पहले घर में बच्चे रहते
और रहती थीं
दादी-नानी
गीतों के झरने बहते थे
झम झम झरते
कथा-कहानी
घुटनों के बल सूरज चलता
चँदा नाचे
ता ता थैया
खेला करती थी नित संध्या
मछली-मछली
कित्ता पानी
सुग्गे के खाली पिंजड़े सा
दिन भर रहता
तनहाँ-तनहाँ
शाम ढले अब सूने घर में
बस से झरते
बस्ते बच्चे
पहले घर में कमरे होते
अब कमरे में घर रहता है
रहते हैं सब सहमें-सिकुड़े
हर आहट से डर लगता है
और अगर घर में कमरे हों
दादी-बच्चे
सब रहते हों
अलग-थलग जपते रहते हैं
अपनी-अपनी
राम कहानी
नए जमाने के हँसों ने
चुग डाले
रिश्तों के मोती
और पड़ोसन से कहती है
दादी फिर
आँसू को पानी
नए जमाने के हँसों ने
ReplyDeleteचुग डाले
रिश्तों के मोती
और पड़ोसन से कहती है
दादी फिर
आँसू को पानी
--वाकई, जमाना बदल गया है.
सुन्दर रचना!
और देवेन्द्र जी, ये व्यथा सभी की है। बड़े बचपना मिस कर रहे हैं, और बच्चे बड़ो से प्राप्त होने वाले प्यार, ऊष्मा, अनुभव को।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा।
आभार
यह चार पंक्तियाँ मन को चीर गईं, पूरी कविता पर भारी हैं यह पंक्तियाँ -
ReplyDelete"पहले घर में कमरे होते
अब कमरे में घर रहता है
रहते हैं सब सहमें-सिकुड़े
हर आहट से डर लगता है।"
अंत ने भी मुग्ध-मौन कर दिया !
आभार ।
waah zamana kitna badal gaya...ab kamra ghar ban gaya ..waah....
ReplyDeletehttp://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
नए जमाने के हँसों ने
ReplyDeleteचुग डाले
रिश्तों के मोती
और पड़ोसन से कहती है
दादी फिर
आँसू को पानी
बेहतरीन रचना । आज सुबह सुबह आनंद आ गया ।
बहुत सुंदर रचना ,मन को छू गई ,बदलते हुए वक़्त का वो चित्र जिसे अधिकतर घरों में महसूस किया जा रहा है
ReplyDeleteपहले घर में कमरे होते
अब कमरे में घर रहता है
रहते हैं सब सहमें-सिकुड़े
हर आहट से डर लगता है
बहुत उम्दा
नए जमाने के हँसों ने
चुग डाले
रिश्तों के मोती
और पड़ोसन से कहती है
दादी फिर
आँसू को पानी
ह्रुदय स्पर्शी रचना
sahee tasveer kheech kar rakh dee hai kavita nahee hue camera ho gayee Devendrajee...........
ReplyDeleteBahut khoob......
नये ज़माने ने सारे मायने बदल दिये ।
ReplyDeleteaaj ke samaj ka ek sach ghar bas naam ka hai wo pyar jo ek ghar ke logo me hona chhiye vilipu ho raha hai..sundar geet ke liye badhai
ReplyDeleteवाकई में सुन्दर अभिव्यक्त किया है बदलते दौर को...."
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना, इस नये जमाने को दर्शति
ReplyDeleteनए जमाने के हँसों ने
ReplyDeleteचुग डाले
रिश्तों के मोती
और पड़ोसन से कहती है
दादी फिर
आँसू को पानी ...
बहुत ही संवेदन शील रचना ... नये युग का यथार्थ ... सिमटी हुई महानगरीय जीवन शैली ने क्या क्या खो दिया है ....
बहुत सुन्दर रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
ReplyDeleteघुटनों के बल सूरज चलता
ReplyDeleteचँदा नाचे
ता ता थैया
खेला करती थी नित संध्या
मछली-मछली
कित्ता पानी
सुग्गे के खाली पिंजड़े सा
दिन भर रहता
तनहाँ-तनहाँ
शाम ढले अब सूने घर में
बस से झरते
बस्ते बच्चे
पहले घर में कमरे होते
अब कमरे में घर रहता है
रहते हैं सब सहमें-सिकुड़े
हर आहट से डर लगता है......
वाह ,भाई गदगद कर दिया,वाह.
घुटनों के बल सूरज चलता
ReplyDeleteचँदा नाचे
ता ता थैया
खेला करती थी नित संध्या
मछली-मछली
कित्ता पानी
बहुत सुन्दर रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
(ha..ha..ha...chori ka coment hai ..)
कभी हम भी ये मछली वाला खेल खेला करते थे ...आपने याद दिला दिया ....!!
('चहरे ' बहर में लाने के लिए करना पड़ा )
bahut hi badhiyaa likhaa hain aapne.
ReplyDeletehardya-sparshi.
thanks.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
पुराने और नए जमाने के बीच के अंतर का एक छोटी-सी कविता में अच्छी तरह से चित्रण हुआ है.
ReplyDeleteनए जमाने में सुविधाएँ बढ गई हैं ,मगर रिश्ते गायब हो रहे हैं.
नए जमाने के हँसों ने
ReplyDeleteचुग डाले
रिश्तों के मोती
और पड़ोसन से कहती है
दादी फिर
आँसू को पानी
बहुत सुन्दर भावों से भरी सुन्दर रचना....
नए जमाने के हँसों ने
ReplyDeleteचुग डाले
रिश्तों के मोती
और पड़ोसन से कहती है
दादी फिर
आँसू को पानी
.....सुन्दर अभिव्यक्त .
नए जमाने के हँसों ने
ReplyDeleteचुग डाले
रिश्तों के मोती
और पड़ोसन से कहती है
दादी फिर
आँसू को पानी
वाह !!!!!!!!! क्या बात है अच्छी है ये अभिव्यक्ति.क्या करें अब यही है, हर घर की कहानी
घुटनों के बल सूरज चलता
ReplyDeleteचँदा नाचे
ता ता थैया
खेला करती थी नित संध्या
मछली-मछली
कित्ता पानी
बहुत ही प्यारी कविता ...एक दम निश्छल शब्दों में पोषित भावनाओं को प्रकट करती कविता ...
नए जमाने के हँसों ने
ReplyDeleteचुग डाले
रिश्तों के मोती
और पड़ोसन से कहती है
दादी फिर
आँसू को पानी ...
बहुत ही संवेदन शील रचना ...
अच्छी रचना....
ReplyDeleteनए जमाने के हँसों ने
ReplyDeleteचुग डाले
रिश्तों के मोती
और पड़ोसन से कहती है
दादी फिर
आँसू को पानी
ahsason se bhari bahut kuchh yaad dilati bahut hibadhiyan prastuti.
poonam
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ReplyDeleteआधुनिकता की दौड़ में, ह्रास होते जीवन मूल्यों का करुण चित्रण... खो गई दादी नानी की कहानी, और बचपन के खोए खेलों को पुनः तलाशती ek सार्थक कविता..
ReplyDeleteबेहतरीन कविता यादों का कोलाज बनाया आपने ................. देर से आप तक आने की लिए माफ़ करेंगे.
ReplyDeleteयाद करो और ठंडी साँसे भरो ,समय में बहुत परिवर्तन हो चुका है |बुजुर्गों का घर में रहना और शाम को मछली पानी का खेल खेलना ।रात को कहानियां सुनना |तोता का पिंजरा जैसे खाली हो जाता है वैसे ही आजकल ""नये घर मे पुरानी चीज को अब कौन रखता है ,परिन्दों के लिये कूंडों मे पानी कौन रखता है ""घरों में सूना पन आगया है ।""झरते बच्चे झरते बस्ते"" बहुत अच्छा वाक्यांश प्रयोग किया है।पहले घर में कमरे होते थे अब कमरे घर रहता है लाइन बहुत प्यारी लगी जैसे पहले घी से सब्ज़ी बनती थी अब सब्ज़ी से घी बनता है ।सबकी अपनी अपनी धपली अपना अपना राग होगा नितान्त सत्य ।कितनी मार्मिक् बात कि दादी अपनी आंखों के आंसू किसको दिखलाये जिससे भी दुख व्यक्त करेगी वही कहेगी यह तो घर घर की कहानी है ।ब्लोग का नाम सार्थक करती रचना ।
ReplyDeleteआपकी कवितायें यथार्थपरकता लिए होती हैं और सीधे संवेदना से जुड़ जाती हैं संवाद कायम करती हैं -कभी मिलते हैं ढूंढ कर आपको !
ReplyDeletesach kaha aaj kal ke haal piro diye shabdo me.
ReplyDeleteपहले घर में कमरे होते
ReplyDeleteअब कमरे में घर रहता है
रहते हैं सब सहमें-सिकुड़े
हर आहट से डर लगता
वाह...कितनी सच्ची बात कही है आपने...आज के जीवन की त्रासदी को शब्द दिए हैं...वाह...
नीरज
पहले घर में कमरे होते
ReplyDeleteअब कमरे में घर रहता है
रहते हैं सब सहमें-सिकुड़े
हर आहट से डर लगता है
Kitna kuchh simat aaya hai in alfazonme! Aah!
Achchi kavita.
ReplyDeleteकितनी सच्ची बात कही है आपने।
ReplyDeletebahut sundar rachna lagi........
ReplyDeleteआशा करती हू ------
ReplyDeleteहंसों के वे जोडे वपस आएंगे
रिश्तों के टूटे मोती भी साथ लाएंगे
गूंथेंगे माला
पहनाएंगे दादी को
सुनाएंगे कहानी
और याद करेंगे नानी को
खेलेंगे खेल और
सूने घर में भर देंगे शोर
निराश न हों
होगी एक दिन फ़िर वही सुहानी भोर.....
सर बहुत दिन बाद आपके ब्लॉग पर आया हूँ , अच्छा लगा , आपने मेरे दुसरे जन्म दिन की तसवीरें के बारे में पूछा था , सारी तस्वीरीं मेरे फोटो ब्लॉग पर है
ReplyDeletehttp://madhavgallery.blogspot.com/
आखिरकार घडी चुरा ही ली । अब तो बेचैन आत्मा जी आप को चैन आ गया होगा। तृप्त हो गई आप की आत्मा चलो खुशी हुई :-)
ReplyDeleteसिर्फ़ कुछ पंक्तियों के द्वारा एक हँसता-खेलता और रश्क करने लायक चित्र कैसे खींचा जा सकता है..कोई आप से सीखे..
ReplyDeleteघुटनों के बल सूरज चलता
चँदा नाचे
ता ता थैया
खेला करती थी नित संध्या
मछली-मछली
कित्ता पानी
यहाँ चाँद-सूरज-शाम तक बच्चे बन जाते हैं बच्चों के साथ..
और एक भरा-पूरा घर हमारी शहरीकृत जीवन-शैली का सबसे बड़ा शिकार रहा है...बहुत-बहुत पहले दूरदर्शन पर देखा एक सीरियल अभी भी याद आता है जिसमे लड़के की दादी माँ शहर मे उनके साथ रहने को आती हैं मगर व्यस्त बेटे-बहू, परेशान पोते और बेखबर पड़ोसियों के साथ बड़ा असाह्ज महसूस करती हैं..मगर धीरे-धीरे अपने ग्राम्य-संस्कार के बल पर सबको अपना बना लेती हैं..
घर-मे कमरे रहें या कमरों मे घर मगर रहने वाले लोगों की अहमियत कम नही होनी चाहिये चाहे वो सात साल के हों या सत्तर..और किसी को आँसू को पानी कहने की जरूरत न पड़े..!
वैसे यह कविता को कवि-सम्मेलन आदि मे ढेर सारी तालियाँ बटोरने के लिये बनी है..सो यह लोगों तक पहुँचनी चाहिये..बधाई!!
very nice poetry really toughy......
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