लगा कि बाग मे बसंत के मौसम मे डालों पर पायी जाने वाली कोई अच्छी चीज होती होगी..जिसमे छिछोरों को काफ़ी रुचि रहती होगी..
ReplyDeleteहर शेर का अपना अंदाज रहा है..आपकी खास चुटीली शैली मे..हालांकि काफ़िया कुछ लड़खड़ाया लगा है कहीं पर..और पहला शेर तो खूबसूरत है ही..यह शे’र भी..सरल शब्दों मे गहरी बात
वक्त पर काम आए खच्चर मेरे
हमने रक्खे थे काबुल के घोड़े बहुत
अपनी जिंदगी अक्सर काबुल के घोड़ों को ही खरीदने और खिलाने मे गुजर जाती है..जबकि ज्यादातर मुकामों पर खच्चरों से ही काम चलता है..और धूप मे एक कली के खिलने का शहर मे खबर बनना गहरे निहितार्थ लिये है...
बहुत ख़ूबसूरत भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार रचना लिखा है जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
ReplyDeleteनमस्कार.
ReplyDeleteक्या कहूं,बहुत शान्दार रचना है.मुझे कुछ सिखने को भी मिल रहा है.
बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।
ReplyDeleteअपूर्व भाई-
ReplyDeleteटिकोरे का अर्थ मैने इसलिए नहीं लिखा कि मैं समझता था कि इससे सभी परिचित होंगे। ओह.. मैं गलत था। यहाँ तो कच्चे आम को 'टिकोरे' कहते हैं। इस वक्त आम के शाख पर बौर की जगंह अनगिनत छोटे-छोटे कच्चे आम निकल आए हैं.. थोड़े बड़े होते ही किशोर लड़के हाथों में गुलेल ले इसे तोड़ने आ जाते हैं बाग का माली उन्हें लाठी ले कर दौड़ाता है. अपने बचपन से यही दृश्य देख रहा हूँ।
गज़ल एक कठिन विधा है। इस विधा में लिखने में हाथ-पांव फूल जाते हैं। भाव आ गए तो जबरदस्ती लिख दिया। जानता हूँ कि त्रुटी है मगर सुधारने के चक्कर में भाव गड़बड़ा जा रहा है। भाव का मजा लीजिए। कहीं-कहीं बोलचाल की भाषा में ड़ को भी र बोलते हैं इस दृष्टि से काम चला लिया है।
Hello :)
ReplyDeleteFirstly, thanks a lot for your comments on my blog.
Now, coming to your composition:
Good work done :) It shows the depth in your thoughts. You have projected it brilliantly.
Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com
गूगल से ले कर एक चित्र भी लगा दिया। यह पहले ही लगा दिया होता मगर मैं ऐसा चित्र खोज रहा था जिसमें किशोर वय के लड़के पत्थर मार कर टिकोरे तोड़ रहे हों मगर नहीं मिला।
ReplyDeleteअरे वाह-वाह देवेन्द्र जी...वाह-वाह! एकदम अनूठा। मुँह में पानी आ गया...दाँत "कोत" हो गये मतले को पढ़कर।
ReplyDelete"वक्त पर काम आए खच्चर मेरे
हमने रक्खे थे काबुल के घोड़े बहुत"
इस शेर का इशारा, अंदाज़े-बयां पे बिछ गया हूँ।
टिकोरे क्या कैरी को कहते है या आम को ।प्यार का सिला पत्थरो से ही मिलता है ""मै जिसके हाथ में इक फूल देके आया था उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है ""घोड़े या खच्चर जो भी हों वक्त पर काम आजाये वही है अपना | कुछ घोड़े काबुल जा रहे थे उनमे एक खच्चर भी था किसी ने उससे पूछा कहाँ जा रहे हो तो खच्चर ने कहा ""हम सब " घोड़े काबुल जा रहे हैं ।Brij
ReplyDeleteआम के पेड़ पर लदे टिकोरे का चित्र और उसके साथ यह सुंदर रचना पढ़कर मजा आ गया। आभार।
ReplyDeleteवाह देवेन्द्र जी,दो दिन पहले आंधी आई थी मैंने सोचा की टिकोरे ले आऊं कुछ पना और चटनी हो जाए.पर बाज़ार से तो टिकोरे गायब थे.आज पता चला की वो सब तो आप के छिछोरे ले गए थे रही बात घोड़े और खच्चर ki तो आप के पास तो दोनों हैं. हम ख्वाब से ही काम चलते हैं,pr ये जरुर है की जब ख्वाब ही देखना हो तो खच्चर का क्यों काबुली घोड़ों का क्यों नहीं.आप की पोस्ट बहुत अच्छी लगी बहुत गहरे भाव छुपे हैं हर पंक्ति में जितनी आसान और सीधी दिख रही है उतनी है नहीं.इस बेहतरीन प्रस्तुती पर बधाई
ReplyDeleteवाह वाह देवेंद्र जी आप ने बहुत अलग सी कविता लेकिन बहुत सुंदर कही ,ाप ने इस कविता के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया बहुत अच्छि लगी धन्यवाद
ReplyDeleteफूल खिलने लगे फिर उसी शाख में
ReplyDeleteआंधियों ने जिन्हें कल हिलोरे बहुत
hame aapki rachna bahut bha gayi .
हुजूर , आत्मा को इतना भी बेचैन मत कीजिये !
ReplyDelete.
@ अपूर्व जी और शेर-शास्त्री जी. राजरिशी जी ,
जब लिखने वाले ने अपनी रचना को गजल या शेर का पैराहन नहीं
पहनाया है तो आप लोग गजलिया 'मूड' में क्यों देख रहे हैं कविता को ?
जहां कहीं तुकबंदी दिखे वहाँ रदीफ़-ओ-काफिया के भाव देखे जांय , यह आवश्यक
नहीं है ..
लोक लय में जाइए और देखिये कि सीधे सीधे कैसे भावानुसार लय अपने गायन का
और उवाच का रास्ता अख्तियार करती है !
लोक - लय अपने आप में पूर्ण है !
यहाँ बेचैन आत्मा ( नाम नहीं पता , इसलिए यही लिख रहा हूँ ) जी की कविता में
पूर्वी उत्तर प्रदेश की नौटंकी की 'तर्ज' दिखी हमें ( जरूरी नहीं कि लिखने वाले के
दिमाग में लिखते समय यह तर्ज रही हो क्योंकि तर्जें अवचेतन में भी धंसी
रहती हैं और कभी कभी हम ही वह गुनगुना जाते हैं जिसपे लय-विचार का
सचेत चिंतन नहीं रहता ) इस तर्ज को बचपन में नौटंकी में चुप-छुप-लुक
के सुना हूँ , जहां अंत के शब्द पर नगारा 'ढम्म' से तीन बार बजता है , और
चुटकी का भाव ध्वनि से भी संप्रेषित होता है ! इस कविता को लोक तर्ज में देखना
ज्यादा समीचीन होगा ..
आप लोग गजल के शिल्प के कमाल के पारखी हैं पर लोक लय की उपेक्षा भी
नहीं होनी चाहिए , आपको यह कार्य भी देखना होगा , आप सब ब्लोगिंग को संस्कार दे
रहे हैं इसलिए आपसे ज्यादा जिम्मेदारी की दरकार रहती है ..
.
ठीक लगे तो गौर कीजिएगा नहीं तो आत्मात्मक बेचैनी समझ कर 'किनरिया' दीजिएगा ..
आभार ,,,
टिकोरे/छिछोरे! गजब के बिम्ब! बाकी की भी रचनायें बांचनी होंगी बेचैनआत्माजी की!
ReplyDelete"किनरिया " काहे दिया जाय ,भाई अमरेन्द्र,
ReplyDeleteहमहू अवधी भाषा केर जानकार हई,हमहू देखेल है नौटंकी गावें में भैया लोगों के साथ छुप-छुप के ,,पाण्डेय जी की इ लोक कविता बहुत कुछ बचपने में
पहुंचा दिएअल हई,बहुत कुछ याद आ गया , कईसे आम तोड़ -तोड़ के पूरा बाग़ तहस -नहस कर दिए रहा ,और बहुत कुछ ....
"एक ही बात कहना चाहूंगी ,जिसने गाँव नहीं देखा उसने कुछ नहीं देखा हिंद्स्तान की आत्मा गाँव में ही है."सच्ची" ..............
सुंदर गजल...जैसे जीवन एक अमराई हो. हमारे इधर टिकोरे को कैरी कहते है.
ReplyDelete"वक्त पर काम आए खच्चर मेरे
ReplyDeleteहमने रक्खे थे काबुल के घोड़े बहुत
फूल खिलने लगे फिर उसी शाख में
आंधियों ने जिन्हें कल हिलोरे बहुत
यथार्थ।
बहुत सुन्दर लिखा है देवेन्द्र जी ।"
mai bhi bas ye hi kehna chaahta hoo!
kunwar ji,
wah...
ReplyDeleteअर्थपूर्ण और सुन्दर!
ReplyDeleteफूल खिलने लगे फिर उसी शाख में
ReplyDeleteआंधियों ने जिन्हें कल हिलोरे बहुत
Jiwan ka yatharth yahi hai....
Bahut arthpur rachna..
Haardik badhai
आपकी रचनाएँ पहले भी पढ़ चुकी हूँ. सब्से खूबसूरत इनका सरल और सहज होना है. शेष, मैं अमरेन्द्र जी की बात से सहमत हूँ, लोक लय इस रचना की विशेषता है.
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन बिम्बो का इस्तेमाल किया है आपने इस गज़ल मे और काबुल के घोड़ों का तो जवाब नहीं । बहुत सटीक व्यंग्य है ।
ReplyDeleteडाल में आ गए जब टिकोरे बहुत
ReplyDeleteबाग में छा गए तब छिछोरे बहुत
और फिर ऐसा छिछोरापन करने का जी करने लगा उसका क्या.
आह से वाह तक
आह इसलिये क्योकि हम अब वंचित हैं
वाह इसलिये क्योकि रचना अत्यंत सुन्दर है
Last line is very nice.
ReplyDeleteपाण्डेय जी
ReplyDeleteडाल में आ गए जब टिकोरे बहुत
बाग में छा गए तब छिछोरे बहुत..........उफ़ क्या मतला निकाला है हुज़ूर ने
फूल खिलने लगे फिर उसी शाख में
आंधियों ने जिन्हें कल हिलोरे बहुत..........कमल का शेर कह दिया.........सैकड़ों दाद क़ुबूल करें.....शानदार प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार
कितनी सरल भाषा और कितनी गहरी सोच...आपकी ग़ज़ल पढकर लगता है कि शब्दों का भारी भरकम होना आवश्यक नहीं, विचारों की गहराई महत्वपूर्ण है..
ReplyDeleteवक्त पर काम आए खच्चर मेरे
ReplyDeleteहमने रक्खे थे काबुल के घोड़े बहुत
vaah!
badhaai!
टिकोरे का अर्थ स्पष्ट करने के लिये शुक्रिया..कुछ नया जानने को मिला..और अपने इधर के आम के बाग और हाथ के पत्थर याद आ गये..
ReplyDelete..और अमरेंद्र जी की बात से पूरी तरह सहमत..और नगाड़े की यह तीन ’धम्म’ हमारे जेहन मे भी गाहे-बगाहे बज जाती हैं जब तब..हालाँकि नौटन्की मे उतनी रुचि नही जगा पाया..मगर.
पेंड़ को प्यार का मिल रहा है सिला
ReplyDeleteमारते पत्थरों से निगोड़े बहुत
बहुत खूबसूरती से लिखा है...बहुत खूब
bhai ..kavita ki tarah aacha hai
ReplyDeleteapka ye aam achaar ka hai
jo achar ke shaukiin hai vo pahle se hi peshgii de den baad m milne ki sambhavna kam hai
लोक रंग में रंगी इस रचना का आभार ! इसकी सबसे बड़ी विशेषता ही इसका लोक-रंग-पगना है !
ReplyDeleteलोक-लय की मोहक रचना ! आभार ।
वक्त पर काम आए खच्चर मेरे
ReplyDeleteहमने रक्खे थे काबुल के घोड़े बहुत
bahut khoob janab.