25.4.10

रिफ्यूजी

         भयंकर गर्मी, बिजली की आँच मिचौनी, अंतरजाल की सुस्त चाल और ब्लागिंग का शौक ! अपनी कविता पोस्ट करना भारी, अपनी कविता पर टिप्पणी करने वालों के ब्लाग में झांकना और भी भारी। दूसरों की पोस्ट को पढ़कर, समझकर जब तक कुछ लिखने का मूड बनता है तब तक बिजली चली जाती है। बच्चों की चीख-पुकार... "पापा कम्प्यूटर बंद कीजिए इनवर्टर से चलाएंगे तो अंधेरे में रहना पड़ेगा।" बड़ी आफत है ! अभी तक तो स्वांतः सुखाय कविता लिखता था इस ब्लागिंग के चक्कर में खामखा फजीहत मोल ले ली.. ऐसा लगता है। देखें कब तक चलता है। अभी बिजली है जल्दी से इस रविवार की कविता पोस्ट कर दूँ ....गप लड़ाने के चक्कर में बिजली चली गई तो अपना सा मुँह लेकर बैठना पड़ेगा।


प्रस्तुत कविता वर्ष २०१०-११ जनगणना अभियान को समर्पित है-


रिफ्यूजी



आधी रात 
ट्रेन से उतरकर
दबे पाँव
पसर जाती है प्लेटफॉर्म पर
पूरी की पूरी सभ्यता।


अलसुबह
नीम के पेंड़ से दातून तोड़ते वक्त
चौंककर जागता है---बुधई !
मन ही मन बुदबुदाता है-
"कहाँ से आय गयन ई डेरा-तम्बू------
गरीब लागत हैन बेचारे।"


धीरे-धीरे
सहिष्णुता के साए तले
दूध में पानी की तरह
घुलने लगते हैं 
रिफ्यूजी !


फिर नहीं रह जाते ये विदेशी
बन जाते हैं
पूरे के पूरे स्वदेशी।


समाजशास्त्र कहता है-
बूढ़ी सभ्यता
धीरे-धीरे बन जाती है
देश की संस्कृति।


संस्कृति का ऐसा विस्तार
परिष्कृत रूप
सिर्फ भारत में ही देखने को मिलता है।


इसे यों ही स्वीकार करने के बजाय
अच्छा है खोल दें 
जगंह-जगंह 
स्वागतद्वार
भूखी नंगी मानवता के लिए !


मानवता के नाम पर
धर्म के नाम पर
इन्हें अंगिकृत करने के लिए
दोनो बाहें फैलाए 
खड़े हैं 
बहुत से बुध्दिजीवी--------!


व्यर्थ ही देश को
सीमाओं में बांधने से भी
क्या लाभ ?

44 comments:

  1. देवेन्द्र जी,
    प्रस्तावना तो बिल्कुल हमारी आपबीती है, अच्छी लगी।
    कविता का संदर्भ(काल संबंधी - वर्तमान से संबंध रखती है या आजादी के समय से या तब से अब तक?) नहीं समझ पाया इसलिये अपना मत नहीं बता पा रहा हूं(आखिर हम भी ’तथाकथित’ रिफ़्यूजी हैं)।

    ReplyDelete
  2. बूढी सभ्यता धीरे धीरे बन जाती है............ बहुत अच्छी पँक्तियाँ ।

    ReplyDelete
  3. bahut hi sundar,dil ko andar tak bhigo gai aapki yah kavita.bilkul sach baat kahi hai aapne,sath me budhai ki bhi yaad dila di.
    poonam
    मानवता के नाम पर
    धर्म के नाम पर
    इन्हें अंगिकृत करने के लिए
    दोनो बाहें फैलाए
    खड़े हैं
    बहुत से बुध्दिजीवी--------!

    व्यर्थ ही देश को
    सीमाओं में बांधने से भी
    क्या
    लाभ ?

    ReplyDelete
  4. मो सम कौन...
    मैने यह कविता जनगणना अभियान वर्ष २०१०-११ को समर्पित किया है। इसके पीछे मेरा उद्देश्य भी यही है कि इसे वर्तमान संदर्भ में देखा जाय।

    ReplyDelete
  5. वाह..देवेन्द्र जी एक अलग अंदाज की कविता. बहुत बढ़िया लगी...धन्यवाद

    ReplyDelete
  6. क्या बात है..बहुत बढ़िया!!

    ReplyDelete
  7. प्रस्तावना जमी! वाह!

    ReplyDelete
  8. devendrajee samvedana sahishnuta manavata ko ujagar karatee rajneeti se uthkar bahut sunder rachana............

    ReplyDelete
  9. "अद्भुत शुरुआती पँक्तियाँ और अंतत: बेहतरीन कविता...."

    ReplyDelete
  10. बहुत सुंदर जी.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  11. धीरे-धीरे...सहिष्णुता के साए तले
    दूध में पानी की तरह...घुलने लगते हैं.. रिफ्यूजी.
    बहुत बड़ा सवाल उठाया है आपने. रचना प्रभावशाली है.

    ReplyDelete
  12. रिफ्यूजी .. बहुत शशक्त ... मानवीय संवेदनाओं पर आधारित सुंदर रचना ...

    ReplyDelete
  13. इसे यों ही स्वीकार करने के बजाय
    अच्छा है खोल दें
    जगंह-जगंह
    स्वागतद्वार

    अच्छा आइडिया है ...चलिए खोलते हैं स्वागत द्वार ....खिड़की तो पहले ही खोल राखी है अब द्वार भी खोल देते हैं .....!!

    पर ये जगंह-जगंह क्या है .....!!

    ReplyDelete
  14. संस्कृति का ऐसा विस्तार
    परिष्कृत रूप
    सिर्फ भारत में ही देखने को मिलता है।
    .... बहुत अच्छी प्रस्तुति ....
    हार्दिक शुभकामनाएँ

    ReplyDelete
  15. रेलवे स्टेशनों को इस दृष्टिकोण से कभी नहीं देख पाया ।

    ReplyDelete
  16. कहीं बिजली ही तो ईश्वर नहीं है ? इसने मेरा भी जीना हराम कर रखा है इन दिनों !
    कविता का मूल स्वर अच्छा लगा !

    ReplyDelete
  17. आधी रात
    ट्रेन से उतरकर
    दबे पाँव
    पसर जाती है प्लेटफॉर्म पर
    पूरी की पूरी सभ्यता।
    कमाल की कविता.

    ReplyDelete
  18. समसामयिक विषय पर उम्दा सोच।
    आभार स्वीकार करें।

    ReplyDelete
  19. aji sahab ye refugi ka itihaas hi aisa hain ,khatoor se hamre india main ,kuch chand log hi bache hain hain jo yahin kain hain ,varna sab refugi hi hain ,ye bhara maa ke seene ki garmahat ka hi fal hain ,ki yahan aakar kahin jaate hi nahi hain varna khaan ther paate hain ye refugi
    aapse kaafi kuch seekhne ki kosis karta hun ,jab bhi apke blog pe jaata hun .aapka baichain aatma ka column jaroora padhta hun ,har baar ek nya anubhav deti hain vo line

    ReplyDelete
  20. बहुत ही अदभुत रचना. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  21. bijli bachaanaa bahut jaruri hain, bijli bachaayenge tabhi bijli hum tak pahunch paayegi.
    lekin log bijli bachaane ko raazi hi nahi hain, or jab kisi kaaran-wash bijli nahi aati to log haay-taubaa machaane lagte hain.
    ye bahut galat baat hain.
    please save electricity.
    (bahut badhiyaa liikhaa hain aapne).
    thanks.
    WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

    ReplyDelete
  22. भारत में ही ये क्यों संभव है..? कारण खोजने में ही वर्षो लग जायेंगे तब तक रिफ्यूजी अपने वोटर आई डी से वोट भी कर चुके होंगे..

    ReplyDelete
  23. आधी रात
    ट्रेन से उतरकर
    दबे पाँव
    पसर जाती है प्लेटफॉर्म पर
    पूरी की पूरी सभ्यता।
    ....अदभुत रचना. शुभकामनाएं.

    ReplyDelete
  24. समाजशास्त्र कहता है-
    बूढ़ी सभ्यता
    धीरे-धीरे बन जाती है
    देश की संस्कृति।


    संस्कृति का ऐसा विस्तार
    परिष्कृत रूप
    सिर्फ भारत में ही देखने को मिलता है।


    इसे यों ही स्वीकार करने के बजाय
    अच्छा है खोल दें
    जगंह-जगंह
    स्वागतद्वार
    भूखी नंगी मानवता के लिए !

    वाह !!!!!!!!! क्या बात है..... बहुत जबरदस्त अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  25. Paar kar de har sarhad jo dilonme laa rahi dooriyan,
    Insaanse insaan taqseem ho khudane kab chaha?
    Behad sundar rachana hai aapki!

    ReplyDelete
  26. संसार के बहुत से देशों में भारतीय लोग भी कुछ अधिक ही संख्या में जाकर रहते हैं;अमेरिका,ब्रिटेन,अफ्रिका के कई देश,आदि.रिफ्यूजी लोग भी कई देशों में पडोशी देशों से जाकर रहने को विवश हैं.
    इंडीया में परिवार-नियोजन का काम भी अच्छी तरह से नहीं हो रहा है.
    यह तो सच है की रिफ्यूजी लोगों की भी अच्छी तरह से गणना होनी चाहिए और उन्हें वापस उनके देश भेजने का इंतजाम भी अच्छी तरह से किया जाना चाहिए.

    ReplyDelete
  27. बहुत जबरदस्त अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है।

    ReplyDelete
  28. माता भूमिः पुत्रोहम पृथिव्या!

    अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्, उदारमनसानां तु वसुधैव कुटुंबकम्!

    ReplyDelete
  29. ब्लॉग लिखना तो एक प्रसव से गुजरने का एहसास है. उस की तारीफ देख कर ब्लॉगर वैसे ही खुश होता है जैसे अपने बच्चे को exam पास होते हुए देख कर होता है.....
    रिफ्यूजी की कविता अच्छी लगी

    ReplyDelete
  30. बिजली महाठगिनि हम जानी
    बिजली का हाल किसी बेहद नखरीली नायिका की जी को खिजाने वाला रहता है..और गर्मी शुरू होते होते तो जैसे नाराज पत्नी की तरह मुँह फ़ुला कर मायके जा बैठती है..मगर धैर्य धरें :-)
    कविता की शुरुआत जबर्दस्त है

    आधी रात
    ट्रेन से उतरकर
    दबे पाँव
    पसर जाती है प्लेटफॉर्म पर
    पूरी की पूरी सभ्यता।

    और हाँ दूध मे पानी का घुलना तो स्वाभाविक है..मगर यदि तेल मे पानी घोलने की कोशिश हो तो सोचने लायक बात है..

    सवाल वाजिब है!

    ReplyDelete
  31. एक समस्या का समाजशास्त्रीय सह मनोवैज्ञानिक हल सुझाया है आपने.. जहाँ ईलाज ना हो वहाँ दर्द को सहज ही जीवन का अंग मान लेना पड़ता है, यदि स्वेच्छासे हो तो पीड़ा का अनुभव कम हो जाताहै...

    ReplyDelete
  32. भूमिका सुन्दर लगी ..
    और ये पंक्तियाँ भी---
    आधी रात
    ट्रेन से उतरकर
    दबे पाँव
    पसर जाती है प्लेटफॉर्म पर
    पूरी की पूरी सभ्यता।
    -------- बाकी अपूर्व भाई के वाजिब प्रश्न से मेरा भी साब्का है !
    सुन्दर कविता ... आभार !
    और ,,, आप गद्य भी लिखेंगे तो वह भी मनोरम होगा , ऐसा विश्वास है , अगर
    सिर्फ कविता लिखने को लेकर प्रतिज्ञा-बद्ध नहीं हैं तो !----- :) [ अब ससुरा ई
    चिह्न भी लगाना पड़ता है कि केहू मोरी बात का बुरा न समझै :) ]

    ReplyDelete
  33. ठीक है अमरेंद्र जी, आपकी सलाह मान कर अगली बार गद्य ही पोस्ट करूंगा।
    आप अपनी बेबाक टिप्पणियाँ जारी रखें इससे मेरा कल्याण ही होगा..
    -आभार।

    ReplyDelete
  34. सीमाएं सिर्फ़ बांध सकती है देश को
    हैसियत नहीं है उसकी
    कि बांध सके मानवता को ....

    ReplyDelete
  35. @अमरेंद्र भाई, गद्य मे व्यंग्य का देवेंद्र जी का तड़का जबर्दस्त होता है..एक उदाहरण तो ’रचनाकार’ मे व्यंग्य प्रतियोगिता मे ही देखा है..बाकी भुमिका पढ़ के ही अंदाजा लग जाता है...अब आपने इसरार कर दिया है..तो आगे इंतजार रहेगा...:-)

    ReplyDelete
  36. आप सिद्धहस्त हैं लेखन में - क्या कविता, क्या गद्य ! माँग अमरेन्द्र भईया की वाजिब है ! गद्य कम ही दिखता है यहाँ !

    सामर्थ्य से हम सब वाकिफ हैं आपके ! टिप्पणियाँ इतनी समर्थ करते हैं आप (कम से कम मेरे ब्लॉग पर तो देखा है मैंने ) तो पोस्ट का क्या कहना ! उस गद्य की झलक तो वहीं मिल जाती है हमें ।

    इस कविता का तो आगाज़ ही लुभा गया ! अलग मिज़ाज की कविता । आभार ।

    ReplyDelete
  37. भाई जी , आपका कबिता अपना आप में दस्तावेज है...एतना बढिया ऊ का कहते हैं बिस्लेसन बहुत कम मिलता है...
    लेकिन इसी से मिलता जुलता समस्या हमरा देस में एगो अऊर है... ऊ है घुसपैठिया का समस्या… ई समस्या असम से सुरू होकर बंगाल से होकर बिहार टप कर दिल्ली तक आ गया .. बंगला देसी घुसपैठिया... तनी बिचारिएगा...

    ReplyDelete
  38. हिन्दुस्तान को आइना दिखाती रचना..!

    ReplyDelete
  39. युग दृष्टि लिये कवि की एक कालजयी कविता। साधुवाद।

    ReplyDelete