ओ दिसंबर !
जब से तुम आये
हो
नये वर्ष की, नई
जनवरी
मेरे दिल में
उतर रही है।
ठंडी आई
शाल ओढ़कर
कोहरा आया
पलकों पर
छिम्मी आई
कांधे-कांधे
मूंगफली
मुठ्ठी भर-भर
उतर रहे हैं लाल
तवे से
गरम परांठे
चढ़ी भगौने
मस्त खौलती
अदरक वाली चाय।
ओ दिसम्बर !
जब से तुम आये हो
उम्मीदों की ठंडी
बोरसी
अंधियारे में
सुलग रही है।
लहर-बहर हो
लहक रही है
घर के दरवज्जे
पर
ललछौंही आँखों वाली कुतिया
उम्मीद से है
जनेगी
पिल्ले अनगिन
चिचियाते-पिपियाते
घूमेंगे गली-गली
भौंकेंगे
कुछ कुत्ते
नये वर्ष को
आदत से लाचार ।
ओ दिसंबर !
जब से तुम आये
हो
गंठियाई मेरी
रजाई
फिर धुनने को
मचल रही है।
भड़भूजे की लाल
कड़ाही
दहक रही है
फर फर फर फर
फूट रही है
छोटकी जुनरी
वक्त सरकता
धीरे-धीरे
चलनी-चलनी
काले बालू से
दुःख के पल
झर झर झरते
ज्यों चमक रही
हो
श्यामलिया की
धवल दंतुरिया।
ओ दिसम्बर !
जब से तुम आये
हो
इठलाती नई चुनरिया
फिर सजने को
चहक रही है।
...............................
वाह दिसम्बर में ही नववर्ष की नूतनता =,एक नव विहान का उद्घोष कवि ने कर दिया!
ReplyDeleteकवि तुम्हे भी मुबारक ....पिल्ले लल्ले और चिबिल्ले सब ! :)
नव वर्ष कुत्तों के लिए भी बड़ा महत्त्वपूर्ण होता है , यह अभी जाना ।
ReplyDeleteफिर से एक सुन्दर कविता ।
नयी शैली में एक बहुत सुन्दर कविता की रचना के लिए धन्यवाद,और बधाई.और और यैसी रचनाएँ आयें तो और मजा आयेगा.
ReplyDeleteआपके आने से बस सिकुड़ गये हैं हम।
ReplyDeleteउम्मीदों की ठंडी बोरसी
ReplyDeleteअंधियारे में सुलग रही है.
देख-देख नंगों का नर्तन
छाती में आग धधक रही है.
मोतियाबिन्द हुआ बाबा को
दादी की सांस उखड़ रही है.
रे, निर्लज्ज दिसंबर ! तू क्यों
इतना कोहरा लेकर चलता है
यूँ भी, उनकी कोहराई आँखें हैं
लूट-लूट कर देश हमारा
उनका घर पलता है
ठंड का गज़ब चित्रण है ! भड़भूजे वाला बेस्ट है।
ReplyDeleteआ ही गये ओ दिसम्बर!!
ReplyDeleteउम्मीदों की ठंडी बोरसी
ReplyDeleteअंधियारे में सुलग रही है...bahut khoob
Taralta liye hue,behad sundar rachana!
ReplyDeleteदिसम्बर की बैचेन आत्मा।
ReplyDeleteएक और शानदार
ReplyDeleteप्रस्तुति ||
दिसंबर को ओढ़ चहकती हुई कविता ..
ReplyDeleteहाय दिसंबर ले आया कितनी मीठी धूप,
ReplyDeleteओढ़ रजाई हम रहें,नहीं खुलें नलकूप !!
बहुत मस्त.....!
वाह ...बहुत खूब ।
ReplyDeleteसर्दी का सुहावना मौसम.......बहुत खूबसूरती से लफ्जों में उतरा है आपने|
ReplyDeleteवाह! क्या अंदाज है। हम तो कविता समझकर किनारे कर दिये थे। आज देखे तो लगा गजब है जी! चकाचक!
ReplyDeleteभड़भूजे की कढ़ाई तक आते आते कविता परवान चढ़ गयी... दमक ही उठी! बहुत बढ़िया!!
ReplyDeleteअब रजाई पहले धुनवा लिजिये इससे पहले कि जनवरी की ठण्ड आये .....:))
ReplyDeleteआहि गया दिसंबर ॥मगर अफ़्स्स की यहाँ न ठेले की वो गरमा गरम मुगफलियाँ हैं और न ही गज़क रेओडी की मिट्टी स्वगात .... अगर कुछ है तो वो christmas की धूम चोरो और बस cake choclates ice-creams...इस रचना के माध्यम से बहुत ही बढ़िया स्वागत किया है आपने दिसंबर का समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
ReplyDeletehttp://mhare-anubhav.blogspot.com/
बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteबेहतरीन लिखा है, पढ़कर आननद आ गया।
ReplyDelete......शानदार रचना
वाह! अलग ही अंदाज... सुंदर रचना..
ReplyDeleteसादर..
सुन्दर पोस्ट ....
ReplyDeleteदिसंबर पर बहुत ही ख़ूबसूरत और जीवंत कविता, बिलकुल नयापन लिए हुए
ReplyDeleteभीषण आशावाद है मित्र। आजकल कम ही दीखता है।
ReplyDeleteलोकभाषा के गुम होते शब्दों के प्रयोग के साथ उम्दा कविता बधाई और शुभकामनाएं |
ReplyDeleteउफ्फ ... बिचारी एक दिसंबर और इतना कुछ ले आती है अपने साथ ... कितना कुछ समेट रखा है ... यादों के पुलिंदे की तरह ...
ReplyDeleteनए अंदाज की सुंदर रचना....बेहतरीन पोस्ट
ReplyDeleteमेरी नई पोस्ट की चंद लाइनें पेश है....
जहर इन्हीं का बोया है, प्रेम-भाव परिपाटी में
घोल दिया बारूद इन्होने, हँसते गाते माटी में,
मस्ती में बौराये नेता, चमचे लगे दलाली में
रख छूरी जनता के,अफसर मस्ती के लाली में,
पूरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे
दिसंबर में ऐसी भयानक कविता झोंके पांडे जी तो हम तो बस एही कहेंगे कि लगत करेजवा में चोट!! ठण्ड से नहीं कविता के गर्मी से भाई!!
ReplyDeleteपांडे जी बहुत मनमोहक रचना ..प्रादेशिक शब्दों का बढिय प्रयोग किया है .....एक बात और मेरे पुत्र की एक wave side hai उसका नाम भी
ReplyDeleteबैचेन नगरी है ..बहत कुछ आपके ब्लॉग से मिलता जुलता ...आभार
आपका पोस्ट पर आना बहुत ही अच्छा लगा मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteBahut sundar panktiyan
ReplyDeleteदिसम्बर की ठंड् को अच्छा सुलगाया है आप ने ...
ReplyDeleteबढिया प्रस्तुति...
अब तो खैर मायके से विदा होने की तैयारी है दिसंबर की..सो झोला-झंडा बटोरेगा अपना..और इतना जाड़ा जो फ़र्श पर फ़ैला पड़ा है..इसे समेटने मे तो नया साल आ जायेगा...वैसे इस दिसंबर मे भुने हुए आलू हों और धनिये की चटपटी चटनी..और गरमागरम गुड़ वाली चाय..फिर देखिये..कैसे जाड़ा लातखाये कुत्ते के तरह किकिया के भागता है..वैसे श्यामलिया की दंतुरिया इधर तक चमक गयी..जाड़े की धूप की तरह.. ;-)
ReplyDeleteगज़ब्बे है एकदम! :)
ReplyDeleteदिसम्बर पर बहुत सटीक जवं सुन्दर सृजन
ReplyDeleteवाह!!!
बेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति सर।
ReplyDeleteसादर।
वाह…दिसम्बर का कैसा मनोरम चित्रण…😊
ReplyDeleteअहा ! बहुत सुंदर वर्णन जाड़े से जुड़े सभी आम तथ्यों को समेटे अप्रतिम सृजन।
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